आत्म पुराण

By: Nov 16th, 2019 12:15 am

पूर्वकाल में ऋग्वेद के आचार्य एक आश्वलायन नाम के ऋषियों ने किसी समय ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्राप्त करने के विचार से ब्रह्माजी के पास जाकर कहने लगे हे भगवन! जो ब्रह्म विद्या समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ है तथा समस्त विद्वान पुरुष अपने हृदय में जिसका सेवन करते हैं उसका उपदेश देने की मेरे ऊपर कृपा करो। तब ब्रह्माजी कहने लगे, हे आश्वलायन जिस अधिकारी पुरुष की गुरु शास्त्र के वचनों में आस्तिक बुद्धि रूप श्रद्धा है तथा जिस अधिकारी पुरुष को ब्रह्म के उपदेष्टा गुरु में परम भक्ति है तथा जो ब्रह्माकार वृत्ति रूप ध्यान से युक्त है, वही ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।  श्रद्धा, भक्ति,ध्यान इन तीनों से रहित पुरुष को ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। हे आश्वलायन जैसे ये तीनों ब्रह्मज्ञान के साधन हैं, वैसे ही संन्यास भी उसका साधन है,क्योंकि अधिकारी पुरुषों को अग्निहोत्र आदि कर्मकांडों से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। अगर अग्निकांड, पुत्र-पौत्र ध्न आदि से कभी ब्रह्मज्ञान कुछ अंशों में मिले भी तो वह परोक्ष ही होती है। इसलिए श्रुति का वचन है।

 न कर्मणा न पुजया धनेन त्यागनैके अमृतत्व भावशुः।

अर्थात यह अमृत भाव(ब्रह्मज्ञान) कर्मकांड, पुत्रादिक अथवा सुवर्णादि द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। प्राचीन काल के विद्वान इन सबके त्याग अर्थात संन्यास द्वारा ही इस अमृत भाव को प्राप्त कर सके थे। इसका तात्पर्य यह है कि यह आनंदस्वरूप ब्रह्म स्वर्गलोक से परे अमृतरूप है और वह ब्रह्म सब जीवों के हृदय रूप गृह में स्थित है इससे स्वयं प्रकाश रूप है। ऐसे स्वयंप्रकाश ब्रह्म का परोक्षज्ञान एक प्रकार का ज्ञानभ्रांति है।  इससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्ष अपरोक्ष ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। वह उस संन्यासी को ही संभव है जो ब्रह्मवेता गुरु के मुख से वेदांत वचनों को श्रवण करके उनका निरंतर मनन और निदिध्यासन करता रहता है।  हे आश्वलायन जिस अधिकारी पुरुष का चित्त निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करने में समर्थ न हो, उसको हृदय कमल में सगुण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार का ध्यान उमादेवी के रूप में करना चाहिए।  ध्यान किया जाए कि सर्व प्रकार से रूप संपन्न उमादेवी वहां पर स्थित हैं। वह उमादेवी सर्व शक्ति संपन्न है। उसी उमादेवी के अनुग्रह से इंद्रादिक देवता तथा मनुष्य आदि जीव स्वर्ग आदि लोकों को तथा मोक्ष को प्राप्त होते हैं। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय उमादेवी के प्रभाव से ही संपन्न होते हैं। वह उमादेवी अपने पति महादेव के साथ विराजमान है। वे महादेव उमादेवी से भी अधिक गुणों से युक्त हैं।  वे ही ब्रह्मादिक समस्त देवताओं के गुरु हैं। वे व्याघ्र चर्म को धारण करने वाला समस्त शरीर में भस्म लगाए, मस्तक पर द्वितीया के चंद्रमा को धारण किए और जटाओं में गंगाजी को धारण किए हुए हैं। उनका शरीर गौ के क्षार के समान उज्जवल है और उसकी प्रभा कोटि सूर्यों के तुल्य है। उन महादेव को ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्याजात, वामदेव ये पंचमूर्ति हैं। वे महादेव इन पंचमूर्तियों द्वारा इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति, संहार प्रवेश और अनुग्रह इन पांच कार्यों को सिद्ध करते हैं।


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