कर्फ्यू ने बहुत सिखायाखास लिखाया

By: Apr 5th, 2020 12:02 am

अशोक गौतम

मो.-9418070089

इन दिनों स्वर्ग से धरती तक आदमियत का सन्नाटा पसरा हुआ है। कल तक जिन कुत्तों को हम हड़काया करते थे, वे आज हमें ढूंढ रहे हैं कि हे हमें चलते-फिरते हड़काने वालो! कहां दुम दबाकर छुपे हो आज तुम लोग? आदमी जीने के लिए कुछ भी कर सकता है, कैसे भी रह सकता है। जीने की ललक उसे कहीं भी, कुछ करवा सकती है। या कि वह अपने को बचाए रखने के लिए कितने ही निडर होने के दावों के बीच डरा हुआ महसूस करता है। यह कर्फ्यू के इन दिनों में आंखें बंद करके भी साफ  देखा जा सकता है। शहर-गांव सब सूने-सूने ज्यों हम सबको अज्ञात अदृश्य जहरीला वह सांप सूंघ गया हो जिसकी दवाई फिलवक्त किसी के पास नहीं। जो संसार में हमारे साथ हमसे जैसे-तैसे बचे जानवर-पंछी न होते तो इस सन्नाटे के बीच बिल्कुल भी न लगता कि हम उसी संसार में रह रहे हैं जिसे कुछ दिन पहले हमने अपने बचे रहने के इरादे से बंद कर दिया है। मौन में भी एक संसार होता है, जिसे जिया जा सकता है। यह अब पता चल रहा है। न पल गिनने की जरूरत, न घड़ी देखने को मन में कहीं उल्लास। न तारीख का पता, न दिन के नाम का पता करने की जरूरत! पर इस सबसे परे कुछ महसूस, खास करने की जरूरत जरूर है। कि हम क्यों अपनी मौत को दस्तक दे रहे हैं, अपने घरों में कैद होने के बाद भी। पर इसके साथ ही साथ यह जो जीवन जीने की ललक है, यह आदमी को हार कर भी हारने नहीं देती। लाख मरने के बाद भी उसमें जीने की ललक पैदा करती रही है या कि काव्यात्मक भाषा में यों कह दिया जाए कोई आदमी को हराने की जितनी ही कोशिश कर ले, कर ले पर हर कोशिश से पहले वह भलीभांति जान ले कि आदमी दुर्जेय था दुर्जेय है और आने वाले हर भविष्य में वह दुर्जेय रहेगा सभी के उसे लाख हराने के या कि खुद के खुद से छल करने बावजूद भी। कि ईश्वर को भी पता है उसे भी बचाकर रखना है अपना अस्तित्व। या कि आदमी के अस्तित्व से पहले चिंता है उसे अपने अस्तित्व की। कर्फ्यू के बीच की मौत सी चुप्पी के बीच एक बात तो है कि जो हाथ को हाथ में कलम साधनी आ जाए तो लिखने का जो आनंद आ रहा है, वैसा पहले कभी नहीं आया। परिस्थितिजन्य डर ने सन्नाटे की नब्ज को पकड़ने की ताकत दी तो इस बीच महामारी के बीच जीती-मरती मानवीय संवदेनाओं ने अरसे बाद कहानी लिखने को खड़ा किया। वह कहानी जो बरसों पहले पीछे छूट गई थी, इन दिनों फिर सामने खड़ी हो रही है। और उसी का नतीजा है कि ‘डर’ और ‘बापू खुश है’ इस दौरान लिखी कहानियां हैं, जिसमें से डर ई-कल्पना पत्रिका में प्रकाशित भी हो चुकी है और कहानी के पाठकों द्वारा उसे सराहना भी बहुत मिली है। इसके अतिरिक्त व्यंग्य तो मेरी प्रिय विधा रही ही है। कर्फ्यू ने बहत से व्यंग्यों को भी आभारभूमि प्रदान की है जो सन्नाटे के समय में भी हमें हंसाने और समझाने के दोनों ही काम करते हैं। इस सन्नाटे ने लिखने का ही नहीं, पढ़ने का भी आनंद दिया है, उसे मैं ही महसूस कर सकता हूं। इसी के साथ-साथ चिंतन के स्तर पर ये भी जाना कि हम अपने को बचाने के लिए किस हद तक संभल सकते हैं? हमें संभलना ही चाहिए, क्योंकि यही संभलना हमारे आदमी के भीतर से चेतन होने की पहचान है। जब तक हम न डरते हुए भी डर-डर कर संभलते रहेंगे, तय मानिए हम हर किस्म के कर्फ्यू के बाद भी बने रहेंगे।

 


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