अमरीका का दोहरा चरित्र

By: Feb 22nd, 2020 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

तर्क दिया जा सकता है कि करोड़ों हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनों की भारतीय नागरिकता बलपूर्वक छीनने वाला अधिनियम तो ब्रिटेन की संसद ने पारित किया था, इसलिए इसमें भारतीय शासकों या शासक दलों का क्या दोष है? किसका कितना दोष है इसकी बहस तो सदियों तक होती रहेगी और हो भी रही है, लेकिन 15 अगस्त 1947 की आधी रात को जब संसद भवन में पंडित जवाहर लाल नेहरू शेष बचे भारत के भविष्य की हांक लगा रहे थे तो उन अभागे भारतीयों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए शरणार्थी नीति संबंधी अधिनियम भी पारित किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ…

भारत के नागरिकता संबंधी अधिनियमों में अभी तक कोई वैधानिक शरणार्थी परिभाषा नहीं थी और न ही शरणार्थियों को लेकर कोई नीति, जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत भारत को ही थी क्योंकि 1947 के विभाजन से करोड़ों लोगों की इच्छा के विपरीत उनकी भारतीय नागरिकता छीन ली गई थी और उनके हाथ में पाकिस्तानी नागरिकता का झुनझुना दे दिया था। जाहिर था कि उसके परिणाम स्वरूप पाकिस्तान से ऐसे लोगों का भारत में आने का क्रम निरंतर जारी रहने वाला था और अब तक जारी है, जो यह नया झुनझुना नहीं बजाना चाहते थे। तर्क दिया जा सकता है कि करोड़ों हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनों की भारतीय नागरिकता बलपूर्वक छीनने वाला अधिनियम तो ब्रिटेन की संसद ने पारित किया था, इसलिए इसमें भारतीय शासकों या शासक दलों का क्या दोष है? किसका कितना दोष है इसकी बहस तो सदियों तक होती रहेगी और हो भी रही है, लेकिन 15 अगस्त 1947 की आधी रात को जब संसद भवन में पंडित जवाहर लाल नेहरू शेष बचे भारत के भविष्य की हांक लगा रहे थे तो उन अभागे भारतीयों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए शरणार्थी नीति संबंधी अधिनियम भी पारित किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अमरीका का मीडिया और कुछ सीमा तक अमरीका की विधायिका इस बात को लेकर बहुत चिंता जाहिर कर रही है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने से भारत का पंथ निरपेक्ष चरित्र खतरे में पड़ गया है। भारत में किसी को शरण देने के लिए सरकार मजहब को आधार कैसे बना सकती है? इसको लेकर अमरीका हलकान हो रहा है। वह कुछ सीमा तक चिंता और कुछ सीमा तक घुड़की का प्रयोग कर रहा है। भारत पंथ निरपेक्ष बना रहे, इसका दायित्व अमरीका ने अपने ऊपर ले लिया लगता है। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 में उन हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन पंथ के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है जो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 तक येन-केन प्रकारेण भारत में आ गए थे। अमरीका की विधायिका में इस बात को लेकर बहस चल रही है कि इस सूची में मुसलमानों को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रावधान है कि सभी से समानता का व्यवहार किया जाएगा। इसलिए मुसलमानों को इस सूची में शामिल न किए जाने से भारत का संविधान खतरे में पड़ गया है और पंथ निरपेक्ष चरित्र पर दाग लग गया है। अमरीका को इस बात की चिंता सबसे ज्यादा रहती है कि किसी भी देश में मजहब के आधार पर मतभेद नहीं होना चाहिए। इसलिए उसने अपने यहां 1968 में Immigration and Nationality Act 1965 नाम से एक कानून बनाया जिसमें विदेशों में अमरीकी दूतावासों को यह अधिकार दिया कि वे प्रत्येक देश की राजनीति पर नजर   रखें। यद्यपि यह अमरीका की अनाधिकार चेष्टा ही कही जाएगी। इन्तहा तो यह है कि अमरीका ने इस अधिनियम के अंतर्गत  International Religious Freedom के लिए एक अंतरराष्ट्रीय राजदूत भी नियुक्त कर रखा है, लेकिन अमरीका के कानूनों में नागरिकता और शरणार्थीं को लेकर वैधानिक स्थिति क्या है, इसको भी परखना जरूरी है। अमरीका के सभी अधिनियम या कानून यूएस कोड में संग्रहीत हैं। इस कोड में अधिनियमों का वर्गीकरण करने के बाद प्रत्येक वर्ग को क्रमांक दिया जाता है। इस प्रकार राष्ट्रीयता, अप्रवासी, नागरिकता और शरणार्थी संबंधी कानून क्रमांक 8 के अंतर्गत संग्रहीत हैं। अमरीका का The Immigration and Nationality Act 1965 इसी के अंतर्गत आता है । 21 नवंबर 1989 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया। इस संशोधन का प्रस्ताव न्यू जर्सी के एक सीनेटर लौटनवर्ग ने रखा था, इसलिए यह संशोधन लौटनवर्ग संशोधन के नाम से जाना जाता है। यह 101वीं कांग्रेस में पारित होने के कारण यह पब्लिक ला 101.167 कहलाता है। इस संशोधन में प्रावधान किया गया है कि पूर्व सोवियत यूनियन, एस्टोनिया और लिथुवानिया के यहूदी, एवेंजिलिकल क्रिश्चियन, यूक्रेन कैथोलिक मजहब को मानने वाले नागरिकों को संयुक्त राज्य अमरीका में शरण दी जाएगी। यह प्रावधान शुरू में केवल एक साल के लिए था, लेकिन इसकी उम्र बढ़ा कर इसे अभी तक प्रभावी बनाया हुआ है। 2004 में इस का विस्तार करते हुए प्रावधान किया गया कि ईरान से आने वाले यहूदी, क्रिश्चियन और बहाई मजहब को मानने वाले ईरानियों को भी अमरीका में शरण दी जाएगी। इतना ही नहीं, मजहबी आधार पर शरण पाने वाले इन वर्गों को अमरीका की सरकार वित्तीय सहायता भी प्रदान करती है। अमरीका की विधानपालिका, अमरीका में शरण मांगने वालों का मजहब के आधार पर भेदभाव क्यों करती है? वहां का संविधान तो इस प्रकार के सांप्रदायिक या मजहबी भेदभाव की अनुमति नहीं देता।

1868 में अमरीकी संविधान में चौदहवां संशोधन हुआ था जिससे संविधान में Equal Protection Clause जोड़ी गई थी, लेकिन इसके वाबजूद शरण दिए जाने वाले वर्गों में ईरान के मुसलमानों और पूर्व सोवियत यूनियन के मुसलमान नागरिकों को इस सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया? ये अनेक प्रश्न हैं जो अमरीका की सरकार से पूछे जा सकते हैं। अमरीका की मजहबी आधार पर भेदभाव करने वाली यह नीति उसकी विदेश नीति का हिस्सा है । ईरान की न तो सीमा अमरीका से लगती है और न ही दोनों देशों का इतिहास साझा है। यही स्थिति सोवियत यूनियन की है। इसलिए शरणार्थी से मजहबी आधार पर भेदभाव अमरीका की बड़ी राजनीति का हिस्सा है। भारत और पाकिस्तान का तो इतिहास भी सांझा है और 1947 में उसका विभाजन ही मजहबी आधार पर हुआ था, लेकिन ताज्जुब है जिनसे प्रश्न पूछे जाने चाहिए वे भारत से प्रश्न पूछ रहे हैं कि आपने शरण दिए जाने वाले वर्गों की सूची में मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया? यह प्रश्न तो संयुक्त राज्य अमरीका से पूछा जाना चाहिए कि आप पूर्व सोवियत यूनियन के नागरिकों को शरण व नागरिकता देने के लिए मजहब के आधार पर मतभेद क्यों कर रहे हो? अमरीका शरणार्थीं जैसे शुद्ध मानवीय प्रश्न को भी अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर रहा है , लेकिन यह उसका अपना आंतरिक मामला है, इसलिए किसी को दखलअंदाजी करने का अधिकार नहीं है, लेकिन अमरीका इसी प्रश्न पर भारत को प्रश्नित कर रहा है। इसका न तो उसे नैतिक अधिकार है और न ही सांविधानिक।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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