जस्टिस बेग बारात लौटाने को तैयार हो गए

By: Jan 25th, 2020 12:20 am

सौंदर्य के क्षेत्र में शहनाज हुसैन एक बड़ी शख्सियत हैं। सौंदर्य के भीतर उनके जीवन संघर्ष की एक लंबी गाथा है। हर किसी के लिए प्रेरणा का काम करने वाला उनका जीवन-वृत्त वास्तव में खुद को संवारने की यात्रा सरीखा भी है। शहनाज हुसैन की बेटी नीलोफर करीमबॉय ने अपनी मां को समर्पित करते हुए जो किताब ‘शहनाज हुसैन : एक खूबसूरत जिंदगी’ में लिखा है, उसे हम यहां शृंखलाबद्ध कर रहे हैं। पेश है इकतालीसवीं किस्त…

-गतांक से आगे…

उन्हें अपने पिता दिखाई दिए, काली शेरवानी पहने, भीड़ में से आगे आते हुए, वल्ली और मल्लिका के शौहर, अजहर के साथ वह बारात के स्वागत में मसरूफ थे। उनके साथ मेरी दादी के घराने से भाई और बहनें भी खड़ी थीं। जब बारात को ठहराया गया, तो हर किसी की नजर घड़ी पर थी, चूंकि यह तय था कि निकाह की रस्म मगरिब की नमाज से पहले हो जानी चाहिए। रुहानी सुंदरता से लबरेज दुल्हन को बेहद पाक जगह पर बिठाया गया, जहां वैल्वेट का मरून पर्दा डाला गया था। उस पर सुनहरे रंग की महीन कढ़ाई की गई थी, उनके नीचे वहीं पुश्तैनी गद्दियां रखी हुई थीं, जिन पर कई पीढि़यों की दुल्हनें बैठी थीं। तभी दरवाजे पर जोरदार दस्तक हुई, और तुरंत मेरी मां के चेहरे पर पर्दा डाल दिया गया, वह अपने निजी जगह में सुरक्षित बैठी थीं। दस्तक और तेज होने लगी, जब एक लड़की ने उठकर दरवाजा खोला तो जस्टिस बेग को देखकर सब चौंक गए। उनका चेहरा लाल और सख्त था। कमरे में खामोशी छा गई, जैसे ही अहसास हुआ कि मामला कुछ गंभीर है, सारी फुसफुसाहट बंद हो गई। अपनी बेटी की तरफ देखते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें दुल्हन के साथ अकेला छोड़ दिया जाए। परेशानी से माहौल भारी हो गया था, शहनाज ने अपने चेहरे से पर्दा हटाकर अपने पिता को देखा। ‘बेबी’, उन्होंने नर्माई से कहा। ‘मेरी बात ध्यान से सुनो। लड़के वालों ने मुझसे वादा किया था कि वे एक खास कागज पर दस्तखत करेंगे, जिसमें तुम दोनों को तलाक का बराबरी का हक मुहैया होगा। लेकिन आखरी मौके पर वे अपनी जबान से पीछे हट रहे हैं। तुम जानती हो कि मेरे लिए जबान ही सब कुछ है। इन हालात में मैं तुम्हारा निकाह नहीं होने दे सकता। मैं उन्हें वापस भेज दूंगा, यह निकाह नहीं होगा।’ आंसू भरी आंखों से दुल्हन बेबसी में अपने पिता को देख रही थी, अचानक ही यह क्या हो गया था। इन हालात की तो किसी ने दूर-दूर तक कल्पना भी नहीं की थी। सईदा बेगम कमरे में आईं, वह बेचैन बेहाल थीं। ‘आप क्या कह रहे हैं?’ उन्होंने पूछा। ‘क्या आपको वाकई लगता है कि बारात वापस भेजना निहायत अक्लमंदी का काम होगा? क्या इसके बाद कोई शहनाज से निकाह करने को तैयार होगा, और कौन जमाने को समझाएगा कि लड़का दहलीज से वापस क्यों गया?’ सईदा बेगम, पारंपरिक महिला, जो अक्सर अपने कैम्ब्रिज-शिक्षित पति के उदारवादी विचारों को शांत किया करतीं, यह कतई बरदाश्त नहीं कर सकती थीं कि ऐसे समय पर जब निकाह कुछ ही देर में होने वाला था, घर आई बारात को लौटा दिया जाए, और दुल्हन के जोड़े में सजी बेटी यूं अपनी दुनिया को लुटता हुआ देखे।    


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