गहराती मंदी की चुनौती

By: Aug 27th, 2019 12:07 am

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

इस नीति का मूल आधार यह है कि यदि भारत का वित्तीय घाटा नियंत्रण में रहेगा तो विदेशी निवेशकों को हमारी अर्थव्यवस्था पर भरोसा बनेगा, वे हमारे देश में उसी प्रकार निवेश करेंगे जिस प्रकार उन्होंने 80 और 90 के दशक में चीन में किया था। भारत में मैन्युफेक्चरिंग बढ़ेगी, रोजगार बढेंगे, हमारे निर्यात बढ़ेंगे और हम उसी प्रकार आर्थिक विकास को हासिल कर सकेंगे जैसा चीन ने किया था। इस मंत्र में समस्या यह है कि चीन ने 80 और 90 के दशक में जब इस मंत्र को लागू किया था उस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की परिस्थिति बिल्कुल भिन्न थी…

एनडीए सरकार ने राजमार्ग बनाने, बिजली की परिस्थिति सुधारने और सुशासन स्थापित करने में विशेष उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन इसके बावजूद देश में मंदी गहराती जा रही है। मंदी के गहराने का पहला कारण यह है कि सरकार ने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की पूर्व की नीति को जारी रखा है। इस नीति का मूल आधार यह है कि यदि भारत का वित्तीय घाटा नियंत्रण में रहेगा तो विदेशी निवेशकों को हमारी अर्थव्यवस्था पर भरोसा बनेगा, वे हमारे देश में उसी प्रकार निवेश करेंगे जिस प्रकार उन्होंने 80 और 90 के दशक में चीन में किया था। भारत में मैन्युफेक्चरिंग बढ़ेगी, रोजगार बढ़ेंगे, हमारे निर्यात बढे़ंगे और हम उसी प्रकार आर्थिक विकास को हासिल कर सकेंगे जैसा चीन ने किया था। इस मंत्र में समस्या यह है कि चीन ने 80 और 90 के दशक में जब इस मंत्र को लागू किया था उस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की परिस्थिति बिलकुल भिन्न थी और आज बिलकुल भिन्न है। विशेष अंतर आया है रोबोट के उपयोग से, आज संभव हो गया है कि जिस फैक्टरी में पूर्व में 500 कर्मचारी काम करते रहे हों उसी फैक्टरी को आज आप 10 या 20 कर्मचारी से संचालित कर सकते हैं।

मैन्युफेक्चरिंग का मूल कार्य जैसे कच्चे माल को मशीन में डालना, बने हुए माल को पैक करना इत्यादि रोबोट से किए जा सकते हैं। यदि किसी फैक्टरी में 500 कर्मी की जरूरत थी तो सस्ते श्रमिक का उत्पादन की लागत में गहरा प्रभाव पड़ता था, लेकिन यदि उसमें केवल 20 श्रमिक की जरूरत है तो सस्ते श्रम का प्रभाव कम पड़ता है क्योंकि कुल उत्पादन लागत में श्रम का हिस्सा कम हो जाता है। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज भारत जैसे विकासशील देशों में फैक्टरी लगाने को उत्सुक  नहीं हैं। अतः हमारे द्वारा वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने से विदेशी निवेश नहीं आ रहा है ैऔर यह रणनीति फेल हो रही है। वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की नीति को भी सही तरह से लागू नहीं किया गया है। सरकार बाजार से अपनी आय से अधिक खर्चों को पोषित करने के लिए जो ऋण लेती है उसे वित्तीय घाटा कहा जाता है। ये खर्च निवेश के रूप में खर्च किए जाते हैं अथवा खपत के रूप में, इससे वित्तीय घाटे पर कोई अंतर नहीं पड़ता है।

बीते समय में सरकार ने वित्तीय घाटे पर जो नियंत्रण किया है उसके लिए सरकार ने अपने निवेश अथवा पूंजी खर्चों में भारी कटौती की है। सरकार के राजस्व खर्च यानी सरकार की खपत में कटौती तुलना में लगभग शून्य कटौती हुई है। सरकार द्वारा किए गए निवेश और खपत का अर्थव्यवस्था पर बिलकुल अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। सरकार यदि ऋण लेकर हाई-वे बनती है तो बाजार में सीमेंट, स्टील और श्रम की मांग बनती है और यह अर्थव्यवस्था के गुब्बारे में हवा भरने सरीखा काम करती है। इसके विपरीत यदि सरकार की खपत में वृद्धि होती है तो यह मूल रूप से सरकारी कर्मियों के वेतन में वृद्धि के रूप में होती है। सरकारी कर्मियों द्वारा अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा या तो सोना खरीदने में, विदेश यात्रा करने में या फिर विदेश से आयातित माल की खपत करने में व्यय हो जाता है। वह रकम देश की अर्थव्यवस्था में घूमने के स्थान पर बाहर चली जाती है। सरकारी खपत पूर्ववत रहने से हमारी अर्थव्यवस्था की स्थिति उस गुब्बारे जैसी है जिसकी हवा धीरे-धीरे निकल कर विदेश जा रही है। मंदी तोड़ने के लिए सरकार को वित्तीय घाटे पर नियंत्रण की नीति पर पुनर्विचार करना होगा। वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए, लेकिन लिए गए ऋण का उपयोग निवेश के लिए करना चाहिए न कि सरकारी खपत को पोषित करने के लिए। सरकार यदि निवेश करेगी तो सीमेंट और स्टील की मांग उत्पन्न होगी, घरेलू निवेशक सीमेंट और स्टील की फैक्टरी लगाने में निवेश करेंगे और बिना विदेशी निवेश के हम आर्थिक विकास को हासिल कर सकेंगे। वर्तमान मंदी को तोड़ने का दूसरा उपाय सेवा क्षेत्र पर ध्यान देने का है। जैसा ऊपर बताया गया है कि रोबोट के उपयोग होने से अब भारत और चीन जैसे देशों में मैन्युफेक्चरिंग करके माल का अमरीका और यूरोप को निर्यात करने का जो पुराना सिलसिला था वह समाप्त हो रहा है।

लेकिन सेवाओं का निर्यात बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ सकता है। जैसे छात्रों को ऑनलाइन शिक्षा देना, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना अथवा हमारे शिक्षकों का निर्यात करके अफ्रीका के कालेजों में उनकी नियुक्ति कराना, इस प्रकार के कार्यों में निरंतर वृद्धि होने की संभावना है। यहां समस्या यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं किया जा रहा है। सरकार ने सुशासन स्थापित करने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन सरकारी यूनिवर्सिटियों और शोध संस्थाओं में नौकरशाही का आज भी बोलबाला है। सरकारी प्रोफेसरों के ऊपर तनिक भी दबाव नहीं है कि वे छात्रों को पढ़ाएं अथवा शोध करें। आज देश के 90 प्रतिशत कालेजों में छात्र कक्षा में जाना पसंद ही नहीं करते हैं। वे बाहर या तो स्वयं पढ़ते हैं या तो ट्यूशन पढ़ते हैं। इसलिए यदि हमें सेवा के सूर्योदय क्षेत्र में आगे बढ़ना है तो अपनी शिक्षा व्यवस्था का आमूलचूल सुधार करना होगा। मेरा सुझाव है कि सरकारी यूनिवर्सिटियों को दी जाने वाली रकम में हर वर्ष 10 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिए और उन्हें कहना चाहिए कि इस रकम को छात्रों की फीस इत्यादि से अर्जित करें। ऐसा करने से हमारे युवाओं की जो दबी हुई क्षमता है वह प्रस्फुटित हो जाएगी।

यकीन कीजिए कि आने वाले समय में इंटरनेट के माध्यम से तमाम रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे, लेकिन हम अपने छात्रों को उस दिशा में सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं और आज भी छात्रों में लालच सरकारी नौकरी का है जिसमें घूस लेने के अवसर बनते हैं, जिसमें कार्य नहीं करना पड़ता है और वेतन की मोटी रकम मिलती है। जब तक सरकारी शिक्षा का उद्देश्य सेवाओं का निर्यात नहीं होगा, तब तक अर्थव्यवस्था में सुधार होने की संभावना कम ही है। सारांश यह है कि सरकार को शीघ्रातिशीघ्र अपने खर्चों की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिए और उसके बाद वित्तीय घाटे को बढ़ाना चाहिए जिससे कि अर्थव्यवस्था में मांग बने और घरेलू निवेशक निवेश करें। दूसरे, शिक्षा व्यवस्था का सुधार करना चाहिए जिससे कि हम अपने छात्रों को अॅनलाइन सेवाओं के निर्यात के लिए सक्षम बना सकें, तब अर्थव्यवस्था की मंदी टूटने की संभावना बनेगी।       

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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