मौन रहने की कला

By: Jan 11th, 2020 12:20 am

श्रीराम शर्मा

मौन रहने व कम बोलने से न केवल हमारी वाणी का संयम होता है, अपितु इससे हमारी जीवनीशक्ति का भी संचय होता है। मौन हमें कई बार व्यर्थ के विवादों व उनसे उत्पन्न होने वाली बड़ी परेशानियों से बचा लेता है। इसके विपरीत जो आदतन चुप नहीं रह सकते, अपनी समझदारी का बखान करने के लिए एक के बदले दस जवाब देते हैं, उनकी बड़ी परेशानियों में फंसने की संभावनाएं अधिक होती हैं। मौन रहने से भी अभिव्यक्तियां प्रकट होती हैं, इसके लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं होती और यह भी अपना प्रभाव दिखाता है। केवल न बोलना ही मौन नहीं है। अकसर लोग वाणी के विराम को मौन समझ लेते हैं, लेकिन यदि किसी के मन में विचारों की उथल-पुथल हो रही हो या उसके भीतर मन में किसी अन्य व्यक्ति के प्रति राग -द्वेष का ज्वार उठ रहा हो, तो उसे मौन नहीं कह सकते। वाणी पर संयम केवल बाह्य मौन है और मन का मौन अंतः मौन। जबकि वास्तविक व पूर्ण मौन वह है, जिसमें मन और वाणी दोनों ही पूरी तरह शांत हों। मौन हमारी इंद्रियों को संयमित रखता है। इसके द्वारा वाणी के माध्यम से व्यय होने वाली ऊर्जा का संरक्षण होता है। इसलिए कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपने मुख व जीभ पर संयम रखता है, वह अपनी आत्मा को कई संतापों से बचा लेता है। मौन में रहकर ही हम जीवन जगत के गूढ़ व सत्य पहलुओं का साक्षात्कार कर सकते हैं, उन्हें जान सकते हैं। इसलिए आदिकाल से मौन की महिमा गाई गई है। तपस्या करने वाले ऋषियों व महर्षियों ने मौन को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाया और मौन रहकर गंभीर साधनाएं संपन्न कीं। मौन रहकर न केवल वे सांसारिक जीवन से व सांसारिक संपर्क से बचे, बल्कि आंतरिक शांति को प्राप्त कर सके। मौन रहकर ही स्वयं को अच्छी तरह से जाना जा सकता है, समझा जा सकता है। अपनी गतिविधियों, क्रियाओं व व्यवहारों का सूक्ष्म विश्लेषण किया जा सकता है। आत्मनिरीक्षण और आत्मविश्लेषण मौन रहकर ही संभव है। इसके माध्यम से ही मन की विषमताओं को जाना जा सकता है और मन के विकारों को शांत किया जा सकता है। जितना अधिक व्यक्ति का मौन सधने लगता है, उसकी क्षमताएं उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं। मौन साधना का वह पथ है, जिस पर चलकर व्यक्ति के आंतरिक विकास का मार्ग खुलता है और ऊर्जा का संरक्षण होता है। मौन व्यक्ति को साधना की अतल गहराइयों में ले जाता है, व्यक्ति को स्थिर व एकाग्र करता है। जैसे सागर की गहराई में स्थिरता व शांति होती है, हलचल नहीं होती, उसी प्रकार मौन सधने पर व्यक्ति के अंदर स्थिरता व शांति बढ़ती जाती है और उसी अवस्था में उसे अपने अभीष्ट कार्यों में सफलता मिलती है। जो व्यक्ति जितना अधिक व अनर्गल बोलता है, उसकी न केवल बोलने में ऊर्जा नष्ट होती है, अपितु उसका मन भी अस्थिर होता है। ऐसा व्यक्ति आसानी से शांत व स्थिर नहीं हो पाता और जिस तरह नदी में लहरें उठती व गिरती रहती हैं, उसी तरह उसके विचार निरर्थक कल्पनाओं की तरह भटकते रहते हैं और वह कोई सार्थक कार्य संपन्न नहीं कर पाता। जरूरी यह है कि इस बात को समय रहते समझा जाए और अनावश्यक बोलने से यथासंभव बचा जाए, ताकि अपनी जीवन ऊर्जा का सम्यक संचयन संभव  हो सके।


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