शिक्षा बजट का सदुपयोग कैसे हो?

By: Nov 26th, 2019 12:07 am

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

विद्यार्थियों की रुचि पढ़ने की नहीं है क्योंकि उनकी दृष्टि केवल हाई स्कूल का सर्टिफिकेट हासिल करने की होती है जिससे वे सरकारी नौकरी का आवेदन भर सकें। अध्यापकों की भी पढ़ाने की रुचि नहीं होती है क्योंकि उनकी सेवाएं सुरक्षित रहती हैं और उनके संगठनों के राजनीतिक दबाव में कोई भी सरकार सख्त कदम उठाने को तैयार नहीं है…

तमाम विश्लेषकों का मत है कि आने वाले समय में भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण विषय शिक्षा का है। आने वाला समय नई तकनीकों के सृजन का होगा। यदि हमारे युवा नई तकनीकों की खोज कर सकेंगे तो भारत आगे बढे़गा अन्यथा हम पिछड़ते जाएंगे। हमारे युवाओं को इस दिशा में प्रेरित करने के लिए प्राथमिक शिक्षा में सुधार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। वहीं पर युवाओं की नींव रखी जाती है, लेकिन यहीं हालत खस्ता है। विद्यार्थियों की रुचि पढ़ने की नहीं है क्योंकि उनकी दृष्टि केवल हाई स्कूल का सर्टिफिकेट हासिल करने की होती है जिससे वे सरकारी नौकरी का आवेदन भर सकें। अध्यापकों की भी पढ़ाने की रुचि नहीं होती है क्योंकि उनकी सेवाएं सुरक्षित रहती हैं और उनके संगठनों के राजनीतिक दबाव में कोई भी सरकार सख्त कदम उठाने को तैयार नहीं है। बीते समय में बायोमीट्रिक हाजिरी इत्यादि के सुधार से अध्यापकों का विद्यालय में पहुंचना सुनिश्चित हुआ है परंतु इसके बावजूद मूल शिक्षा की परिस्थिति पूर्ववत कमजोर है। जैसे घोड़े को पानी तक लाया जा सकता है परंतु उसे पानी पिलाया नहीं जा सकता है।

कुछ समय पहले मुझे फैजाबाद के सरकारी इंटर कालेज में जाने का अवसर मिला जहां से मैंने शिक्षा पाई थी। साठ के दशक  में वह विद्यालय जिले का सर्वश्रेष्ठ विद्यालय था। हमारे अध्यापक मनोयोग से पढ़ाते थे। वर्तमान में देखा कि छात्र केवल मध्याह्न तक कक्षा में आते थे जिससे कि वे मध्याह्न भोजन प्राप्त कर सकें। इसके बाद वे और अध्यापक दोनों ही विद्यालय छोड़ कर चले जाते थे और ट्यूटोरियल में वही छात्र उन्हीं शिक्षकों से बाहर बड़ी ऊंची रकम देकर शिक्षा प्राप्त करते थे। अर्थ हुआ कि अध्यापक पढ़ाने को सक्षम हैं, लेकिन विद्यालय में पढ़ाने में उनकी रुचि नहीं है। और, चूंकि वे विद्यालय में नहीं पढ़ाते है इसलिए छात्र मजबूरन ट्यूटोरियल में उन्हीं से पढ़ने को मजबूर होते हैं। मिड-डे मील आदि योजनाओं का उद्देश्य चाहे जो भी रहा हो, वास्तविकता यह है कि इनके माध्यम से कमजोर छात्र सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेने को आकर्षित होते हैं और वे घटिया शिक्षा को प्राप्त करते हैं।

यानी मिड-डे से सरकारी शिक्षा तंत्र सुनिश्चित करता है कि कमजोर बच्चे निश्चित रूप से अच्छी शिक्षा को प्राप्त न करें। जबकि समकक्ष निजी विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन दस हजार रुपए मात्र है। फिर भी निजी विद्यालयों के रिजल्ट सरकारी विद्यालयों की तुलना में उत्तम हैं जो कि बताते हैं कि मूल परेशानी है कि सरकारी अध्यापकों की पढ़ाने में रुचि नहीं है। इस दिशा में सरकार द्वारा प्रयास किए जाने के बावजूद सार्थक परिणाम नहीं आए हैं। इसी विद्यालय के एक प्रधानाचार्य ने बताया कि उन्होंने शिक्षकों को कहा था कि वे प्रतिदिन प्रातः छात्रों को आज की खबर बताएं और समझाएं। परंतु शिक्षकों ने कोई रुचि नहीं ली। यह दुर्रोह वर्तमान परिस्थिति इसके बावजूद है कि शिक्षा पर सरकार द्वारा भारी रकम व्यय की जा रही है। प्राइमरी शिक्षा में उत्तर प्रदेश ने वर्ष 2017-18 में 50,142 करोड़ रुपए का खर्च किया था। राज्य में शिक्षा प्राप्त करने की आयु के कुल 3.8 करोड़ बच्चे हैं। यदि इस रकम को सरकारी अध्यापकों को वितरित करने के स्थान पर छात्रों को सीधे वितरित कर दिया जाए तो प्रत्येक छात्र को 14,547 रुपए प्रति वर्ष दिए जा सकते हैं। सरकार पर एक रुपए का भी अतिरिक्त बोझ नहीं आएगा।

सरकारी विद्यालयों के पास उपलब्ध विशाल जमीन एवं मकानों को प्राइवेट विद्यालयों को लीज पर देने से सरकार अच्छी रकम अर्जित भी कर सकती है। छात्रों का शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी सुरक्षित रहेगा। नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा पाया गया कि वर्ष 2014 में देश के प्राथमिक विद्यालयों में आधे विद्यालयों की फीस 417 रुपए से कम थी, आधे विद्यालयों की इससे अधिक। इसे मीडियन कहा जाता है। इसे हम देश के विद्यालयों की सामान्य फीस मान सकते हैं। वर्तमान में यह फीस लगभग 800 रुपए प्रति माह होगी। तदानुसार वर्ष में 9,600 रुपए प्रतिवर्ष की सामान्य फीस होगी। यदि उत्तर प्रदेश के सभी स्कूल जाने योग्य बच्चों को यह 14,547 रुपए प्रति वर्ष की रकम दे दी जाए, तो वे इससे अपनी फीस को अदा कर सकते हैं। इन  वाउचरों के माध्यम से विद्यालयों में आपसी प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। हर विद्यालय को अपनी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करना होगा जिससे कि अधिकाधिक संख्या में छात्र उनके विद्यालय में दाखिला लें और इन वाउचरों के माध्यम से वे सरकार से रकम उठा सकें। विश्व में तमाम देशों में पाया गया कि प्रतिस्पर्धा से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आता है, इसलिए सरकार को चाहिए कि सरकारी अध्यापकों से कार्य लेने का प्रयास करने के स्थान पर सरकारी अध्यापकों की अकर्मण्यता की मूल समस्या को हल करे।

जो रकम आज सरकारी अध्यापकों को पोषित करने में जा रही है, उसे सीधे विद्यार्थियों को दे दें जिससे कि शिक्षा का अधिकार भी हासिल होगा और शिक्षा की गुणवत्ता में भी सुधार होगा। यही बात उच्च शिक्षा पर भी लागू होती है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी द्वारा फीस बढ़ाए जाने के विरोध में छात्रों का आंदोलन चल रहा है। इसी प्रकार लगभग सभी महाविद्यालयों में फीस बढ़ाने का सिलसिला जारी है। जेएनयू के छात्रों का यह कथन बिलकुल सही है कि फीस बढ़ाने से जो लगभग चालीस प्रतिशत छात्र कमजोर वर्ग के वर्तमान में जेएनयू में पढ़ रहे हैं वे बाहर हो जाएंगे जो कि घोर अन्याय होगा, लेकिन समस्या यह है कि जेएनयू जैसे चुनिंदा शेष महाविद्यालयों की आड़ में देश में बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालय लचर स्थिति में हैं।

कुछ समय पहले बिहार की यूनिवर्सिटी के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर से चर्चा हुई। मैंने उनसे पूछा कि आपका मन कैसे लगता है? उन्होंने कहा कि चालीस वर्षों से मेरी काम न करने की आदत पड़ गई है, इसलिए समय यूं ही कट जाता है। यह है देश के उच्च विद्यालयों की परिस्थिति। अतः हमें जेएनयू को मात्र दृष्टि में न रखकर संपूर्ण सरकारी उच्च शिक्षा तंत्र के सुधार पर ध्यान देना होगा। मेरा मानना है कि जिस प्रकार प्राथमिक शिक्षा में सरकारी विद्यालयों को समाप्त कर उसी रकम को छात्रों को वितरित कर दिया जाए तो शिक्षा में सुधार होगा, उसी प्रकार एक राष्ट्रीय परीक्षा के माध्यम से उन तमाम बच्चों को चयनित किया जाए जो कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के हकदार बनते हैं और इन सभी को सरकार द्वारा वर्तमान में जो उच्च शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है उस रकम को वाउचर के माध्यम से दे देनी चाहिए जिससे कि ये अपने मनचाहे महाविद्यालय में जा कर अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा प्राप्त कर सकें।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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