भारत में सड़क संस्कृति का सुधार

By: Sep 20th, 2019 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

जब मैंने संयुक्त राष्ट्र के लिए करीब 12 देशों में काम किया तो मैंने पाया कि अफ्रीका के आदिम देशों की दूरस्थ सड़कों तक में सड़क नियमों के प्रति पूरा सम्मान होने की तुलना में हमारी सड़कों पर बहुत ज्यादा अव्यवस्था है। सड़क पर जो एक कठोर नीति लगती है, वह मात्र अनियंत्रित व्यवहार को ढूंढने तथा सजा देने के लिए मात्र एक पुलिस कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह संस्कृति में बदलाव है जिसकी आलोचकों द्वारा सराहना नहीं हो रही है। मैंने अफ्रीका में देखा कि जब एक ड्राइवर दूसरे को पास देने की अनुमति देता है तो ‘ओबलाइजिंग’ चालक उससे, जो आगे बढ़ गया, सद्भावना का इशारा प्राप्त करता है। सद्भावना से ज्यादा यह व्यवस्थित यातायात तथा ‘स्मूद वर्किंग’ के लिए योगदान था…

जब केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने यातायात अपराधों पर नए विधान के दंड घोषित किए तो इस पर बड़ा हो-हल्ला हुआ तथा यहां तक कि कुछ राज्यों ने इसका सम्मान करने से इनकार कर दिया। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि यह सड़कों पर साझे सार्वजनिक आचरण को सुधारने की दिशा में एक कदम था। यह दुख का विषय है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में इस प्रकार के साझे सार्वजनिक आचरण का अभाव प्रायः देखा जाता है। जनता में सद्भावना या निर्दयता प्रदर्शित करने के अतिरिक्त उन लोगों की जान बचाने के लिए अनुशासन का अनुगमन करना आवश्यक है जो देश में सबसे ज्यादा हादसों में मरते हैं। नितिन गडकरी ने ठीक ही कहा है कि भारी जुर्माना लगाने का लक्ष्य पैसा कमाना नहीं है, बल्कि उस व्यवहार को रोकना है जिसके कारण सड़क हादसों में मौतें होती हैं। यह सड़क पर लोगों के लिए सुरक्षा मानक है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि सड़कों पर एक लाख 70 हजार मौतें सड़क सुरक्षा की एक बड़ी विफलता है।

जब मैंने संयुक्त राष्ट्र के लिए करीब 12 देशों में काम किया तो मैंने पाया कि अफ्रीका के आदिम देशों की दूरस्थ सड़कों तक में सड़क नियमों के प्रति पूरा सम्मान होने की तुलना में हमारी सड़कों पर बहुत ज्यादा अव्यवस्था है। सड़क पर जो एक कठोर नीति लगती है, वह मात्र अनियंत्रित व्यवहार को ढूंढने तथा सजा देने के लिए मात्र एक पुलिस कार्रवाई नहीं है, बल्कि यह संस्कृति में बदलाव है जिसकी आलोचकों द्वारा सराहना नहीं हो रही है। मैंने अफ्रीका में देखा कि जब एक ड्राइवर दूसरे को पास देने की अनुमति देता है तो ‘ओबलाइजिंग’ चालक उससे, जो आगे बढ़ गया, सद्भावना का इशारा प्राप्त करता है। सद्भावना से ज्यादा यह व्यवस्थित यातायात तथा ‘स्मूद वर्किंग’ के लिए योगदान था। जब मैंने अपनी पुस्तक ‘कारपोरेट सोल’ लिखी तो मैंने भारत में सैकड़ों संगठनों का अध्ययन किया तथा पाया कि प्रभावशाली प्रबंधन के लिए विश्वसनीयता तथा भरोसे की संस्कृति एक रास्ता था। सड़क पर विश्वास की संस्कृति पैदा करके हम चालकों के व्यवहार में बदलाव लाने में योगदान करते हैं।

यह सुझाव दिया जाता है कि सरकार को सद्भावना तथा यातायात नियम सिखाने के लिए बड़े स्तर पर प्रशिक्षण अभियान चलाना चाहिए। इस साल प्रोजेक्ट में देरी के कारण इसकी 3.16 लाख करोड़ लागत आई तथा यह पाया गया कि यह प्रायः लक्ष्यों की ‘लेड बैक स्लिपेजिज’ के कारण हुआ। सड़क नियमों का संचालन ‘चलता है’ जैसी संस्कृति की तरह होता है। मैंने अपनी पुस्तक में इस बात पर जोर दिया है कि देरी तथा अकुशलता के लिए यही संस्कृति एक कारक के रूप में है। देरी तथा दुर्घटनाओं के कारण कम उत्पादकता के लिए सड़क अनुशासन मुख्य योगदानकर्ता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब पहली बार अपना पदभार संभाला तो उन्होंने अनुशासित कार्य संस्कृति पैदा करने के लिहाज से सभी मंत्रियों को आदेश दिए कि वे समय पर अपने दफ्तरों में पहुंचें। लेकिन कई राजनेताओं को यह निर्देश पसंद नहीं आए क्योंकि वे अनुशासित कार्य संस्कृति में विश्वास नहीं रखते तथा ‘चलता है’ वाली संस्कृति का अनुगमन करते हुए वे अकसर लेटलतीफ नजर आते हैं और दफ्तरों में देरी से पहुंचते हैं। कुछ राजनेताओं ने तर्क किया कि क्या हम स्कूल में हैं जिनकी उपस्थिति लगनी है तथा अच्छा रिजल्ट भी देना है। पूरे विश्व में ‘चलता है’ की नरम संस्कृति को ‘प्रेसाइज फंक्शनिंग’ की संस्कृति ने काउंटर किया है। मैं जब पहली बार जापान की यात्रा पर गया तो यह देखकर प्रभावित हो गया कि युवा पुरुषों और महिलाओं के समूह अपने दफ्तरों की ओर इस तरह औपचारिक ‘मैनर’ में बढ़ रहे थे जैसे वे किसी युद्ध के लिए जा रहे हों। कम्प्यूटर तथा टैक्नालोजी ने हमें सिखाया कि हमें विस्तार में किस तरह कार्य करने की जरूरत है तथा ‘लेड डाउन रिजीम’ के अनुरूप ठीक रीति से हमें किस तरह काम करना है। तकनीक ने हमें ठीक रीति से काम करना सिखाया क्योंकि अगर विराम या अर्द्ध विराम की जगह गलती हो जाती है तो मेल बाऊंस हो जाती है।

दंड की मात्रा का प्रश्न बहस योग्य है। पहले ही आधे राज्यों ने गडकरी के आदेश को संशोधित कर दिया है या फिर कानून में तय किए गए दंड को लागू करने से इनकार कर दिया है। यहां तक कि भाजपा द्वारा शासित कई राज्यों ने ही इसमें संशोधन का फैसला कर लिया है। यह भी बहस का विषय है कि कड़े दंड के कारण लोगों की कितनी असुविधा होगी तथा इससे भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिल सकता है। वास्तव में जो दंड तय किए गए हैं, उनको तर्कसंगत करने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर ओवर स्पीड एक गंभीर अपराध है, जबकि पिछली सीट पर बैल्ट न लगाना इतना गंभीर अपराध नहीं है। पर्याप्त दस्तावेज के अभाव में एक ट्रक चालक पर लाखों का जुर्माना होता है, जबकि एक छात्र अपनी बाइक को जला देता है क्योंकि उसे किया गया जुर्माना उसकी बाइक की कीमत का आधा था।

ऐसी स्थितियों में जुर्माने पर फिर से विचार करने की जरूरत है, साथ ही लागू करने की विधि की भी समीक्षा होनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि उल्लंघन के मामले में दंड होने चाहिए, लेकिन अपराध की गंभीरता को जरूर देखा जाना चाहिए। जापान में एयर इंडिया के अधिकारी एक जापानी की ओर से आयोजित किए गए लंच में शराब छूने तक से भयभीत हो गए क्योंकि उन्हें हाइवे पर नशे के साथ चलने पर दंड हो जाने का खतरा था। स्लोवानिया में एक प्रोफेसर, जो प्रधानमंत्री का सलाहकार भी था, को सड़क पर रोका गया तथा उसका चालाना काटा गया। प्रोफेसर इतना भयभीत हो गया कि वह बाद में लंच तक ग्रहण नहीं कर सका। उसने मुझे बताया कि अगर उसे दोबारा ओवर स्पीड में पकड़ा जाता है तो उसका लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। जब मैंने उससे कहा कि वह इस मामले में बचने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय का हस्तक्षेप करवा सकता था तो उसने इससे इनकार किया और कहा कि कानून के उल्लंघन के मामले में कोई भी मदद करने को आगे नहीं आएगा।

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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