फिर ईवीएम पर शक

By: Feb 11th, 2020 12:05 am

आखिर यह क्यों होता है कि चुनाव सम्पन्न होने के बाद ईवीएम पर सवाल उठने लगते हैं? चुनाव आयोग की भूमिका पर भी संदेह किए जाने लगते हैं? ये सवाल और संदेह खोखले हैं, बेशक कोई भी पक्ष उठाए। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। चुनावों का संचालन उसका दायित्व है। वह संसद के प्रति जवाबदेह है। इस तरह बार-बार आरोप लगाना और सवाल करना उचित नहीं है। इससे देश भी अपमानित होता है। ताजा संदर्भ दिल्ली चुनाव का है। सभी एग्जिट पोल अनुमान लगा रहे हैं कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार की ही वापसी हो रही है। ‘आप’ के नेताओं को तो गदगद महसूस करना चाहिए, लेकिन मुख्यमंत्री केजरीवाल ने फिजूल में ही सवाल उठाए कि चुनाव आयोग ने 24 घंटे बीत जाने के बाद भी मत-प्रतिशत के आंकड़े जारी क्यों नहीं किए? ‘आप’ के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने ईवीएम को बस में ले जाने के एक वीडियो पर यहां तक टिप्पणियां शुरू कर दीं कि दाल में कुछ काला है….कुछ तो अंदरखाने पक रहा है। जिम्मेदार नेताओं को ऐसा शक सार्वजनिक तौर पर बयां नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे भी व्यवस्था का हिस्सा हैं। आखिर दिल्ली के मुख्य निर्वाचन अधिकारी रणबीर सिंह को स्पष्ट करना पड़ा कि वह ईवीएम रिजर्व थी और उसका इस्तेमाल भी नहीं किया गया। सभी राजनीतिक दलों के चुनाव एजेंटों के सामने ईवीएम को दिखा कर संतुष्ट भी किया गया। दरअसल ये आरोप-प्रत्यारोप तब शुरू हुए, जब भाजपा के संगठन महासचिव बी.एल.संतोष ने दावा किया कि आखिरी 2 घंटों के दौरान करीब 17 फीसदी वोट पड़े। शायद उसी के आधार पर केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने दावा किया कि भाजपा बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने तो 48 सीटों का दावा किया और कहा कि ईवीएम को दोष देने का बहाना मत ढूंढना। बेशक ऐसे बयान घोर राजनीतिक होते हैं और उनसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता, तटस्थता और पेशेवर ईमानदारी प्रभावित नहीं होती। यदि सरकार के ही प्रभाव में सब कुछ तय होना है, तो देश में भाजपा की किसी भी राज्य में चुनावी पराजय नहीं होती। कमोबेश इस यथार्थ को तो स्वीकार करें। मत-प्रतिशत के आंकड़ों की देरी और ईवीएम के संदिग्ध वीडियो के नतीजतन संभव है कि ‘आप’ के भीतर एक खास किस्म का खौफ  और डर पनपा होगा कि ईवीएम के जरिए जीत की बाजी पलटी जा सकती है! ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि ईवीएम ‘टेंपरप्रूफ’ मशीन है। उससे किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। चुनाव आयोग कितनी बार यह स्पष्ट कर चुका है। उसने डेमो भी करके दिखाए हैं और राजनीतिक दलों को चुनौती दी है कि वे छेड़छाड़ साबित करें। किसी भी दल ने हिम्मत नहीं दिखाई। जब मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, तो उसने चुनाव आयोग के कथन पर ही मुहर लगाई। कुछ दल मांग करते रहे हैं कि मतदान बैलेट पेपर के जरिए कराया जाए। क्या 21वीं सदी में भी पाषाणकाल की ओर जाना उचित है? बहरहाल आयोग और शीर्ष अदालत मतपत्रों से मतदान कराने की मांग को खारिज कर चुके हैं। जब चुनाव ईवीएम के जरिए ही होना है, तो फिर बार-बार सवाल उठाने और शक जताने का औचित्य क्या है? यदि फिर भी कोई आपत्ति है, तो चुनाव आयोग में जाइए और चुनौती दीजिए। सार्वजनिक अनर्गल से फायदा क्या हो सकता है? ईवीएम बेहद सुरक्षित मशीन है। उसे हैदराबाद और बंगलुरू की दो सार्वजनिक कंपनियां ही बनाती हैं, जहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता। उनकी प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता भी गोपनीय है। वे बाजार के लिए भी मशीनें नहीं बनातीं। सिर्फ  चुनाव आयोग की जरूरतें पूरी करती हैं। यदि लोकतंत्र की दुहाई देकर भी ईवीएम पर सवाल करते रहना है, तो फिर आपकी मर्जी है। उसका कुछ लाभ तो नहीं होने वाला है।

 


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