रुलाओगे क्या पगले

By: Sep 26th, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

मुनादी वाला मुनादी कर रहा है। ढिंढोरची ढिंढोरा पीट रहे हैं। जुमलेबाज जुमले फेंक रहे हैं। नशों से अधमुंदे छोकरे सारंगी पर बजती बधाई धुन को रूदन राग में बदलता देखते हैं, पर नाचने से परहेज नहीं करते। देश में लोगों के लिए सनसनी की कमी है। अच्छे दिन आने के उद्गार उनका पेट नहीं भरते। नेताओं ने अपने लूमड़ चेहरों पर हंसमुख मुखौटे चढ़ा लिए हैं। चुनाव करीब आ गए। अपने चुनाव हलके की जिन गलियों और बाजारों का भूगोल भी उन्हें भूल गया था, वहां अब उनकी पदचाप सुनाई देती है। गलियां, बाजार, सड़कें, चौराहे वैसे ही हैं, दो-चार घंटे सावन शोर करके गुजर जाए तो बाद में इनकी अस्मत लुटी नजर आती है। सड़कें जंगली पगडंडियों में बदल जाती हैं। उनमें अचानक उभर आए गड्ढे राहगीरों को निमंत्रण देते हैं कि आओ और हममें गिरो। गिर कर अपना कूल्हा तुड़वा कर चीखो तो संदेश देना, ‘मेरा भारत महान कह मेरी जान’। चीखों में से भी तेरी यह आवाज उभरेगी तो ये देशभक्त कह तो सकेंगे कि अपने इस रुदन भरे गायन से अब हमें रुलाएगा क्या पगले? हांए अब यहां गाना और रोना एक समान हो गया, भूख और उपवास एक समान हो गए। राजधानी में भूख से सुबक-सुबक कर तीन लड़कियां मर गईं तो सरकारी आंकड़ा शास्त्री बोले, अबे क्यों चिल्लाता है, उनके राज में तो हर रोज़ औसत तीन लड़कियां मरती थीं, हमारे में तो औसत कम हो गई। यही तरक्की है, मेरी जान, इसलिए हरि बोल।‘सपनों का बंजारा रैलियों के मंच से कहता है, मेरे पैरों में घुंघरू बंधवा दे, और फिर मेरी चाल देख ले’। हम इस चाल पर हजार जान से फिदा। यह चाल क्रांति का आह्वान नहीं, सीधा प्रहार करती है। इसने नोटबंदी की, एक रुपए का काला धन बाहर नहीं आया। लेकिन पूरे का पूरा बैंकों में जमा होकर उन्हें संपन्न तो कर गया। तब अंधाधुंध बड़े लोगों में ऋण बंटा, समर्थ धन भकोस विदेश उड़न छू हो गए। इन्हें वापस लाने के प्रयास होते हैं तो वे कहते हैं ‘पहले अपनी जेलों को पंचतारा बनाओ, वातानुकूलित करो, तभी हम वापस आएंगे’। उनकी इस प्रगतिशील मांग ने आम आदमी की आंखें भर दीं। देखो बैकों के खाते मृत बनाकर विदेश भाग कर भी स्वदेश की जेलों की बेहतरी की कितनी चिंता कर रहे हैं। जेल सुधारो अभियान चलाओ, तभी वे वापस लौटेंगे। जेल बेहतर हो जाएंगे, इससे चोर उचक्के और उठाईगीर खुश हैं। बैंकिंग व्यवस्था के खातों को मौत का संदेश दे इन आर्थिक भगौड़ों ने जेल सुधार की कितनी चिंता की। खुद तो बाहर की नागरिकता खरीद चैन की बंसी बजाएंगे और बाकी बच गए उनके बस्ता उठाने वाले चम्मच, जब तक राजनीति में जा चोर उचक्का चौधरी और गुंडीरन्न प्रधान की लोकोक्ति प्रमाणित नहीं करते, तब तक वे जेलों को सुधरते देख यही कहेंगे, ‘अब इस विकास से भी हमें रुलाएगा क्या पगले’। लेकिन विकास ही क्यों समय भी तो पगला रहा है। बर्नार्डशा ने भी तो यही कहा था कि ‘यह राजनीतिक समय शैतानों का शरण स्थल है’।


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