अंबेडकर और भारतीय इतिहास
डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
उन्होंने भारत के इतिहास को दो भागों में बांट दिया था, आर्यों के भारत में आने या इस पर आक्रमण करने से पूर्व का इतिहास और उसके बाद का इतिहास। उन्हीं की नकल करते हुए भारतीय इतिहासकारों ने भी इसी तर्ज पर इतिहास लिखना शुरू किया और किसी समय तक यह आज तक लिखा और पढ़ाया जा रहा है। इतिहास लेखन के इस नैरेटिव को 1946 में बाबा साहेब अंबेडकर ने पहली बार, ‘शूद्र कौन थे,’ ग्रंथ लिख कर चुनौती दी। अंबेडकर ने भारत में आर्यों के बाहर से आने और सिंधु-सरस्वती घाटी में रहने वालों पर हमला करने के पूरे नैरेटिव को ही कटघरे में खड़ा कर दिया…
चंद दिन पहले भीमराव रामजी अंबेडकर की जयंती सारे देश में मनाई गई और देश के लिए किए गए उनके कामों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलने का संकल्प भी लिया गया । वैसे तो यह संकल्प 1956 में उनके देहावसान के बाद से ही लिया जा रहा है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सचमुच हम उनके दिखाए मार्ग पर चलने का प्रयास कर रहे हैं। यह प्रश्न कम से कम उनसे तो पूछा ही जा सकता है, जो उनके अनुयायी होने की घोषणा अतिरिक्त उत्साह से करते हैं। यहां केवल एक प्रसंग में ही चर्चा की जाएगी। वह क्षेत्र इतिहास लेखन का है। भारत में इतिहास लेखन का एक वर्गीकरण ब्रिटिश उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने अत्यंत परिश्रम से प्रचलित कर दिया था। उन्होंने भारत के इतिहास को दो भागों में बांट दिया था, आर्यों के भारत में आने या इस पर आक्रमण करने से पूर्व का इतिहास और उसके बाद का इतिहास। उन्हीं की नकल करते हुए भारतीय इतिहासकारों ने भी इसी तर्ज पर इतिहास लिखना शुरू किया और किसी समय तक यह आज तक लिखा और पढ़ाया जा रहा है। इतिहास लेखन के इस नैरेटिव को 1946 में बाबा साहेब अंबेडकर ने पहली बार, ‘शूद्र कौन थे,’ ग्रंथ लिख कर चुनौती दी। अंबेडकर ने भारत में आर्यों के बाहर से आने और सिंधु-सरस्वती घाटी में रहने वालों पर हमला करने के पूरे नैरेटिव को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। अंबेडकर का कहना था कि आर्यों के बाहर से आने का ब्रिटिश सिद्धांत कपोल कल्पित है और यूरोपीय लोगों की इस मानसिकता में से पैदा हुआ है कि वे एशिया के लोगों से श्रेष्ठ हैं। यह सिद्धांत भारत पर ब्रिटिश सत्ता को देर तक टिकाए रखने की रणनीति में से पैदा हुआ था। इतिहासकार ऐसा मानते थे कि शूद्र भारत के मूल निवासी थे, जिन्हें आर्यों ने पराजित किया और उन्हें दास बना लिया। दास-दस्यु जिनका वेदों में आर्यों से संघर्ष का वर्णन आता है, वही इस देश के मूल निवासी थे। आर्यों ने उन्हें पराजित कर दूर दक्षिण तक भगा दिया। शूद्र और दास-दस्यु काले रंग के थे और बाहर से आने वाले आर्य श्वेत रंग के थे। अंबेडकर ने अत्यंत परिश्रम और प्रमाणों से यूरोपीय विद्वानों के इस झूठ का पर्दाफाश किया । उन्होंने कहा कि शूद्र भी क्षत्रिय ही थे। जिन क्षत्रियों का किन्हीं कारणों से उपनयन संस्कार करवाने से इनकार कर दिया गया,वही कालान्तर में शूद्र कहलाए । अंबेडकर दास-दस्यु को भी आर्यों की ही एक शाखा मानते थे । इस प्रकार अंबेडकर ने भारतीय इतिहास की आधारभूमि को ही विकृत करने वाली यूरोप की इस नस्ली रणनीति का भंडाफोड़ किया था।
लेकिन भारतीय इतिहासकारों ने अंबेडकर के इस अनुसंधान को त्याग कर, यूरोपीय मास्टरों के रास्ते पर ही चलना श्रेयस्कर क्यों समझा। वे अंबेडकर का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनके अनुसंधान और निष्कर्षों को अमान्य करते हैं । अलीगढ़ विश्वविद्यालय का वैचारिक स्कूल इस झूठ को हिंदोस्तान में परोसता रहे, यह समझ में आता है क्योंकि उन्हें ब्रिटिश रणनीति को ही आगे बढ़ाना था, लेकिन राम शरण शर्मा, रोमिला थापर और प्रो. विपन चंद्र सूद ऐसा क्यों करते रहे। भारतीय इतिहास का इनका सारा विश्लेषण मोटे तौर पर इसी आधार पर खड़ा है कि आर्य संस्कृति बाहरी संस्कृति है और यहां के मूल निवासियों की संस्कृति को इन्होंने नष्ट किया। पूर्वोत्तर भारत के बारे में तो अभी तक कहा जा रहा है कि वहां के निवासियों का अभी तक आर्यकरण या हिंदूकरण किया जा रहा है । रामशरण शर्मा कहते हैं, यद्यपि भारत में आर्यों के आक्रमण के प्रत्यक्ष उल्लेखों का अभाव है तथापि बहुत से अप्रत्यक्ष उल्लेखों और आख्यानों से उनका आगमन सिद्ध होता है। यहां तक कि वामन पांडुरंग काणे, श्रीपाद अमृत डांगे, जवाहर लाल नेहरू , लोकमान्य तिलक, भी यही मानते हैं कि आर्य बाहर से आए । ऐसी स्थिति में इतिहासकारों ने हिंदोस्तान के समाज और इतिहास की व्याख्या करने के लिए आधार ही उल्टा पकड़ लिया । इससे निकला इतिहास ही आज प्रामाणिक बताकर परोसा जा रहा है और अंबेडकर के सूत्र को धूल में फेंका जा रहा है। यही प्रश्न अंबेडकर को स्वयं भी आश्चर्यचकित करता था । प्रमाणों का अभाव है, लेकिन फिर भी आर्य बाहर ही से आए थे । अंबेडकर को दुख था कि, हिंदू होने के नाते ब्राह्मणों को पाश्चात्य विद्वानों के इस मत को अमान्य करना चाहिए था, लेकिन आश्चर्य है कि ब्राह्मण इसका तिरस्कार करने की बजाय उल्टा इसका समर्थन करते हैं। इसका उत्तर भी अंबेडकर ने दिया । उनके अनुसार, ब्राह्मण स्वयं को आर्यों का प्रतिनिधि मानते हैं और शेष हिंदुओं को अनार्य जाति की संतान कहते हैं। इससे उनके स्वयं के श्रेष्ठतम होने के अहम की पुष्टि होती है, लेकिन मैंने भारत के इतिहासकारों की लंबी सूची में से जिन कुछ इतिहासकारों का उल्लेख किया है, उनमें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य तीनों जातियों के इतिहासकार शामिल हैं । वे सभी अंबेडकर को रिजेक्ट क्यों कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक दलित इतिहासकार, सवर्ण जातियों के इतिहासकारों को रास्ता दिखाएगा। कारण चाहे कुछ भी क्यों न हो, लेकिन एक बात में कोई भी संशय नहीं है कि भारतीय इतिहास के मूलाधार को लेकर अंबेडकर का रास्ता ही सही रास्ता है। राम शरण शर्मा, रोमिला थापर और विपन चंद्र सूद का रास्ता ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का दिखाया रास्ता है । अंबेडकर का रास्ता भारतीय रास्ता है। इसी रास्ते पर चलकर सिंधु सरस्वती सभ्यता और वैदिक इतिहास को समझा जा सकता है । क्योंकि अंबेडकर के आर्य और दास्य -दस्यु दोनों ही भारतीय थे जबकि नेहरू व डांगे के आर्य बाहर से आए थे ।
ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com
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