क्या होता है प्रधानमंत्री?

By: Aug 29th, 2019 12:07 am

पीके खुराना

वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार

मंत्रियों का मुखिया ‘प्रधानमंत्री’ होता है जो पुराने जमाने में राजाओं का प्रमुख सलाहकार होता था, पर प्रधानमंत्री की भूमिका निर्णय करने की नहीं बल्कि निर्णय में सहायता के लिए सलाहकार की होती थी। लेकिन हाल के दिनों में प्रधानमंत्री अब ज्यादा शक्तिशाली हो गया है…

हर शब्द कुछ संदेश देता है। यदि हम शब्दों पर गहराई से नजर डालें, उनका विश्लेषण करें तो शब्दों के संदेश को समझना आसान हो जाता है। इससे शब्दों के प्रति हमारा नजरिया भी बदल जाता है। उदाहरणार्थ, अंग्रेजी का एक शब्द है ‘डपेंड’ जिसका अर्थ है किसी दूसरे व्यक्ति, घटना अथवा वस्तु पर निर्भर होना, इसी से बना है ‘डिपेंडेंट’ जिसका अर्थ है किसी दूसरे पर निर्भर, फिर आता है ‘डिपेंडेंस’ जिसका अर्थ है निर्भरता, और इसी से बना है ‘इंडिपेंडेंस’ यानी निर्भर न होना यानी कि स्वतंत्रता या आजादी। इस पूरी कड़ी को समझे बिना हम शायद डिपेंड यानी निर्भर और इंडिपेंडेंट यानी स्वतंत्र में रिश्ता न जोड़ पाते, पर शब्द की गहराई में जाने पर हमारा नजरिया एकदम बदल जाता है। हमारी अपनी भाषा हिंदी के शब्द ‘मंत्रणा’ का मतलब है सलाह करना या सलाह देना, मंत्रणा से ही बना है ‘मंत्री’ यानी सलाहकार या एडवाइजर।

मंत्रियों का मुखिया ‘प्रधानमंत्री’ होता है जो पुराने जमाने में राजाओं का प्रमुख सलाहकार होता था, पर प्रधानमंत्री की भूमिका निर्णय करने की नहीं बल्कि निर्णय में सहायता के लिए सलाहकार की होती थी। सन 1947 में हम स्वतंत्र हुए और 1950 में हम सर्वप्रभुता संपन्न गणराज्य बन गए। हमारे संविधान में अब तक 124 संशोधन हो चुके हैं। लेकिन यहां हम सिर्फ  चार महत्त्वपूर्ण संशोधनों के बारे में बात करेंगे। चौबीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से संसद की सर्वोच्चता स्थापित की गई, यानी संसद को कैसा भी कानून बनाने की स्वतंत्रता मिल गई। एक प्रावधान यह भी था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार काम करेंगे। बाद में 42वें संशोधन में इस प्रावधान को और भी स्पष्ट कर दिया गया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह मानने तथा संसद द्वारा पारित बिलों को स्वीकृति देने के लिए बाध्य हैं।

संविधान के 38वें संशोधन से राष्ट्रपति और राज्यपालों को अध्यादेश जारी करने का अधिकार मिला, परिणामस्वरूप संसद और विधानसभाओं की छुट्टी के दिनों में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अध्यादेश लाने का अधिकार मिल गया। बयालीसवें संविधान संशोधन से निर्देशक सिद्धांत अस्तित्व में आए और उन्हें मौलिक अधिकारों के मुकाबले वरीयता दे दी गई। बयालीसवां संविधान संशोधन बहुत व्यापक था जिसमें संसद और विधानसभाओं की अवधि पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गई, संसद में कोरम की आवश्यकता समाप्त हो गई, यानी यदि संसद में सिर्फ  एक ही सदस्य उपस्थित हो और वह संसद में पेश किसी बिल पर अपनी सहमति दे दे तो उसे पूरे सदन द्वारा पास किया माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार छीन लिया गया और उच्च न्यायालयों से संसद द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार वापस ले लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव संबंधी याचिकाओं की सुनवाई का अधिकार भी छिन गया। संयोग यह रहा कि उसके बाद केंद्र में सरकार बदल गई और नई सरकार ने 42वें संविधान संशोधन की बहुत सी धाराओं को निरस्त कर दिया तथा राष्ट्रपति को इतनी सी छूट दे दी कि वे संसद द्वारा पारित किसी बिल को संसद के विचारार्थ वापस भेज सकते हैं लेकिन यदि संसद उसे फिर से पास कर दे तो राष्ट्रपति को उस पर सहमति देनी ही होगी। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के मूल स्वरूप को बरकरार रखने की स्वतंत्रता भी वापस दे दी गई। दलबदल रोकने के नाम पर पारित 52वें संविधान संशोधन ने राजनीतिक दलों के मुखिया को अपने दल के अंदर सर्वशक्तिमान बना डाला जिसने उसे पार्टी सुप्रीमो बना डाला। अब यदि 24वें, 38वें, 42वें और 52वें संविधान संशोधनों को मिलाकर इनके समग्र प्रभाव को देखें तो भारतीय जनतंत्र की एक अलग ही तस्वीर नजर आती है। चौबीसवें संविधान संशोधन ने संसद को असीम शक्तियां दे दीं, यहां तक कि संसद के पास यह शक्ति आ गई है कि वह पूरा संविधान बदल दे, संविधान को ही निरस्त कर दे, देश में संसद के कानून द्वारा स्थापित किसी भी संस्था को समाप्त कर दे। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार संसद सर्वोच्च है लेकिन यह समझना रुचिकर होगा कि क्या संसद सचमुच सर्वोच्च है? क्या संसद सचमुच इन शक्तियों का उपभोग करती है? संसद में बिल पर वोटिंग के समय पार्टी ह्विप के कारण पार्टी की विचारधारा के अनुसार वोट देना सांसदों की मजबूरी हो गई।

इसका असर यह हुआ कि वोट की प्रासंगिकता ही समाप्त हो गई क्योंकि वोटिंग से पहले ही पता होता था कि संसद में पेश किए बिलों पर पक्ष और विपक्ष में कितने-कितने वोट पड़ेंगे। बहुमत में होने के कारण सरकार द्वारा पेश हर बिल का कानून बन जाना भी एक औपचारिकता हो गई। यानी, विपक्ष की प्रासंगिकता समाप्त हो गई क्योंकि विपक्ष न तो कोई बिल पास करवा सकता है, न संशोधित करवा सकता है और न रुकवा सकता है। गौरतलब है कि सत्तासीन दल का भी कोई ऐसा सदस्य जो मंत्री न हो, अगर सदन में कोई बिल पेश करे तो उसे निजी बिल माना जाता है और संसद का रिकार्ड बताता है कि सन 1970 के बाद से आज तक एक भी निजी बिल पास नहीं हुआ है। यानी, केवल मंत्रिपरिषद के पेश किए बिल ही कानून बन पाते हैं। प्रधानमंत्री यदि मजबूत हो तो वह संसद, पार्टी और मंत्रिपरिषद किसी की भी परवाह नहीं करता। प्रधानमंत्री और उसके दो-तीन विश्वस्त साथी ही निर्णय लेते हैं कि संसद में कौन सा बिल पेश किया जाए, अर्थात एक व्यक्ति अथवा उसका गुट पूरा देश चलाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अकेले ही निर्णय ले लिया कि इस देश को योजना आयोग की जरूरत नहीं है, मोदी ने अकेले ही निर्णय लिया कि नोटबंदी होनी चाहिए। प्रधानमंत्री इतना शक्ति संपन्न है कि वह पूरे देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है। इन संशोधनों के कारण हमारे संविधान ने ही प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति के सलाहकार के बजाय, लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया तानाशाह बना डाला है। प्रशासनिक मामलों में जनता की कोई भूमिका नहीं है। सिर्फ वोटिंग के दिन हम एक दिन के बादशाह होते हैं, उससे पहले या उसके बाद हमारी कोई सुनवाई नहीं है। सोचिए कि क्या हम ऐसा ही लोकतंत्र चाहते हैं जहां सिर्फ तंत्र है, या प्रधानमंत्री नाम का तानाशाह।      

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