जनता को समाधान चाहिए

By: Nov 14th, 2019 12:06 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

हम यह भूल जाते हैं कि हमारी भैंस तो दरअसल हमारे जीवन से जुड़े रोजमर्रा के सवाल हैं। यानी, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य , महिला सुरक्षा, परिवहन व्यवस्था, कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, पीने योग्य पानी, भोजन और किसान, महंगाई, प्रदूषण रहित हवा तथा ऐसे ही अनगिनत मुद्दे, लेकिन हम हैं कि भैंस के बजाय भैंस के घंटे की ओर खिंचे चले जाते हैं, फालतू मुद्दों की बहस में उलझ जाते हैं और आपस में ही लड़ने लगते हैं…

मैं जब छोटा था तो मेरी दादी मुझे कहानियां सुनाया करती थीं। उनकी सुनाई कहानियों में एक कहानी चोरों की कार्यशैली के बारे में भी थी। वह कहती थीं कि चोर बहुत चालाक होते हैं, जब वे भैंस चुराते हैं तो सबसे पहले वे भैंस के गले से घंटे को खोलते हैं, फिर एक चोर घंटा बजाते हुए किसी एक दिशा की ओर भागता है और बाकी चोर भैंस को किसी दूसरी दिशा में ले जाते हैं। गांव के लोग घंटे की आवाज सुन कर आवाज की दिशा की ओर भागते हैं, लेकिन आगे जाकर चोर घंटे को फेंक कर भाग जाता है। इसलिए गांव वालों के हाथों में सिर्फ  घंटा ही आता है और चोर भैंस चुरा ले जाते हैं। अकसर राजनीतिज्ञ और तथाकथित बुद्धिजीवी लोग भी हमारे साथ यही खेल खेलते हैं। यह किसी एक राजनीतिक दल की बात नहीं है। सभी दल कमोबेश ऐसा ही करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हमारी भैंस तो दरअसल हमारे जीवन से जुड़े रोजमर्रा के सवाल हैं। यानी, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य , महिला सुरक्षा, परिवहन व्यवस्था, कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार, पीने योग्य पानी, भोजन और किसान, महंगाई, प्रदूषण रहित हवा तथा ऐसे ही अनगिनत मुद्दे, लेकिन हम हैं कि भैंस के बजाय भैंस के घंटे की ओर खिंचे चले जाते हैं, फालतू मुद्दों की बहस में उलझ जाते हैं और आपस में ही लड़ने लगते हैं। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर सब कुछ खा जाता है। राम जन्मभूमि पर अदालत का फैसला आ चुका है। धारा 370 इतिहास हो गई है और तीन तलाक का मुद्दा भी खत्म है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद भाजपा-शिवसेना तकरार ने एक बार फिर हमारे संविधान की एक महत्त्वपूर्ण कमजोरी को उजागर किया है और वह कमजोरी यह है कि यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले तो कोई गठबंधन स्थायी नहीं है, गठबंधन स्थायी हो तो भी ब्लैकमेलिंग हो सकती है, बल्कि होगी ही, और विधायकों की खरीद-फरोख्त का बाजार खुल जाएगा। महाराष्ट्र में फिलहाल राष्ट्रपति शासन लगाया गया है, लेकिन विधानसभा कायम है। विधानसभा भंग नहीं हुई है। मतलब साफ  है कि केंद्र सरकार की मंशा है कि अगले छह महीनों में चुनी हुई सरकार का जुगाड़ बन जाए। हालांकि ऐसे में यदि सरकार बन भी जाए तो वह न प्रभावी होगी, न टिकाऊ और न ही वह जनहित के कामों को कर पाएगी, हम सिर्फ विभिन्न घटकों की आपसी खींचतान का तमाशा देखेंगे। यही नहीं, उसे सही मायनों में चुनी हुई सरकार कहना भी गलत होगा क्योंकि वह भानुमति का कुनबा होगी जिसकी कोई नैतिक पहचान नहीं हो सकती, लेकिन संविधान की इस कमी पर बात करने के बजाय सभी बुद्धिजीवी इस विश्लेषण में लगे हैं कि आगे क्या हो सकता है, किसे लाभ होगा, क्या शरद पवार फिर से किंग मेकर होंगे? क्या शिवसेना ने गलती की है? सरकार की संभावनाएं क्या हैं? सोनिया गांधी का रुख क्या होगा? इत्यादि-इत्यादि। हमारा मुद्दा यह है कि विधायकों की खरीद-फरोख्त के माध्यम से सरकार नहीं बननी चाहिए। हमारा मुद्दा यह है कि सरकार में शामिल दल ब्लैकमेलिंग के बजाय जनहित पर ध्यान दें। मुद्दा यह है कि चुनाव परिणाम से ही जनता को स्पष्ट हो जाना चाहिए कि सरकार किसकी होगी। हरियाणा में लोकदल से टूट कर जन्मी जननायक जनता पार्टी ने भाजपा को समर्थन दिया और बदले में उपमुख्यमंत्री पद सहित कई अन्य पुरस्कार भी पा लिए, जिनमें मुख्य रहा जेल में बंद अभय चौटाला को फटाफट पैरोल मिलना।

जनता ने दुष्यंत चौटाला के दल को सत्ता में नहीं भेजा था। उनका सत्ता में आना जोड़-तोड़ का परिणाम है। महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम की घोषणा हो जाने के बाद जो नाटक चलाए उसमें विरोधी विचारधारा के दलों के आपस में मिलने की आशंका थी। राष्ट्रपति शासन लग जाने के कारण यह आशंका बलवती ही हुई है। बड़ी बात यह है कि यदि विपक्षी दलों के गठजोड़ से सरकार बनी तो भाजपा उसे चलने नहीं देगी। भाजपा अभी भी इसी उम्मीद में है कि अंततः सरकार उसी की बनेगी। जब तक यह उम्मीद कायम रहेगी, विधानसभा भंग नहीं होगी और विधायकों के खरीद-फरोख्त का बाजार खुला ही रहेगा। ज्यादा संभावना तो इसी बात की है कि भाजपा किसी दल विशेष से गठजोड़ की संभावना की बात करते-करते भी दरअसल सभी दलों से विधायकों को तोड़ कर आवश्यक संख्या बल जुटाने की कोशिश में लग चुकी होगी। मैं फिर कहता हूं कि मुद्दा यह नहीं है कि सरकार कब बनेगी, किसकी बनेगी, कितनी टिकाऊ होगी, भविष्य क्या होगा, बल्कि मुद्दा तो यह है कि ऐसी स्थिति दोबारा न आए, इसके लिए हम क्या कर सकते हैं। समय-समय पर विभिन्न दलों के वरिष्ठ लोगों ने राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत की है। उसमें भाजपा और कांग्रेस के नेतागण शामिल रहे हैं। दो पूर्व केंद्रीय मंत्री कांग्रेस के शशि थरूर और भाजपा के शांता कुमार राष्ट्रपति प्रणाली के कट्टर समर्थकों में शामिल हैं। बहुत से बुद्धिजीवी भी राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत करते हैं। मुंबई के निवासी आर्किटेक्ट जशवंत मेहता कई दशकों से पुस्तकें छाप-छाप कर लोगों को जागरूक करने में लगे हैं और धर्मशाला निवासी तथा दिव्य हिमाचल के चेयरमैन भानु धमीजा ने भी हिंदी व अंग्रेजी में छपी अपनी पुस्तकों के माध्यम से यह मशाल जलाई है ताकि शासन व्यवस्था से भ्रष्टाचार खत्म हो तथा शासन-प्रशासन में चुस्ती आए और वह पूरी तरह से जनोन्मुखी बन सके।

राष्ट्रपति प्रणाली की खासियत यह है कि उसमें जनता सरकार के मुखिया के रूप में किसी एक व्यक्ति को चुनती है और विजेता व्यक्ति को सरकार बनाने के लिए किसी जोड़-तोड़ की आवश्यकता नहीं होती। सरकार के मुखिया को विभिन्न शक्तियां प्राप्त हैं पर वे सीमित और संतुलित हैं। राष्ट्रपति प्रणाली में व्यक्ति के तानाशाह बनने की गुंजायश नहीं होती। तो मुद्दा यह है कि हमारे जूते में कंकड़ फंस गया है और हमें जूते से कंकड़ निकालने की तरकीब करनी है, पेनकिलर खाने से काम नहीं बनने वाला। आज केंद्र सरकार के पास आवश्यक बहुमत है कि वह संविधान बदल सके और राष्ट्रपति प्रणाली की ओर कदम बढ़ा सके। मुद्दा यह है कि सरकार अस्थिर न हो, मुद्दा यह है कि सरकार की समयावधि निश्चित हो, मुद्दा यह है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका अपना-अपना काम करें, स्वतंत्र हों लेकिन एक-दूसरे पर उनका सीमित नियंत्रण भी हो ताकि सरकार को कोई भी अंग सर्वशक्तिमान न हो जाए। तो आइए मिलकर इस मुद्दे को आगे बढ़ाएं और बुद्धिजीवियों और जनप्रतिनिधियों को विवश करें कि वे हमारे मुद्दे की बात करें, हमें पेनकिलर न दें, जूते से कंकड़ निकालें।’

ई-मेलः indiatotal.features@gmail


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App