नया साल, कई सवाल

By: Jan 2nd, 2020 12:06 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

आज हमारे सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं। समाज में विषमता बढ़ती जा रही है और अब यह केवल एक स्थान पर आर्थिक विषमता तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि भौगोलिक रूप से भी यह एक नई समस्या के रूप में उभर रही है जिस पर शायद किसी का ध्यान नहीं जा रहा है…

सन् 2019 इतिहास हो गया है और नया साल शुरू हो चुका है। अकसर नए साल की शुरुआत से पहले हम अपने आप से नए वायदे करते हैं और यह तय करते हैं कि नए साल में हम नया क्या करना चाहते हैं। नए साल के लिए अपने सपने तय करना इसलिए आवश्यक है ताकि हम अपने लक्ष्य निर्धारित कर सकें और यह तय कर सकें कि वे लक्ष्य पाने के लिए हमें किस दिशा में आगे बढऩा है, कितनी गति से आगे बढऩा है ताकि हम निश्चित समय सीमा के भीतर उन सपनों को सच कर सकें । आज हमारे सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं। समाज में विषमता बढ़ती जा रही है और अब यह केवल एक स्थान पर आर्थिक विषमता तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि भौगोलिक रूप से भी यह एक नई समस्या के रूप में उभर रही है जिस पर शायद किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। दक्षिणी राज्यों ने बहुत बार यह शिकायत की है कि उत्तरी राज्यों में प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले वहां प्रति व्यक्ति आय अधिक है और इसी कारण से उन्हें केंद्र से सहायता राशि कम मिलती है जिसका अर्थ यह है कि उन्हें अच्छा काम करने की सजा मिल रही है। हालांकि केंद्र में एनडीए की सरकार आने के बाद इस स्थिति में कुछ बदलाव आया है, लेकिन दक्षिणी राज्यों की प्रगति को समझे बिना हम अब सामने आ रही समस्या की विकरालता को नहीं समझ पाएंगे। पूर्वी और उत्तरी राज्यों की जनसंख्या अधिक है जबकि वहां रोजग़ार नहीं हैं, दक्षिणी राज्यों में रोजगार हैं, लेकिन जनसंख्या कम है, यानी, जहां श्रम-शक्ति है, वहां रोजगार नहीं हैं और जहां नए रोजगार उत्पन्न हो रहे हैं वहां की जनसंख्या कम है। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश और बिहार से बहुत से लोग कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में जाकर बस रहे हैं। केरल की स्थानीय आबादी कम है। उत्तर प्रदेश और बिहार से लोग वहां पलायन कर रहे हैं। उन्हें वहां रोजगार मिल रहा है। समस्या यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार आदि राज्यों से दक्षिणी राज्यों में पलायन करने वाले बहुसंख्य लोग पुरुष हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार से पढ़े-लिखे कुंआरे युवक रोजगार की तलाश में दक्षिणी राज्यों में जाकर बस रहे हैं और उनमें से बहुत से युवक स्थानीय युवतियों से शादी कर रहे हैं। इसके दो परिणाम हैं।

पहला, दक्षिणी राज्यों में धीरे-धीरे हिंदी बोलने-समझने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, दूसरा अन्य प्रदेशों से आए लोग दक्षिणी राज्यों में रोजगार प्राप्त कर रहे हैं और धीरे-धीरे वहां उनका वर्चस्व बढ़ रहा है। इससे भविष्य में एक सांस्कृतिक संघर्ष की आशंका घर कर रही है। असम में आतंकवाद इसलिए आया क्योंकि स्थानीय लोगों के पास रोजगार नहीं था। चाय के बागान और काला सोना माने जाने वाले खनिज पेट्रोल पर बाहरी लोगों का अधिकार था, रोजगार में बंगालियों की बहुतायत थी और बंगाली लोग स्वयं को उनसे श्रेष्ठ मानते थे। ऐसा ही मुंबई में हुआ जहां शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने अन्य राज्यों से आए लोगों का विरोध करना शुरू किया। मुंबई में चूंकि धन का प्रवाह अधिक है और स्थानीय लोगों में अमीरों की भी कमी नहीं है, इससे वे लोग काम धंधे में मसरूफ  रहे और आंदोलन अपेक्षाकृत सीमित होता चला गया, लेकिन दक्षिणी राज्यों में अन्य राज्यों के लोगों की संख्या बढ़ते जाने से धीरे-धीरे सांस्कृतिक संघर्ष की आशंका घनी होती जा रही है। यह हैरानी की बात है कि इस महत्त्वपूर्ण बदलाव की ओर न बुद्धिजीवी, न मीडिया और न ही सरकार ध्यान दे रही है। केंद्र सरकार इस बदलाव से पूरी तरह अनजान नजर आती है और ऐसा नहीं लग रहा है कि जब तक यह समस्या विकराल रूप धारण करके आग बन जाए, तब तक इसके समाधान के लिए प्रशासन कुछ सोचेगा। समस्या यह है कि जब प्रशासन नींद से जागेगा तब तक यह समस्या इतनी विकराल हो चुकी होगी कि इसका समाधान आसान नहीं रह जाएगा। हम आपसी संघर्ष में इस कदर उलझे हुए हैं कि अपने ही जीवन को संकट में डाल रहे हैं। एक ओर जहां पुरानी कांग्रेस सरकारों ने वोट की खातिर अल्पसंख्यक समुदाय को आवश्यकता से अधिक अधिमान देकर बहुसंख्यक वर्ग को निराश और नाराज किया, वहीं वर्तमान भाजपा सरकार दक्षिणपथी नीतियों के कारण अल्पसंख्यकों में भय की भावना भर रही है। बहुसंख्यक समाज अपना अधिकार वापस लेने के लिए उतावला है और अल्पसंख्यक समाज अपनी सुविधाओं को छोड़ने को तैयार नहीं है। यह खेद का विषय है कि हम नीति कथाओं की शिक्षा भुलाए दे रहे हैं। कठिनाई भरे दिनों में एक-दूसरे का साथ देकर ही हम जिंदा रह सकते हैं।

दूरियां और अविश्वास दोनों समुदायों के लिए घातक हैं। किसी भी समाज की उन्नति का तरीका यही है कि वह भविष्य की संभावनाओं ही नहीं, समस्याओं को भी ध्यान में रखे और तद्नुसार नीतियां तय करे। जो समाज भविष्य के लिए तैयार नहीं होता है उसका हश्र डायनासोर जैसा हो जाता है जो अपनी असीम शारीरिक ताकत के बावजूद इतिहास हो गए। समाज में होने वाले इन बदलावों के प्रति सचेत रह कर आवश्यक कदम उठाने में ही हमारी भलाई है। समाज की विषमताओं पर चर्चा आवश्यक है। बुद्धिजीवी, मीडिया, सामाजिक संस्थाएं और सरकार मिल कर इस दिशा में विमर्श करेंगे तो समस्या भी अवसर बन जाएगी और यदि हम इन बदलावों की उपेक्षा करेंगे तो ये किसी दिन ज्वालामुखी बन जाएंगे और समाज को जला डालेंगे। एक-दूसरे की क्षमताओं से लाभान्वित होना और आपसी विषमताओं से तालमेल बैठाना ही इसका उपाय है, इसके लिए हमें अपने दृष्टिकोण का विस्तार करना होगा, खुद को ज्यादा सहनशील बनाना होगा और सिर्फ  अपने लिए सोचने के बजाए समूचे समाज के लिए सोचना होगा। एक सभ्य संस्कृति और उन्नत देश के रूप में हम तभी फल-फूल सकते हैं यदि हम प्रकृति के इस मूलभूत नियम को समझें और उसे जीवन में उतारें वरना हमारा हाल भी कृष्ण की उस यादवी सेना जैसा होगा जो आपस में ही लड़ मरी और समाप्त हो गई। हमारा देश अतीत में लंबे समय तक आतंकवाद का दंश झेल चुका है। जनता की नाराजगी आंदोलन बन जाए और फिर वह हिंसक हो जाए, इससे अच्छा है कि उसे शुरू में ही सुलझा लिया जाए। सामाजिक संस्थाएं इसमें बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। आशा करनी चाहिए कि नए साल में इस पर चर्चा होगी, सहमति बनेगी और नए साल के इस सवाल का हल निकलेगा।

ईमेलः indiatotal.features@gmail


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App