उपचुनाव उवाच—8

By: Sep 29th, 2019 12:01 am

उपचुनाव की असमंजस में मेरे राजनीतिक ज्ञान की सारी सीमाएं टूट रही हैं, फिर भी मेरे भविष्य के छज्जे पर बैठे कौए हैं कि मानते नहीं। कौओं को लगता है कि उनके मटके में इतना पानी है कि किसी को भी डुबो दें। ऐसे में खबर सुधीर शर्मा के न लड़ने की आई, तो लगा कौए जीत गए। काले कौओं ने सफेद सुधीर को राजनीति के बियाबान में ले जाकर छोड़ा है। यह दीगर है कि इस घटनाक्रम ने कांग्रेस की टूटती नैया का विवरण ही दिया है। कांग्रेस की धुंध से अलग होते सुधीर शर्मा ने चुनावी परिस्थितियां भाजपा के लिए काफी आसान कर दी हैं। यह एक तरह का वाकओवर ही माना जाएगा, क्योंकि उम्मीदवारी के कांग्रेसी आवेदनों में न दम है और न ही ऐसा कोई नेता पार्टी की आपसी तू-तू, मैं- मैं में बचा है कि भाजपा का मुकाबला कर सके। मेरे अपने ख्वाबों में सुधीर का अलहदा होना, उस टुच्ची सियासत का विस्तार भी है जो इस समय देश में नेताओं का मजहब है। मैं यानी धर्मशाला यानी कांगड़ा यानी त्रिगर्त यानी सभ्यता, संस्कृति और संघर्ष की एक ऐसी इकाई जो अतीत के मिश्रण में कभी डुबकी लगाकर कई योद्धाओं को बाहर निकालता था। अब नए योद्धा आ गए जो चुनाव के मालिक हैं और खुदा न खास्ता जीत जाएं, तो हमारे स्वामी बन जाते हैं। रौब जमाते हैं। इसलिए समाज खामोशी से नेताओं की नौटंकी में अपना स्वार्थ ढूंढता है। मैं अपने पूर्व विधायकों की काबिलीयत में देखता हूं तो पाता हूं कि कितने लोग बिना स्नातक हुए भी मंत्री बन गए। केंद्रीय मंत्री भी बने। मेरा अपना ज्ञान साबित करता है कि मेजर बृज लाल दो बार मेरे एमएलए बने तो मुझे अपने सैन्य इतिहास पर फख्र हुआ। प्रो. चंद्रवर्कर एमएलए बने, तो मुझे लगा कि शिक्षित होना राजनीति को विजन दे सकता है। तब किसी ने चंद्रवर्कर की पृष्ठभूमि में यह नहीं पूछा कि उनका पैतृक स्थान पंजाब के बार्डर से जुड़ा क्यों है। इस बार मुझे टुच्चे नेताओं ने इतना नंगा किया कि मुझे खुद पर शक होने लगा कि कल कोई पुराना हिमाचली यह न कह दे कि ‘ऐ धर्मशाला’ तू तो पंजाब से आकर मिला है। तेरे भीतर की पंजाबियत यहां क्या कर रही।’ यही प्रश्न मेरे कान में आकर एक संभावित गद्दी और काफी पढे-लिखे नौजवान प्रत्याशी ने पूछा और सवाल किया कि, ‘अगर ‘वो’ मुझे भरमौर का गद्दी मानकर टिकट नहीं देंगे, तो यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि हर कोई सदियों से माइग्रेट होते-होते धर्मशाला में बसा है।’ आश्चर्य तो पार्टियों के नेताओं पर होता है। कांग्रेस के ही मनोनीत अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने खुद तो चुनाव लड़ा नहीं, लेकिन मुझे जीतने में सुधीर शर्मा को हटाने के लिए पार्टी को कामयाब कर रहे हैं। दरअसल राठौर की मेहरबानी व सियासी सोच से कांगे्रस सीधे-सीधे भाजपा को वाकओवर दे रही है। उन्हें बधाई। ऐसी कांग्रेस को बधाई। अतीत के लिए भी बधाई जब बाली ने सुधीर को और सुधीर ने बाली को धूल चटाई। शायद कांगड़ा को नेताविहीन करने में राठौर जीत गए। उनके कौशल को सलाम करता हूं, जहां पार्टी का राष्ट्रीय सचिव एक उप चुनाव में बौना कर दिया गया। अब मुझे भाजपा के उम्मीदवारों के चयन में बड़े नेताओं का कौशल देखना है। सतपाल सत्ती का हुनर, पवन राणा की मुस्कराहट और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की कांगड़ा के प्रति रुझान का एतबार करने के लिए मेरे लिए एक अदद उम्मीदवार ही काफी है।

मेरे मतदाता देखें कि उनकी शैक्षणिक योग्यता से काफी नीचे दो एमएलए धर्मशाला में मंत्री कैसे बने?

कलम तोड़


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