एक बयान की दिलासा

By: Oct 24th, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

मित्रो, आज फिर आपसे संवाद करने का शुभ अवसर प्राप्त हो रहा है। सच जानिए जब-जब आपसे अपनी बात साझा करने का मौका मिलता है, मन गदगद हो उठता है। मेरे मन की आंखों के आगे घूमने लगते हैं, आपके वे आतुर और व्याकुल चेहरे जो केवल इस सभागार में ही मुझे सुनने के लिए नहीं आए, बल्कि अभी या कल तक खबरिया चैनलों, अखबारों के मुख्य पृष्ठों और इंटरनेट संपर्क  से आप सब तक पहुंच जाएंगे। मेरी बात आप तक पहुंच जाएगी, इसका मुझे विश्वास है, क्योंकि कुछ  छपे, बोले या देखे शब्दों को प्रसारित करने के लिए हमने सबका उचित भुगतान कर दिया है। जानता हूं कुछ वाचाल तथाकथित पत्रकार इसे भुगतान पत्रकारिता कह इसका अपमान करते हैं, लेकिन आप बताइए किसी को उसकी मेहनत का उचित मूल्य चुकाना क्या अनैतिकता है, बेईमानी है। बल्कि इससे अधिक ईमानदारी तो कोई और हो ही नहीं सकती। हम तो भई, जो हमारे लिए थोड़ा भी कष्ट करे उसका मुंह देख उस पर अपने पैसों का थप्पड़ चला इसे अपना बना लेते हैं। सच जानिए यह ऐसा थप्पड़ है जिसे खाने के लिए बड़े-बड़े तरसते हैं। फिर हमसे पिटा हुआ नहीं अनुगृहीत अनुभव करते हैं। सच जानिए भौतिक रूप ही नहीं उनकी आत्मा तक हमारे धन्यवाद से सराबोर हो जाती है। माफ  कीजिए मैंने आत्मा तक कह दिया। क्योंकि युग बदल गया उसके मूल्य बदल गए। आज नई दुनिया के इस बाजार में हर चीज बिकने लगी। आत्मा नाम की वस्तुएं जी हां इस वस्तुवादी युग में उसे वस्तु ही कहेंगे न जाने कब से अनुपस्थित हो गई। कभी-कभी हमारे बड़े-बूढ़े इनकार करते हुए कहा करते थे ‘जी नहीं, मैं रिश्वत नहीं ले पाऊंगा, मेरी आत्मा मेरा जमीर गवारा नहीं करता’। लेकिन जनाब आत्मा तो अनुपस्थित हो गई, और जमीर न जाने कब का बिकाऊ हो गया। यह दुनिया एक बड़ा नीलाम घर है, यहां हर चीज बिकती है। सही है कुछ उम्मीद से सस्ता बिक जाता है और कुछ सिद्धांतों और आदर्शों की दुहाई अधिक देते हैं को अधिक भरपाई देनी पड़ती है। अब देखिए, आप इस रैली में तशरीफ  लाएं। हमने अपने आने-जाने की व्यवस्था की, दिन के लिए भरपेट भोजन का इंतजाम ही नहीं, आपके लौटते हुए आपकी मुंह दिखाई की रस्म भी देंगे। अर्थात जैसा मुंह होगा वैसी ही उस पर धन की क्रीम चुपड़ दी जाएगी। जो आपको इकट्ठा करके लाया उसे अधिक शगुन मिलेगा, जो पीछे-पीछे केवल जाने लगाने, और तालियां बजाने आया उसे जाहिर है, कुछ कम मिलेगा। परंतु मिलेगा सब को। बस यही तो हमारा समाजवाद है, लेकिन चंद कथित खोजी पत्रकार हमारी इन रैलियों को भाड़े की रैलियां और हमारा संदेश आप तक पहुंचाने वालों को बिका हुआ मीडिया कह देते हैं, लेकिन हम उसे इनके श्रम का मूल्य कहते हैं और हमारी अल्मारियां खोल बरसों के गड़े मुर्दे उखाड़ने जाने को उनकी खोजी पत्रकारिता को कथित पत्रकारिता कहते हैं। आपको पता है आजकल हमारे इस अवसाद ग्रस्त देश में एक ही सुख रह गया है। दो जून रोटी नहीं, पहनने को उचित कपड़े नहीं, सिर पर छत के नाम पर आसमान का चन्दोवा है, जो आजकल ‘मौसम सामान्य है’ की भविष्यवाणी के साथ असामान्य बारिश से उखड़े हुए लोगों को आप नौका विहार का मौका देता है, और बाढ़ ग्रस्त इलाकों में नेताओं को वायुयानों से मुआयना करके यह संदेश देने का, कि स्थिति नियंत्रण में है।


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