न कोई नीच, न कोई महान

By: Sep 25th, 2019 12:05 am

जगदीश बाली

 स्वत्रंत लेखक

मंडी जिले के एक सरकारी स्कूल में दलित बच्चों को पानी न पिलाने के निर्देश देना निंदनीय है। इस वाकया से बच्चों का मन विषाद और अवसाद से भर जाना स्वाभाविक है। स्कूल में तो एक ऊंच-नीच व जातिगत भेदभाव से विहीन समाज स्थापित करने का सबक सिखाया जाता है। विद्या के मंदिर में इस तरह की घटना अफसोसजनक है। इसी वर्ष जनवरी में बंजार के थाटीबीड़ के फागली उत्सव में देव कारकूनों द्वारा फेंके गए फूल एक अनुसूचित जाति के युवक के हाथ में क्या आ गए थे कि कारकूनों ने इसे अशुभ मान लिया और परिणाम स्वरूप उस युवक की पिटाई कर दी गई थी…

पानी ईश्वर, खुदा या कुदरत की जीवन प्रदायिनी देन है और जब ये बरसता है तो हर जगह हर आदमी पर बराबर बरसता है। ऐसा नहीं होता कि यह अमीर पर ज्यादा और गरीब पर कम बरसता है, ऐसा भी नहीं होता कि यह ऊंच-नींच या जाति-पाति का भेद कर किसी पर कम और किसी पर ज्यादा बरसता है। यह तो जब बरसता है, जहां बरसता है, बराबर बरसता है। कोई भी पी ले या किसी के भी हाथ से पिया जाए तो यह सबके कंठ को बराबर तर करता है और सबकी प्यास को बराबर बुझाता है। परंतु फिर भी मालूम नहीं क्यों पानी को लेकर भी इनसान भेदभाव करता है। मंडी जिले के एक सरकारी स्कूल में दलित बच्चों को पानी न पिलाने के निर्देश देना निंदनीय है। इस वाकया से बच्चों का मन विषाद और अवसाद से भर जाना स्वाभाविक है। स्कूल में तो एक ऊंच-नीच व जातिगत भेदभाव से विहीन समाज स्थापित करने का सबक सिखाया जाता है। विद्या के मंदिर में इस तरह की घटना अफसोसजनक है।

आपको याद होगा इस वर्ष जनवरी में बंजार के थाटीबीड़ के फागली उत्सव में देव कारकूनों द्वारा फेंके गए फूल एक अनुसूचित जाति के युवक के हाथ में क्या आ गए थे कि कारकूनों ने इसे अशुभ मान लिया और परिणाम स्वरूप उस युवक की पिटाई कर दी गई थी। उस फूल को क्या पता कि उसे किसके हाथ में जाना है और किसके हाथ में नहीं जाना है! फूल भी क्या करे। वह तो फूल है, ईश्वर द्वारा निर्मित प्रकृति का एक सुंदर उपहार। उसके लिए तो सब ईश्वर के बंदे हैं। वह नहीं जानता कि कौन ऊंची जाति का है, कौन निम्न जाति का है, कौन राजा है और कौन रंक। इन सबमें उसके लिए कोई फर्क नहीं। वह तो अपनी खुशबू सबको बराबर प्रदान करता है और सबको बराबर आकर्षित करता है। स तरह की घटनाओं से ये बात वाजी होती है कि भले ही भौतिक रूप से हमारे समाज ने उन्नति की है, परंतु रूढि़वादिता आज भी हमारी मानसिकता के किसी कोने में घर बनाए हुए है।

खासतौर पर ग्रामीण व दूर दराज के इलाकों में रूढि़वादिता व पूर्वाग्रह से ग्रस्त रीति-रिवाज आज भी चल रहे हैं। आखिर कब तक हमारा समाज इस तंग मानसिकता से ग्रसित रहेगा? जब तक हम ऐसी दकियानूसी सोच के दायरों से बाहर नहीं आएंगे, तब तक हम कभी लिंग के आधार पर सबरीमाला जैसी जगहों पर लड़ेंगे और कभी जाति के नाम पर किसी मंदिर के फूलों पर लड़ते रहेंगे और कभी स्कूलों में मिड-डे मील और पानी बांटने पर बंटते रहेंगे। ये बात समझना इतना मुश्किल नहीं है कि सभी इनसान ईश्वर या खुदा के अक्स हैं। हम सब उसी की संतान हैं। एक ईश्वर हमारा पिता है तो उसकी संतानों में कैसा भेदभाव या छुआछूत। तुलसी रचित रामायण में जब श्री रामचंद्र जी शबरी की कुटिया में पधारे, तो शबरी ने उनसे पूछा, केहि विधि स्तुति करौं तुम्हारी, अधम जाति मैं जड़मति भारी अर्थात मैं नीच जाति की बुद्धिहीन आपकी किस तरह से स्तुति करूं। तब शबरी के प्रेमभाव को देख कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी ने बड़े प्रेम से उसके अतिथि सत्कार को स्वीकार किया था और उसकी जाति की ओर ध्यान न देते हुए उसके द्वारा दिए गए फलों को भी खाया। यहां तक कि उन्होंने शबरी के प्रेम पूर्वक दिए जूठे बैरों को भी खा लिया था। उन्होंने शबरी को सिद्धासिद्ध और तपोधना कह कर सम्मानित भी किया था।

शबरी का सम्मान कर प्रभु ने सारी मानवता को यह संदेश दिया है कि मनुष्य अपनी जाति, रंग व रूप से महान नहीं होता अपितु अपने कर्म से महान होता है। क्या कभी किसी ने देखा है कि सूर्य की किरणें किसी पर मद्धम और किसी पर तेज पड़ती हैं और वर्षा की बूंदें किसी पर बरसती हैं और किसी को अछूता रख देती हैं। ये शाखें, ये परिंदे, ये नीला आकाश, ये हवा कोई भी तो भेदभाव नहीं करते। चांद का कोई मजहब नहीं। ईद भी उसकी मनाई जाती है और करवा चौथ भी। जिओ हो, रिलायंस हो, वोडाफोन हो, बीएसएनएल हो या एयरटेल हो, कोई ऐसा नेटवर्क नहीं जो किसी वर्ग या जाति विशेष के लिए बढि़या चलता है और किसी के लिए घटिया सिग्नल देता है या किसी वर्ग या धर्म के लिए रुक जाता है।

सभी की रगों में लाल रंग का खून बहता है। हमें न खुदा ने बांटा, न प्रकृति ने बांटा है, तो इनसान ने इनसान को क्यों बांट रखा है? उर्दू शायर इकबाल ने बहुत खूब कहा है, मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। सद्भाव सभ्यताओं को जोड़ता है और मजबूत राष्ट्र को बनाता है। जाति, वर्ण, रंग, धर्म कोई भी हो, वो एक दूसरे से न निम्न हैं न एक दूसरे से ऊपर। धर्मवाद, रंगवाद, जातिवाद ऐसी बीमारियां हैं जो केवल मानव को बांटती हैं और सभ्यताओं को विनाश की ओर ले जाती हैं। एक सभ्य समाज में किसी को हक नहीं कि वह जाति, धर्म और रंग के आधार पर किसी का हक छीनें या किसी को अपमानित करे। ये सभी धर्मों के उसूलों के विरुद्ध है, न धर्म टकराते हैं, न जाति, न रंग। टकराती यह तो इनसान की कुंद सोच व तंगदिली है। इंसान की एक ही जाति है और वह है इनसानियत। इनसान का एक ही धर्म है और वह है प्रेम। कबीर जी कहते हैं, अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे, एक नूर ते सब जग उपजया कौन भले कौ मंदे। ये एक निर्विवाद तथ्य और सत्य है कि आज तक कोई भी आदमी जाति, धर्म और रंग की चिप्पी या मोहर के साथ पैदा नहीं हुआ। परंतु कालांतर में अपनी सुविधा के अनुसार, स्वार्थ सिद्धि व वर्चस्व कायम रखने के लिए कुछ प्रभावशाली वर्गों ने ये चिप्पियां व मोहरें इनसानी समाज पर थोप दी। विद्यालयों जैसी संस्थाओं में जाति भेद अशोभनीय ही नहीं, बल्कि अस्वीकार्य है।


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