सत् के पांव कहां

By: Mar 17th, 2020 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

दीवारों से दीवारें सटी होने के बावजूद मैं पिछले एक हफ्ते से कोरोना के डर से पंडित जॉन अली के घर नहीं जा पाया था। जब बिछोड़ा नहीं सहा गया तो मैं नाक पर रूमाल लपेटे ही उनके यहां पहुंच गया। मास्क जिन दामों में बाजार में बिक रहा था, वह देशी घी की तरह मेरी पहुंच से बाहर था। पंडित जी के घर में सारा सामान पुलिस फायरिंग की तरह इधर-उधर बिखरा पड़ा था, लेकिन हर बार की तरह पहला तीर उन्होंने ही छोड़ा, ‘‘अरे मियां! कहां सत् की तरह मुंह छिपाए चले आ रहे हो? बेचारा सत्युग से तुम्हारी तरह मुंह छिपाए घिसट रहा है। खैर छोड़ो, भीतर तो आ ही गए हो। अब नकाब हटा दो। अपने एमएलए की तरह तुम्हारे दीदार को मरा जा रहा हूं।’’ उनके वार से सकपकाए मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘पंडित जी! हर युग में क्यों सत् ही मुंह छिपाए भागता फिरता है?’’ ‘‘अमां यार! कुछ भी बोलते रहते हो। सच भागे तो तब जब उसके पांव हों। इस बेचारे को तो आज तक किसी सरकारी योजना के तहत दिव्यांग की तरह बैसाखियां या एक अदद व्हील चेयर भी नसीब नहीं हो पाई। वैसे सत् और सत्ता एक ही धातु से बने हैं, लेकिन सत् वही होता है जिसे सत्ता घसीटती है और सत्ता वही घसीटती है जो उसके हित में होता है। ऐसे सत् का भाग्य जंजीर के कुत्ते के भाग से अधिक कुछ नहीं होता। वह देखकर भी तभी भौंकेगा, जब सत्ता चाहेगी।’’ ‘‘इसका अर्थ गरीब के लिए सत् की कोई अहमियत नहीं?’’, मैं निराश होकर बोला। ‘‘हां, है न। बेचारा कैटरीना की तरह सत् को निहार सकता है, लेकिन सलमान की तरह छू नहीं सकता। अब मुझे ही देख लो। आजकल अपने बॉस की अगाड़ी और पिछाड़ी दोनों से बचता-बचाता फिर रहा हूं, लेकिन उसे सहूलियत है राजधानी में बैठे होने की। विरोधाभास देखो, सत्ता मेरे हाथ भी है और उसके हाथ भी, लेकिन गाड़ी की तरह उसकी सत्ता मेरी सत्ता से बड़ी भी है और हाईब्रिड भी। अर्थात उसे राजधानी में बैठे होने की वजह से तमाम सत्ता केंद्रों से प्रत्यक्ष पावर मिल रही है। वह जब चाहे कांख में फाइल को दबाए मेरे खिलाफ सियासी आकाओं और बड़े अफसरों के कान फूंक आता है। उसने मेरे खिलाफ कुछ कुंडलियां रची हैं, जिन्हें स्वच्छ भारत के गानों की तरह मौके-बेमौके सबके सामने परोसता रहता है। अगला अगर कुछ न भी सुने तो कम से कम उसे यह तो याद रह जाता है कि पंडित ठीक आदमी नहीं, उसका बॉस उसके खिलाफ जो बोल रहा है। लड़ाई ऊसूलों और दम्भ की है, लेकिन वह कोरोना से भी घातक सदियों पुराने ‘जड़ से उखाड़ो’ श्रेणी के हथियार इस्तेमाल कर रहा है। मसलन चुगली आतंकवाद अर्थात बैक बाइटिंग, ईयर फिलिंग, निन्दाथ्रैंक्स, कान में सुना देना वगैरह-वगैरह। सच क्या है, केवल हम दोनों जानते हैं, लेकिन जो पत्तल में परोसा जाता है, आदमी वही खाता है। हर बार कोई चिट्ठी इश्यू कर देता है। जवाब देता हूं तो कोई नई कान खड़ी कर देता है। नतीजा, फिर एक नई चिट्ठी। अब अगर मैं किसी को कह दूं कि तुमने शर्ट उलटी डाली है। तो अगला कम से कम इतना तो कहेगा ही कि उलटी नहीं सीधी है। सत् तो सदियों से नकटे की तरह रूमाल से मुंह छिपाए घिसट रहा है क्योंकि उसके पास सत्ता के पांव नहीं है। फिलवक्त तुम यह शेर सुनो-हाकिम के घर झूठ की एक सरिता बहती है, लेकिन सत् वही जो सत्ता की कुर्सी कहती है। 


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