आदर्श गुरु, आज भी गोविंद

By: Sep 3rd, 2019 12:03 am

जगदीश बाली

स्वतंत्र लेखक

जब कभी कोई व्यक्ति जीवन में बड़ी सफलता या उपलब्धि प्राप्त करता है, तो हर किसी के मन में ये सवाल जरूर उठता है कि उसने किस स्कूल से शिक्षा हासिल की है। इस सवाल के पीछे आशय यह होता है कि जिस स्कूल से उसने शिक्षा प्राप्त की है, उस स्कूल के शिक्षक बेहतर रहे होंगे। सरकारें , स्कूलों की बेहतर इमारतें तैयार कर सकती हैं, परंतु बेहतर स्कूल बेहतर शिक्षक ही बनाते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संत्री, नेता, अभिनेता,  अधिवक्ता, वक्ता, प्रवक्ता, अध्यापक, प्राध्यापक, व्यापारी, समाजसेवी कोई भी हो, कितना भी महान हो और कितने ही ऊंचे पद पर आसीन हो, इन सभी की सफलता की कहानी का आगाज किसी विद्यालय के कमरे से आरंभ होता है जहां शिक्षक नाम के किसी प्राणी ने इन्हें ज्ञान की रोशनी दी। इनके शून्य से शिखर तक, सड़क से संसद तक व छोटे से घर से महलों तक के सफर की सीढ़ी उसी कक्षा के कमरे में उस अध्यापक ने तैयार की थी जिसने इनकी छिपी हुई प्रतिभाओं को उभार कर निखारा था। तभी महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है, जो बच्चे को बेहतर शिक्षा तालीम देता है, उनका सम्मान उनसे भी ज्यादा होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें पैदा किया है। शागिर्द की कारकर्दगी से अकसर पता चलता है कि उस्ताद कितना काबिल है। यह कहावत काफी हद तक हकीकत को ही बयां करती है। देश की दशा और दिशा इस बात पर निर्भर करती है वहां के नागरिकों का शैक्षणिक व नैतिक स्तर कैसा है। यही कारण है जब भी समाज में विकृतियां या बुराइयां आती हैं  या जब भी देश में व्यक्तित्व, ईमानदारी व नैतिक मूल्यों के क्षरण का सवाल उठता है, तब-तब हर किसी की नजर अनायास ही देश की शैक्षणिक व्यवस्था व शिक्षक की ओर जाती हैं। जब राजा धनानंद ने चाणक्य को भिक्षा मांगने वाला साधारण ब्राहम्ण कह जलील किया और अपने दरबार से खदेड़ दिया, तो उसने कहा था, अध्यापक कभी साधारण नहीं होता। निर्माण और विध्वंस उसकी गोद में खेलते हैं। चाणक्य ने अपने इस कथन को सिद्ध कर दिखाया था। एक हकीर से बालक चंद्रगुप्त को सुशिक्षित किया और नंद वंश का विध्वंस कर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया था। बेहतर मुल्क के लिए बेहतर तालीम का होना लाजिमी है और बेहतर तालीम के लिए बेहतर शिक्षक लाजिमी है। वक्त के बहते दरिया के साथ शिक्षा भी बदली, इसके आयाम बदले, इसकी दिशा और दशा बदली। यह गुरुकुलों और शांति निकेतनों से निकलती हुई आज विशाल इमारतों वाले मॉडल स्कूलों तक आ पहुंची। परंतु इस सारी कवायद में अध्यापक की शक्लोसूरत व प्रतिष्ठा का जो कुछ हुआ, वह एक शिक्षक के लिए काबिलेफख्र तो कतई नहीं हो सकता। इस सफर में उसने बहुत कुछ खो दिया और बहुत कुछ उस से छीन लिया गया। गोविंद से भी ऊपर का दर्जा रखने वाला अध्यापक आज हर किसी की निंदा का शिकार व प्रताड़ना का भागी बन गया। अभिभावक उससे निराश हैं, अफसर नाखुश हैं व सरकारें उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं। अगर कुछ बचा है, तो सिर्फ  पांच सितंबर यानी अध्यापक दिवस। इस दिन सरकार अध्यापकों को ईनाम दे कर सम्मानित करती हैं। इस दिन उनके सम्मान में मन की बातें आयोजित की जाती हैं, उसकी गाथाएं गाई जाती हैं, और महान लोगों द्वारा उसके बारे में कहे गए लजीज अल्फाज का खूब बखान होता है। परंतु यह दिन भी विवादों से घिरा रहता है। किन अध्यापकों को ईनाम दिए जाते हैं, ये हमेशा ही शक के दायरे में रहा है और पर्दे के पीछे का सत्य कुछ और ही होता है। यही कारण है कि प्रदेश में 24 इनामों के लिए केवल 34 अध्यापकों ने ही प्रार्थना पत्र भेजा है। खैर यह अलग मुद्दा है। पांच सितंबर की रस्म अदायगी के बाद क्या होता है बस वही निंदा और प्रताड़ना। कोई शिष्य अच्छे अंक ले तो वह शिष्य मेहनती , होशियार और अगर कहीं परीक्षा परिणाम का जायका जरा सा बिगड़ गया, तो गुरुजी नलायक। आखिर ऐसा क्या हुआ, जिस समाज ने गुरु को ज्ञान का सतत झरना मान कर सर आंखों पर बैठाया, आज उसी समाज के लिए अध्यापक का जायका क्यों बिगड़ता चला गया। दरअसल शिक्षण के व्यवसाय में मिशन विद पैशन वाली बात समाप्त होती जा रही है। अब ये सिर्फ  एक व्यवसाय बन रह गया है जिसमें पैशन अर्थात जुनून नहीं रहा। सिर्फ  तनख्वाह के लिए काम करना उद्देश्य रह गया। उधर राजनीति व अनुचित भर्तियों के कारण अध्यापन के नेक व्यवसाय में कई किस्म के ऐसे गुरु घुसते चले गए, जिनका सिर्फ  इस तंत्र में मंत्र चलता है। चाहे ऐसे गुरुओं की तादाद बहुत ज्यादा नहीं, पर बहुत कम भी नहीं है। मछली चाहे एक ही क्यों न हो, तालाब तो सारा गंदा कर ही जाती है और यहां तो कई मछलियां हैं। फिर हमारे गुरुओं की खूबी एक यह भी है कि एक बार गुरुजी बन गए फिर ज्ञान की सारी किताबें बक्से में बंद हो जाती है। अपनी सलाहियत बढ़ाने की बात तो दूर, इन गुरुओं ने अपने कारनामों की जो मिसालें पेश करनी शुरु कर दी उनसे समाज में अध्यापक की प्रतिष्ठा का गिरना अवश्यभावी हो गया। छात्रों से बद्ज़ुबानी, उन्हें बेरहमी से पीटनाए, उनके समक्ष अनुचित व्यवहार, उन्हें परीक्षाओं में नकल का भरोसा देना, यहां तक कि छात्राओं से दुराचार जैसी घटनाएं भी सामने आने लगी, जिन्होंने कहीं न कहीं उन गुरुओं की प्रतिष्ठा को भी धक्का पहुंचाया, जो वास्तव में शिक्षा जगत को अपनी सलाहियतों और समर्पण भाव से रोशन करते रहे हैं। क्या करें, जब छछूंदर के सर पर चमेली का तेल मिल जाए तो गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। यद्यपि आज अध्यापक का सम्मान समाज में कम हुआ है, तथापि बेहतर और आदर्श अध्यापक का समाज आज भी कद्र व सम्मान करता है। अध्यापक को याद रखना चाहिए कि विद्यार्थी अच्छे अध्यापक को हमेशा याद रखता है, परंतु वह बुरे अध्यापक को भी नहीं भूलता। जब-जब भी नई नस्ल की बात उठेगी, तो एक सवाल ये भी होगा, आखिर इस नई नस्ल को किसने तैयार किया? गुरुवर फिर आपका नाम भी सर्वोपरि आएगा।


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