देशहित साधने वाली राजकुमारी

By: Mar 14th, 2020 12:05 am

अमरीक सिंह

लेखक, साहित्यकार हैं

एक पुरानी कहावत हैः ‘राजघराने खत्म हो जाते हैं, लेकिन उनकी कहानियां रह जाती हैं…!’ विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ ने बीती सदी की 100 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में दो भारतीय महिला-शख्सियतों को शुमार किया है। एक हैं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और दूसरी राजकुमारी अमृत कौर। श्रीमती गांधी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं और फिलहाल तक आखिरी भी, जबकि राजकुमारी अमृत कौर देश की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री थीं। यानी सत्ता की राजनीति में उनसे वरिष्ठ। अलहदा बात है कि इंदिरा गांधी के हर पहलू की बाबत समूचा विश्व बखूबी जानता है और राजकुमारी अमृत कौर के बारे में बहुत कम। जबकि इतिहास के बेशुमार पन्ने, इस राजकुमारी, जो कभी ‘महारानी’ नहीं बनीं, के लिए अब भी बेशुमार सुनहरी अक्षर लिख सकते हैं। पंजाब के कपूरथला राजघराने से वाबस्ता अमृत कौर के नाम फिर भी इतिहास में बहुत कुछ ऐसा दर्ज है जो बेमिसाल का दर्जा रखता है। 1947 से पहले बहुत कम राजकुमारियां ऐसी हुईं जिन्होंने सप्रयास ‘महारानी’ होना नाकबूल किया और राजशाही की तमाम ऐशपरस्ती को धत्ता बताकर आजादी की लड़ाई में अतिअहम शिरकत की और ‘नेहरूवादी सत्ता’ में आकर अपना लोकहितवादी चेहरा आवाम को गहरी प्रतिबद्धता के साथ दिखाया। इससे पहले स्त्री अस्मिता और आत्मसम्मान की पुरजोर हिफाजत की मिसाल कायम की। शिमला के राष्ट्रपति निवास को तब वाइस रिगल लॉज कहा जाता था। भारत पर  राज करने वाले अंग्रेजों ने 1909 में वहां एक पार्टी रखी। अंग्रेज हुकूमत की साम्राज्यशाही तब पार्टियों में जमकर बजबजाती थी। इसे आप आज की आधुनिकता कह सकते हैं और अपसंस्कृति भी। खैर, अंग्रेज हुकुमरान ने उस पार्टी में राजकुमारी अमृत कौर के पिता राजा सर हरनाम सिंह के परिवार को भी आमंत्रित किया। पार्टी में सर हरनाम सिंह के साथ उनकी बेटी जो उस वक्त राजकुमारी का खिताब रखती थीं, अमृत कौर भी गईं। उनकी उम्र तब 20 साल थी। साम्राज्यशाही पार्टियों की रिवायत के मुताबिक, शराब के साथ डांस हो रहा था। एक आला अंग्रेज अफसर ने राजकुमारी अमृत कौर को अपने साथ नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया। बार-बार के इसरार के बावजूद राजकुमारी अमृत कौर ने सख्ती से इनकार का रवैया बरकरार रखा और आला अंग्रेज हुकुमरान को भरी महफिल में खरी-खोटी सुनाकर उक्त पार्टी का बहिष्कार कर दिया। जाहिरन, अपमानित अंग्रेज आला अफसर का गुस्सा काबू से बाहर हो गया और उसने कहा कि भारतीयों को कभी आजादी नहीं देनी चाहिए, वे बिगड़ैल हो चुके हैं। पार्टी हाल से बाहर जाते-जाते यह बात राजकुमारी अमृत कौर ने सुन ली और वह बेहद आहत हुईं। इसके बाद उन्होंने राजशाही शानशौकत को दरकिनार करके स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का फैसला किया। इन तथ्यों की पुष्टि इतिहास की गहरी जानकारी रखने वाले दिवंगत पत्रकार-संपादक खुशवंत सिंह ने तो की ही है, चंडीगढ़ में रहने वाले राजकुमारी अमृत कौर के एक वंशज सिद्धांत दास भी करते हैं। सिद्धांत के मुताबिक अमृत कौर उनके परनाना की सगी बहन थीं। बता दें कि सिद्धांत ने अपनी नानी बुआ की जिंदगी पर काफी उल्लेखनीय शोधकार्य किया है। जिसमें खास है कि जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद महात्मा गांधी अमृतसर दौरे पर आए थे और उसके बाद जालंधर प्रवास किया। वहां अमृत कौर ने उनसे मुलाकात की और बाकायदा उनके मिशन से जुड़ने की प्रतिबद्धता जाहिर की। गांधी जी बखूबी जानते थे कि अमृत एक राजघराने से ताल्लुक रखती हैं। जालंधर उन दिनों कपूरथला राजघराने के तहत आता था। महात्मा गांधी ने तय किया कि वह सेवाग्राम आश्रम आ जाएं। वह एक तरह से राजकुमारी अमृत कौर की परीक्षा लेना चाहते थे। अमृत कौर सेवाग्राम चली गईं। वहां उन्हें हरिजन-सेवा और बाथरूम-टायलट साफ  करने का काम दिया गया। मनोयोग से इस काम को उन्होंने बापू और मानवता के आशीर्वाद के तौर पर अच्छी तरह अंजाम दिया। गांधी जी ने उन्हें हार्दिक आशीर्वाद से नवाजा और बाकायदा कहा कि वह उनकी ‘परीक्षा’ में सफल रही हैं और तभी से उन्हें स्वतंत्रता सेनानी मान लिया गया। महात्मा गांधी से इस मानिंद जुड़ने के बाद राजकुमारी अमृत कौर बाकायदा स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सेदारी करने लगीं। उन्होंने सरोजनी नायडू के साथ मिलकर आल इंडिया वूमन कान्फ्रेंस और आई इंडिया वूमन कांग्रेस की विधिवत स्थापना की। 1942 में अंग्रेज हुकूमत ने उन पर देशद्रोह का संगीन मुकदमा दर्ज किया और बेहद सख्त पाबंदियों में अंबाला जेल में डाल दिया। अंबाला जेल उन दिनों यातना शिविर के तौर पर भी कुख्यात थी। अमृत कौर की तबीयत अंबाला जेलबंदी के दौरान काफी बिगड़ गई और हुकूमत ने उन्हें वहां से निकालकर शिमला की मैनोविर्ल हवेली में 3 साल के लिए नजरबंद कर दिया। वहां भी अमृत कौर पर सख्त पाबंदियां थीं। बहरहाल, 1947 में उनकी रिहाई हुई। इस राजकुमारी के सात राजकुमार भाई थे। इनमें से एक सैन्य डाक्टर थे। अमृत कौर भी डाक्टर बनना चाहती थीं, 1909 की घटना के बाद पढ़ाई नहीं कर पाईं और आजादी आंदोलन में सक्रिय हो गईं। चिकित्सा जगत में जाने की हसरत को नियति ने किसी और रूप में स्वीकार किया। देश आजाद होने के बाद जब भारतीय सरकार का विधिवत गठन हुआ तो अमृत कौर को भारत की पहली केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। इस दिशा में उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण काम किए जो पाठ्य पुस्तकों तक में दर्ज हैं। उनकी एक बड़ी देन अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान यानी दिल्ली का ‘एम्स’ है। पहला एम्स। एम्स की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है। उस समय ऐसे विशाल और तत्कालीन अत्याधुनिक मेडिकल शोध संस्थान के लिए पर्याप्त बजट नहीं था तो उन्होंने देश के बाहर के उद्योगपतियों और भारतवंशी पूंजीपतियों से मदद की गुहार की। धन मिला और एम्स आकार में आया। एम्स में राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर ओपीडी ब्लॉक है। बताने वाले बताते हैं कि इस परियोजना के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था। शिमला में ‘राजशाही’, हालांकि व्यावहारिक तौर पर उसे वह बहुत पहले त्याग चुकी थीं, की विरासत के तौर पर उनके पास एक घर था, जिसे उन्होंने एम्स के डाक्टरों और अन्य स्टाफ के लिए रेस्ट हाउस के तौर पर दे दिया था। तो यह थी कभी महारानी तथा राजमाता न बनने वालीं राजकुमारी अमृत कौर की संक्षिप्त कहानी!


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