बढ़ती सांप्रदायिक राजनीति

By: Feb 28th, 2020 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसका अपना संविधान है। संविधान ने मुसलमानों को भी बराबर के अधिकार दे रखे हैं तथा यहां कानून का शासन है। दिल्ली में जामिया तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी दो ऐसे संस्थान हैं जो धार्मिक अलगाववाद को खाद-पानी देने के केंद्र के रूप में उभरे हैं। मुस्लिम लॉबी की सीमाओं में आजादी की बात तथा टुकड़े-टुकड़े हिंदुस्तान की बात होने लगी है तथा इसको पंथनिरपेक्षता का चोला पहने कुछ पत्रकारों का भी समर्थन हासिल है। इसी का परिणाम है कि शाहीन बाग की तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं जहां सड़कों की अगली पंक्तियों में धरनों के लिए महिलाओं का प्रयोग हो रहा है। यह धरना अभी भी जारी है तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्यस्थ नियुक्त करने तथा बातचीत चलाने व सरकार की ओर से वार्ता का निमंत्रण देने के बावजूद कोई समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है…

जब डोनाल्ड ट्रंप भारत की महत्त्वपूर्ण यात्रा कर रहे थे तथा उनकी पत्नी मेलानिया दिल्ली में हैप्पीनैस क्सासिज को पढ़ा रही थीं, इसी बीच सांप्रदायिक राजनीति के कारण राष्ट्रीय राजधानी में दंगों में 10 लोग मारे गए। चूंकि भीषण राजनीतिक गतिविधियों का युग शुरू हो चुका है, राजनीति में चीजों को सांप्रदायिक नजरिए से देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शायद भारतीय राजनीति के लिए हमेशा सांप्रदायिक दृष्टिकोण था, जैसे कि स्वतंत्रता के लिए उनकी लड़ाई मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग तथा गांधी के ईश्वर-अल्लाह दर्शन के साथ जज्ब होने से ऊपर नहीं थी। उस समय कुछ हिंदू संगठनों के साथ-साथ मुस्लिम संगठन भी सक्रिय रहे, परंतु वे छोटे थे तथा उनका कम प्रभाव था। भारतीय जनसंघ ने अपना सिर उठाना शुरू किया, किंतु उसके अस्तित्व की अनदेखी जारी रही। मुसलमानों का भी ऐसा ही मामला था, तब तक जब तक जिन्ना ने मुस्लिम लीग को कांग्रेस के खिलाफ सशक्त बनाना जारी रखा। समाजवादी व कम्युनिस्ट भी यहां थे, किंतु उनके बड़े नेताओं, जैसे कि कम्युनिस्ट डेंग अथवा नंबूद्रीपाद तथा जयप्रकाश व लोहिया जैसे समाजवादियों ने स्वतंत्रता तक अपने दलों का नेतृत्व किया। भारत के विभाजन के साथ देश की स्वतंत्रता देश के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना थी। इसके न केवल राजनीति पर, बल्कि देश के संपूर्ण सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन पर भी प्रलयात्मक प्रभाव पड़े।

यह एक बड़ा सांप्रदायिक विभाजन था, किंतु कांग्रेस ने इस परिणाम को भारत में हिंदुओं तथा मुसलमानों की स्थिति की व्याख्या के बिना तथा पाकिस्तान को इस्लामी राज्य बनाने की स्वीकृति देकर भारत को भारत ही बने रहने का दर्जा देकर भ्रांतिपूर्ण बना दिया। भारत, भारत ही बना रहा, इसकी चारित्रिक विशेषताएं इंगित करने के लिए किसी धर्म विशेष को तवज्जो नहीं दी गई, किंतु जैसा कि सरदार पटेल ने कहा, कई मुसलमान पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं हुए तथा हमने उन्हें यहां बने रहने की अनुमति दे दी। यह हिंदू बहुमत है जिसने मुस्लिम अल्पसंख्यकों का यहां बने रहना स्वीकार कर लिया। किसी ने यह उल्लेख नहीं किया कि यह पंथनिरपेक्षता के कारण था, किंतु यह बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों को इसी राज्य में बने रहने की अनुमति के कारण था। यह केवल इंदिरा गांधी थी जिन्होंने बाद में संविधान में संशोधन करते हुए पंथनिरपेक्षता के साथ-साथ समाजवाद को अधिमान दिया। स्पष्ट रूप से यह बाद का विचार था तथा इसकी परिकल्पना संविधान के निर्माताओं ने नहीं की थी। पृष्ठभूमि में चाहे जो कुछ भी घटित हुआ हो, तथ्य यह है कि एक देश से दो देश बनाए गए तथा इसका आधार धर्म था। धर्म ही क्षेत्रों के सीमांकन तथा मानचित्र में बदलाव के लिए प्रत्येक कस्बे में जनगणना करने के लिए आधार बना। हालांकि भारत हिंदू बहुल बना रहा, किंतु यह मुसलमानों के लिए भी उपलब्ध रहा तथा बड़ी संख्या में मुसलमानों ने यहां रहने का फैसला किया। भारत के संविधान ने भी उन्हें बराबर के अधिकार दिए हैं। मुसलमानों का राजनीतिक दलों, विशेषकर कांग्रेस द्वारा वोट बैंक के रूप में प्रयोग किया गया, क्योंकि उनका संयुक्त वोट था तथा वे एक साथ जोड़ने के लिए अल्पसंख्यक थे। हाल ही तक, जब तक कांग्रेस का शासन रहा, हिंदू व मुसलमानों में अंतर नहीं किया जाता था तथा अल्पसंख्यकों के साथ प्राथमिकता वाला व्यवहार होता था।

इस नजरिए ने एक ही दल का शासन बनाए रखने में मदद की। बाद में असदुद्दीन औवेसी तथा कुछ अन्य मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों की उत्कृष्टता पर जोर देना शुरू किया क्योंकि उन्होंने 800 वर्षों तक भारत पर शासन किया तथा ताजमहल व अन्य विश्व विख्यात स्मारक भी उन्होंने ही बनाए। यह तर्क अजीब दिखता है क्योंकि लोकतंत्र बहुमत के सिद्धांत को स्वीकार करता है, न कि यह कि अल्पसंख्यक के रूप में किसने कितने समय शासन किया। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसका अपना संविधान है। संविधान ने मुसलमानों को भी बराबर के अधिकार दे रखे हैं तथा यहां कानून का शासन है। दिल्ली में जामिया तथा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी दो ऐसे संस्थान हैं जो धार्मिक अलगाववाद को खाद-पानी देने के केंद्र के रूप में उभरे हैं। मुस्लिम लॉबी की सीमाओं में आजादी की बात तथा टुकड़े-टुकड़े हिंदुस्तान की बात होने लगी है तथा इसको पंथनिरपेक्षता का चोला पहने कुछ पत्रकारों का भी समर्थन हासिल है। इसी का परिणाम है कि शाहीन बाग की तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं जहां सड़कों की अगली पंक्तियों में धरनों के लिए महिलाओं का प्रयोग हो रहा है। यह धरना अभी भी जारी है तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्यस्थ नियुक्त करने तथा बातचीत चलाने व सरकार की ओर से वार्ता का निमंत्रण देने के बावजूद कोई समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। यह एक नए प्रकार का प्रदर्शन है तथा अगर सरकार इसे रोकने के लिए बल का प्रयोग करती है तो और ज्यादा प्रदर्शनों के लिए पुख्ता आधार तैयार हो जाएगा। सच्चाई यह है कि नागरिकता संशोधन कानून से किसी भी भारतीय नागरिक की नागरिकता छिनती नहीं है। यह केवल गैर कानूनी रूप से देश में घुसपैठ को गैर कानूनी बनाता है तथा इस आधार पर अगर प्रदर्शन हो तो यह जायज नहीं है। यहां तक कि अगर संवैधानिक संरक्षण चाहिए तो अपीलकर्ता का नागरिक होना जरूरी है। यह विरोध प्रदर्शन और फैल सकता है तथा इसका एकमात्र कारण सांप्रदायिक राजनीति की प्रधानता है जिसे आजकल खाद-पानी दिया जा रहा है। यह देश विरोधी राजनीति है तथा सरकार को इससे निपटने के लिए नए रास्तों की तलाश करनी चाहिए। कोई सरकार कैसे ‘किसी के बाप का हिंदुस्तान नहीं है’ की उक्ति को सहन कर सकती है।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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