महाराष्ट्र की नई सरकार

By: Nov 30th, 2019 12:06 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

जाहिर है मुस्लिम अंडरवर्ल्ड को हिंदू के उत्तर भारतीय होने सा दक्षिण भारतीय होने से कोई मतलब नहीं था। उस कालखंड में शिव सेना ने अपने चिंतन व दृष्टि का विस्तार करना शुरू किया व संगठित मुस्लिम गुंडागर्दी का दबाव देना शुरू किया। इस प्रकार शिवसेना ने अपने कार्यक्षेत्र का भी विस्तार किया। कुछ दूसरे प्रांतों में भी छुट-पुट शाखाएं खोलीं। धीरे-धीरे शिवसेना का सामान्यीकरण हुआ और उसने समग्र रूप से हिंदू हित या भारतीय हित की बात करनी शुरू कर दी। इस मरहले पर उसका भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता जुड़ा…

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में भाजपा और शिव सेना ने मिल कर चुनाव लड़ा था। वैसे भी पिछले तीन दशकों से दोनों दलों के बीच साझेदारी चल रही थी। मुंबई और उसके आसपास के क्षेत्रों में शिवसेना का किसी न किसी रूप में प्रभाव भी है। शिवसेना का विकास मोटे तौर पर मुंबई, महाराष्ट्र या मराठों के लिए है, इस प्रकार के नारों के बीच हुआ था। इसलिए अपने पहले दौर में शिव सेना गुजरातियों और दक्षिण भारतीयों का विरोध करने वाले मंचों पर पली बढ़ी थी। उसके बाद जब उसका दायरा विकसित हुआ तो उसने उत्तर भारतीयों, खासकर हिंदी भाषियों को भी अपने निशाने पर ले लिया था। बीच-बीच में शिव सैनिक इक्का-दुक्का उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय की पिटाई भी कर देते थे, लेकिन इन्हीं वर्षों में मुंबई में मुस्लिम सांप्रदायिकता भी बढ़ने लगी थी। उनके संगठन भी बनने लगे थे और छोटे-मोटे राजनीतिक दल भी बन गए थे, लेकिन उनके मूल में अंडरवर्ल्ड मुस्लिम गिरोह थे, जिनका ओवर ग्राउंड हिस्सा ये राजनीतिक दल थे। जाहिर है मुस्लिम अंडरवर्ल्ड को हिंदू के उत्तर भारतीय होने सा दक्षिण भारतीय होने से कोई मतलब नहीं था। उस कालखंड में शिव सेना ने अपने चिंतन व दृष्टि का विस्तार करना शुरू किया व संगठित मुस्लिम गुंडागर्दी का दबाव देना शुरू किया। इस प्रकार शिवसेना में अपने कार्यक्षेत्र का भी विस्तार किया। कुछ दूसरे प्रांतों में भी छुट-पुट शाखाएं खोलीं। धीरे-धीरे शिवसेना का सामान्यीकपण हुआ और उसने समग्र रूप से हिंदू हित या भारतीय हित की बात करनी शुरू कर दी। इस मरहले पर उसका भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता जुड़ा। दोनों की समिलित शक्ति के कारण महाराष्ट्र में सत्ता भी संभाली, लेकिन शुरुआती दौर में शिवसेना-भाजपा के गठबंधन में शिवसेना नंबर एक पर थी और भाजपा दोयम दर्जे पर थी, लेकिन तब भी शिवसेना का प्रभाव न तो पूरे क्षेत्र में था और न ही सभी जाति समुदायों में। समयानुसार भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव क्षेत्र पूरे महाराष्ट्र तक ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र के सभी जाति समुदायों में फैल गया था।

जाहिर है कि प्रदेश की राजनीति में भाजपा का स्थान पहले नंबर पर हो गया और शिवसेना नंबर दो पर आ गई, लेकिन उन्हीं दिनों ठाकरे परिवार में ही फूट पड़ गई कि बाला साहेब ठाकरे के शिव सैनिकों का सेनापति कौन बनेगा। उनके बेटे उद्धव ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे में युद्ध छिड़ गया। दोनों ने अपनी- अपनी पार्टी संभाल ली, लेकिन अभी तक शिवसेना का यह सिद्धांत था कि सत्ता के सिंहासन पर सेनापति नहीं बैठेगा बल्कि कोई शिव सैनिक ही बैठेगा। पर इस पारिवारिक लड़ाई में दोनों सेनापति राज ठाकरे व उद्धव ठाकरे स्वयं ही सत्ता सिंहासन के दावेदार बनने लगे। पर इस पारिवारिक कलह में भी शिव सेना इस यथार्थ को जानबूझकर नहीं देख रही थी कि उसकी हैसियत व प्रभाव सीमित हो गया है। वह विधानसभा के चुनावों में भाजपा से यह मांग करती रही कि प्रदेश की 288 विधानसभा सीटों पर दोनों पार्टियां बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। भाजपा न उसकी यह मांग स्वीकार नहीं की, लेकिन भारी दबाव के चलते उसे 125 सीटें दे दीं। स्वयं भाजपा ने 150 सीटों पर चुनाव लड़ा। उस समय भी बहुत से चुनाव विश्लेषक कह रहे थे कि भाजपा ने शिवसेना को ज्यादा सीटें दे दीं हैं। शिव सेना अधिकांश सीटों पर पराजित हो जाएगी। चुनाव परिणामों ने यह सिद्ध भी कर दिया। भाजपा 150 में से 105 सीटें जीत गईं अर्थात उसने 70 प्रतिशत सीटें जीत लीं जबकि शिवसेना 125 में से केवल 56 अर्थात 45 प्रतिशत सीटें जीत पाई। उधर शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी की कांग्रेस, दोनों मिल कर चुनाव लड़े थे। उनमें भी बहुत लड़ाई होती रही। सोनिया कांग्रेस अपने आप को राष्ट्रीय दल बता कर पहले नंबर की पार्टी अपने आप को मान रही थी और शरद पवार की एनसीपी को दूसरे नंबर की पार्टी मान रही थी, लेकिन चुनाव परिणामों में एनसीपी ने 54 और सोनिया कांग्रेस ने 44 सीटें जीतीं। यानी कुल मिलाकर सोनिया कांग्रेस प्रदेश में चौथे नंबर पर पहुंच गई। अब तक शिवसेना के सेनापति उद्धव ठाकरे ने परिवार की विरासत को तिलांजलि देकर किसी शिव सैनिक के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार के लिए मुख्यमंत्री का सिंहासन मांगना शुरु कर दिया। शिव सेना शायद अब भी यही मान कर चलती थी कि वह महाराष्ट्र में नंबर एक की हैसियत रखती है, लेकिन भाजपा इसे कैसे स्वीकार कर सकती थी? अब दोनों दलों के पास क्या विकल्प बचता था? भाजपा के पास एक ही विकल्प था कि वह एनसीपी के साथ मिल कर सरकार बना ले, लेकिन एनसीपी के साथ भाजपा की वैचारिक सांझ क्या हो सकती थी। सबसे बड़ी सांझ यही थी कि शरद पवार ने ही यह आंदोलन चलाया था कि विदेशी मूल की महिला भारत की प्रधानमंत्री नहीं बन सकती। यह बहुत बड़ा आंदोलन था। अभी भी उस आंदोलन की आवश्यकता है, लेकिन शिवसेना के आगे कोई विकल्प नहीं था। क्योंकि उसको सरकार बनाने के लिए सोनिया कांग्रेस से मिलना पड़ता। सोनिया कांग्रेस से मिलने का अर्थ होता, अपने पूरे वैचारिक धरातल को केवल सत्ता के लिए तिलांजलि  दे देना । लोगों को विश्वास था कि शिव सेना ने चाहे शिव सैनिकों को छोड़ कर , सेनापति को मुख्यमंत्री बनाने की आकांक्षा दिखाई है, लेकिन वह इसकी पूर्ति के लिए अपना वैचारिक धरातल छोड़ देने की सीमा तक न जाए। भाजपा ने एनसीपी के साथ मिल कर सरकार बनाने का प्रयोग किया जो असफल रहा, लेकिन शिवसेना के सेनापति ने सोनिया कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर पूरी विरासत को ताक पर रख दिया, लेकिन खेल तो अभी शुरू हुआ है।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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