आंसू-आंसू का खेल

By: Oct 2nd, 2019 12:01 am

उपचुनाव उवाच-11

मुझे अब दूर खड़ा पच्छाद भी बुलाने लगा है। धर्मशाला के संयोग पच्छाद में जाकर अपने लगे। मेरे लिए कभी किशन कपूर ने जितने आंसू बहाए थे, कमोबेश उतने ही पच्छाद की दयाल प्यारी की आंखों में देखकर मैं अपना दर्द भूल गया। मैं धर्मशाला के तमाम ब्राह्मणों या सवर्णों का दर्द भूल गया, क्योंकि दयाल प्यारी के आंसुआें में भाजपा से मोह भंग होने का सैलाब देख रहा था। मेरे अपने यानी राकेश शर्मा, सचिन शर्मा, राजीव भारद्वाज और संजय शर्मा की आंखें कमाल की हैं। बार-बार आंसू पी जाती हैं। वैसे भाजपा उस समय से सचेत है, जब से किशन कपूर के आंसुआें का हिसाब लगाया है। बाकायदा यह शर्त भी रही होगी कि नेहरिया जब परचा भरें, तो सभी अपनी-अपनी आंखों में सूखा बनाए रखें। असर देखा भी गया और जिन्होंने कपूर का भाषण सुना, सूनी आंखों में एक कतरा भी नहीं देखा। उपचुनाव में मेरे घायल शेर घास खा रहे हैं, लेकिन बकरियां खून पीने को आमादा हैं। वैसे धर्मशाला का घास शुरू से ही मशहूर रहा है। कहते हैं कि अंग्रेज सात समुद्र से अपने साथ लाते थे और यहां बिछा देते थे। त्रियूंड के डाक बंगले के बाहर ऐसा घास आज भी है। पता नहीं राजनीति के घायल शेर कौन सा खा रहे होंगे। मेरी सहानुभूति घास से भी है और शेरों की घास से यारी कराने की तैयारी भी है। मुझे किसी ने बताया कि भाजपा की हिम्मत सातवें आसमान पर है, इसलिए उम्मीदवारी बताने वालों की पहले ही दांत निकाल दिए जाते हैं। गजब का संगठन। उम्मीदवार के मुंह में न दांत और न ही आंख में आंसू रहने दिए जाते हैं। मेरे अपने किशन कपूर की आंखों में सूनापन मुझसे देखा नहीं गया, इसलिए मैं अपने आंसू बहाता रहा। कभी अपनी प्रगति के रुकने पर रोया, तो कभी अपनी गंदगी पर रोया। मैं पच्छाद को भी सलाह दूंगा कि मेरी तरह या दयाल प्यारी की तरह रोना सीख ले। हर विधानसभा क्षेत्र मेरी तरह रोना सीख ले और रोना पड़ेगा भी। हर चुनाव में नाचती राजनीति पर और जीत के बाद प्रतिनिधि की लाचारी पर रोना पड़ेगा। धर्मशाला की इमारतें टपकती हैं, तो पच्छाद की कौन सी मजबूत होंगी। धर्मशाला का बस स्टैंड शर्मसार है, तो सराहां का कौन सा बेदाग है। वहां भी सड़कों पर वाहन रेंगते होंगे या मेरी तरह ट्रैफिक जाम में जिंदगी परेशान होगी। वहां भी सत्ता बनाम विपक्ष के खेल में आंसू निकलते होंगे। धर्मशाला के आंसू जाहिर तौर पर मोटे और स्थायी इसलिए हो गए, क्योंकि मेरे आसपास सियासत के ढोंगी रहे। मुझे बरगलाते रहे कि मैं सत्ता के शीतकालीन प्रवास का मुख्यालय हूं या मेरी गोद में विधानसभा का शीतकालीन सत्र मुझे मेरा हक देगा। मुझे स्मार्ट सिटी का तमगा पहनाकर गंदा खेल खेलती राजनीति के लिए किसे दोष दूं, क्योंकि मेरे आंसू ‘अंडर ग्राउंड डस्टबिन’ में सुरक्षित हैं या बाद में पूर्व विधायक के नाम पर जो लगे उन्हें ढूंढते-ढूंढते निकल गए। मेरा गुरूर देखो और तकदीर देखो कि सत्ता कभी अघोषित दूसरी राजधानी का मुखौटा पहनाती रही और जब बाकायदा घोषित दूसरी राजधानी का ताज पहनाती, तो मेरा हुलिया ही बिगाड़ देती है। मुझे पच्छाद की दयाल प्यारी रुला रही है, फिर भी दाद देता हूं कि कहीं तो स्वाभिमान की चिंगारी तो है। मेरे लिए जो उम्मीदवारी का ढोल पीटते थे, उनकी खुद्दारी के बिना भी मुझे यकीन है कि विधानसभा क्षेत्र का चुनाव अब किस तरह एक दुकानदारी है। यहां जीत-हार का फर्क नहीं और न ही पार्टियों के चरित्र में कोई अंतर। मुझे यानी धर्मशाला को तो हर बार नए से नए और अधिक से अधिक तोरणद्वार सजाने हैं। मेरे वजूद पर कल भी लाल कालीन बिछेगा और जीत के बाद जश्न के बूटों से मुझे रौंदा जाएगा। मैं यानी धर्मशाला अपने आंसुआें को इसी तरह लाल कारपेट के नीचे छुपा लूंगा-सदा की तरह।

आंसू पोंछने की आस में

कलम तोड़


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App