प्रॉपर्टी मार्केट की विकट समस्या

By: Mar 10th, 2020 12:07 am

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

नोटबंदी के कारण प्रॉपर्टी के दाम गिर गए। उनके लिए 900 करोड़ रुपए में बचे हुए फ्लैटों को बेचना असंभव हो गया। अर्थव्यवस्था की मंदी के कारण भी बाजार में प्रॉपर्टी के दाम गिर गए। वे इन फ्लैटों को बेच नहीं सके। बेच न पाने के कारण इन्हें प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए जो शेष 900 करोड़ रुपए की रकम चाहिए थी, वह हासिल नहीं हुई और ये संकट में आ गए…

रिजर्व बैंक ने हाल में बैंकों के लिए प्रॉपर्टी को ऋण देना आसान बना दिया है। बैंकों द्वारा कुछ रकम रिजर्व बैंक के नियमानुसार नकद में रखी जाती है जिससे कि समय पर उन्हें नकदी की कमी न पड़े। रिजर्व बैंक ने इस नकद की रकम में छूट दी है, यदि बैंक द्वारा प्रॉपर्टी को ऋण दिया जाए। इससे पहले भी केंद्र सरकार ने अटके हुए प्रॉपर्टी प्रोजेक्टों को ऋण देकर पूरा करने के लिए 25,000 करोड़ रुपए की योजना बनाई है, लेकिन सरकार के इन तमाम प्रयासों के बावजूद इंडिया रेटिंग ने हाल में उच्च कीमत के रिहायशी मकानों एवं कामर्शियल प्रॉपर्टी को छोड़कर बाकी प्रॉपर्टी का नकारात्मक आकलन किया है। उनके अनुसार बाकी प्रॉपर्टी में निवेश नुकसानदेह बना हुआ है। इस समस्या को समझने के लिए हमें मदद मिलती है दिल्ली के एक मध्यम स्तर के प्रॉपर्टी डीलर के अनुभव से। इन्होंने 300 करोड़ रुपए में सोसाइटी बनाने के लिए एक प्लाट खरीदा। इनका लक्ष्य था कि इसे 1500 करोड़ में बेचेंगे। इन्होंने प्लॉट पर नक्शे इत्यादि बनाकर फ्लैट को बेचना शुरू कर दिया और फ्लैट, जो अभी बने भी नहीं थे, ऐसे फ्लैटों को बेचकर 600 करोड़ रुपए अर्जित कर लिए। इस रकम को अपना लाभांश मानते हुए इन्होंने दूसरी सोसायटी बनाने के लिए दूसरे प्लाट को खरीद लिया। इनकी योजना थी कि पहली सोसायटी के फ्लैटों को शेष 900 करोड़ रुपए में बेचकर वे इस प्रोजेक्ट को पूरा कर देंगे। वे ऐसा पहले भी तीन-चार बार कर चुके थे और छोटे बिल्डर से बढ़कर मध्यम श्रेणी के बिल्डर बन गए थे, लेकिन पूर्व से चलते आ रहे इस सुचक्र में नोटबंदी ने अड़ंगा लगा दिया। नोटबंदी के कारण प्रॉपर्टी के दाम गिर गए। उनके लिए 900 करोड़ रुपए में बचे हुए फ्लैटों को बेचना असंभव हो गया। अर्थव्यवस्था की मंदी के कारण भी बाजार में प्रॉपर्टी के दाम गिर गए। वे इन फ्लैटों को बेच नहीं सके। बेच न पाने के कारण इन्हें प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए जो शेष 900 करोड़ रुपए की रकम चाहिए थी, वह हासिल नहीं हुई और ये संकट में आ गए। इनका दिवालिया निकलने को हो गया। इस प्रकरण में तीन घटक शामिल हैं..बिल्डर, क्रेता और बैंक।

मूल समस्या यह है कि प्रॉपर्टी के दाम गिर गए और इन तीनों घटकों में कोई भी उस घाटे को बर्दाश्त करने को स्वीकार नहीं करना चाहता है। बिल्डर कहता है कि बैंक के साथ मेरी साझेदारी थी। बैंक को घाटे का एक हिस्सा वहन करना चाहिए चूंकि बैंक ने भी बाजार की स्थिति का गलत आकलन किया था और क्रेता को धैर्य रखना चाहिए। प्रॉपर्टी के दाम बढ़ने पर प्रोजेक्ट को वे पूरा कर देंगे। बैंक कहता है कि मुझे मेरी रकम चाहिए। क्रेता कहता है कि मुझे मेरा फ्लैट चाहिए। कोई घटक घाटा बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। ऐसा समझें कि तीन मित्रों ने मिलकर होटल में भोजन मंगाया। आई हुई डिश में एक सब्जी खराब निकली। अब तीनों चाहते हैं कि दूसरी सब्जी को वे स्वयं खाएं और अपने मित्रों से आशा करते है कि यह खराब सब्जी आपके हिस्से की है। तीनों ही मित्र बची हुई अच्छी सब्जी को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं और तीनों ही घाटे को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। इसी प्रकार प्रॉपर्टी के दाम गिरने से बिल्डर, बैंक और क्रेता तीनों ही प्रभावित हैं।

क्रेता चाहता है कि उसने बिल्डर से जो समझौता किया है उसके अनुसार उसको अपना फ्लैट मिले और उससे इस फ्लैट के लिए अतिरिक्त कोई रकम न ली जाए। बैंक चाहता है कि उसने जो ऋण दिया है वह सुरक्षित रहे और उसको ऋण का पूरा हिस्सा वापस मिले। बिल्डर अपने लाभांश को पहले ही निकाल चुका है। उसके पास अब कोई उपाय नहीं है कि वह शेष रकम को अर्जित किए बिना प्रोजेक्ट को पूरा कर सके। इस विवाद को कोई एक घटक कोर्ट में ले जाए तो हमारी न्यायपालिका इतना समय लेती है कि ब्याज का भार बढ़ता जाता है और प्रोजेक्ट और अधिक संकट में आता है। इस परिस्थिति में सरकार को सेटलमेंट कमीशन जैसी व्यवस्था करनी चाहिए। इन्कम टैक्स इत्यादि में यदि कोई बड़ा विवाद हो तो सरकार के पास अधिकार है कि वह करदाता के साथ आमने-सामने बैठकर उस वाद का कोई सर्वमान्य समझौता कर ले। इसी प्रकार सरकार को चाहिए कि बिल्डर, बैंक और क्रेता के बीच समझौता कराए कि जो प्रॉपर्टी के दाम में गिरावट से नुकसान हुआ है उसे इन तीनों में से कौन कितना वहन करेगा। जब तक सरकार यह सुनिश्चित नहीं करती कि घाटे का बंटवारा कैसे होगा तब तक यह समस्या हल नहीं होगी और न तो बैंक ऋण देंगे और यदि ऋण दे भी दिए तो उसका रिसाव होगा, चूंकि जिस माल पर ऋण दिया जा रहा है उसका मूल्य ही घट गया है। इस दिशा में हमें चीन से भी सबक लेना चाहिए। एक मित्र ने चीन का एक उदाहरण बताया। वहां किसी हाई-वे को बनाने के लिए एक मकान को गिराना जरूरी था। हाई-वे के अधिकारी मकान मालिक के पास पहुंचे और उनसे सीधे-सीधे बात कीः भाई हमें यह मकान अधिग्रहण करना है और आप तीन महीने के अंदर यहां से दूसरी जगह स्थानांतरित हो जाएं, आप बताएं कि आपको इस मकान को खाली करने में क्या मदद चाहिए? मकान मालिक ने जो भी रकम बताई कि मुझे यदि इतनी रकम दी जाए तो मैं दूसरी जगह मकान खरीद लूंगा और छह महीने में यहां से उठकर चला जाऊंगा। हाई-वे के अधिकारियों ने मकान मालिक द्वारा मांगी गई रकम में 30 प्रतिशत बढ़ाकर उसे पेमेंट कर दिया और उससे 30 प्रतिशत घूस ले ली। ऐसा करने से सभी प्रसन्न हो गए। मकान मालिक को नई जगह मकान बनाने का खर्च मिल गया, अधिकारी को घूस मिल गई और हाई-वे बनाने में अधिग्रहण का अड़ंगा समाप्त हो गया। मूल बात यह है कि नौकरशाही के भ्रष्टाचार के दो रूप हैं। अपने देश में नौकरशाही भ्रष्टाचार काम को रोक कर घूस लेती है जबकि चीन में नौकरशाही कार्य को संपन्न कराने के लिए घूस लेती है। अतः सरकार को चाहिए कि केवल कानूनी प्रावधानों को खड़ा करने के स्थान पर साथ-साथ ऐसी व्यवस्था बनाए कि जो प्रॉपर्टी के दाम में घाटा हो गया है उसका आपसी बातचीत से बंटवारा करे जिससे कि बैंक, क्रेता और बिल्डर तीनों की सहमति से उसका निपटारा हो। तब ही प्रॉपर्टी मार्केट फिर से उठेगी।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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