होली का आध्यात्मिक रहस्य

By: Mar 7th, 2020 12:21 am

होली का त्योहार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन आता है। भारत में देशी वर्ष फाल्गुन की पूर्णमासी को समाप्त होता है इसलिए फाल्गुन की पूर्णमासी की रात्रि को होली जलाने का अर्थ है पिछले वर्ष की कटु और तीखी स्मृतियों को जलाना। अपने दुःखों को भूलकर नए वर्ष का आह्वान करना। इस त्योहार से संबंधित प्रचलित कहानी के अनुसार जब सृष्टि पर हिरण्यकश्यप नामक राक्षस का राज था, वह अपने को ही भगवान मानता था। तपस्या के बल से उसने वरदान पाया कि साधारण रीति से उसे कोई नहीं मार सकता। उसका पुत्र पह्लाद ईश्वर प्रेमी था। वह पिता को भगवन नहीं मानता था। अतः पिता ने उसे अनेक प्रकार की यातनाएं देकर ईश्वर प्रेम से विमुख करने के प्रयास किए। जब वह किसी तरह नहीं माना, तो प्रह्लाद की बुआ, जिसे आग में न जलने का वरदान प्राप्त था,उसे गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई, पर होलिका का रक्षा कवच उड़कर प्रह्लाद पर आ गया। इसके बाद नृसिंह अवतार के रूप में परमात्मा ने हिरण्यकश्यप का बध किया। इस प्रकार ईश्वर विरोधी की हार है और ईश्वर प्रेमी की जीत की यादगार के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से इस कथा का अर्थ है कलियुग के अंतिम चरण में धर्म की ग्लानि हो जाती है और हिरण्यकश्यप जैसे लोगों का बहुमत हो जाता है। वे लोग परमात्मा से बेमुख होकर विपरीत आचरण करते हुए मनमानी करते हैं। परमात्मा के मार्ग पर चलने वालों पर अत्याचार होते हैं। प्रह्लाद ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रह्लाद का अर्थ है वह पहला व्यक्ति जिसे माध्यम बनाकर परमात्मा सबको आल्हादित करते हैं। होलिका रूपी विकारी अग्निसे बचाने के लिए अपने बच्चों को योग अर्थात ईश्वरीय स्मृति रूपी कवच देते हैं। ईश्वर से प्रेम करने वालों की जीत हो जाती है और उनसे बेमुख करने वाली भावना का नाश हो जाता है। होली शब्द के अर्थ में भी गहन रहस्य समाया हुआ है। जब हम बीती बातों को भुलाकर परमात्मा के रंग में रंग जाते हैं। इस त्योहार का सामाजिक सांस्कृतिक व जैविक महत्त्व भी है। देश के विभिन्न राज्यों में इस पर्व को अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है।

                               – नरेंद्रकौर छाबड़ा, औरंगाबाद


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