किस्सा मेरी बीमारी का

By: Apr 17th, 2020 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

बीमार तो मैं भी हुआ था, वह भी घनघोर रूप से। सरकारी अस्पताल में दिखाया तो डाक्टर ने कमीशन के कैप्सूल दिए, जिससे मेरे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और हारकर मुझे एक प्राइवेट अस्पताल की शरण में जाना पड़ा। वहां का डाक्टर बहुत भला था, डेढ़ इंच मुस्कान उसके होंठों पर स्थायी रूप से चिपकी हुई थी, उसकी उसी मुस्कान से मेरा आर्थिक कत्ल हुआ। मैंने अस्पताल में बताया कि मैं एक साहित्यकार हूं, इसलिए इसके बदले आप कुछ कंसीडर कर सकते हैं तो अवश्य करें, परंतु अस्पताल के डाक्टर की मुस्कान मुझे साहित्यकार जानकर हंसी मैं बदल गई। उसी हंसी के बीच उसने मुझसे कहा भी कि वह अच्छा ट्रीटमेंट देंगे। मैंने अपनी बीमारी की बात मीडिया में फैलानी चाही तो मुझे कोई प्रवक्ता नहीं मिला। जो लोग मेरा हाल-चाल पूछने आ रहे थे, उनसे भी कहा कि साहित्य अकादमी तक मेरी बीमारी की खबर पहुंचाओ, लेकिन परिणाम निकला ढांक के तीन पात। चूंकि मैं गंभीर रूप से बीमार था तो शुरू में आईसीयू में रखा गया, लेकिन वह आईसीयू क्या था, हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा उसमें धड़ल्ले से घुस आता था वैसे कोई ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी, बस चंद पड़ोसी और रिश्तेदार एक बार औपचारिकता पूरी कर अंतर्ध्यान हो गए थे। साहित्यकार ज्यादा नहीं आए, उसकी वजह थी खेमेबाजी। हालांकि मैं किसी खेमे में नहीं था, लेकिन अब साहित्यकारों को कौन समझाए कि हारी-बीमारी में खेमेबाजी नहीं चला करती। डाक्टर ने ही आठ दिन बाद बताया कि पेट में जो दर्द है, वह अयेंडेसाइटिस का है। इसलिए आपरेशन करना होगा। मैं क्या करता, मजबूर था। पत्नी से सलाह की, वह बेचारी बेहाल थी और चिंतित भी। बोली-‘घबराओ मत, मेरे गहने कब काम आएंगे, आपरेशन तो कराना ही है।’ डाक्टर ने रातों-रात हजारों रुपए लेकर मेरा आपरेशन कर दिया। मेरे स्वास्थ्य बुलेटिन की चिंता न अस्पताल को थी और न जनता को इसकी आवश्यकता। इसलिए यहां भी मेरी तीस साल की साहित्य सेवा कोई काम नहीं आई। परिचर्चा के लिए पत्नी, बेटा और दो अदद बेटियां करती रहीं सारी भाग-दौड़। उधर अस्पताल प्रशासन हर तीसरे दिन हजार दो हजार मांग लेता वह अलग। दवाएं बाजार से आ ही रहीं थीं। डाक्टरों के हर राउंड की फीस अलग थी, लेकिन यह सब मेरी पहुंच के बाहर था। मैं बिस्तर पर पड़ा अकसर यही सोचा करता कि गरीबी कितना बड़ा अभिशाप है। थोड़ा ठीक हुआ तो मुझे जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया, जहां पूरा हॉल शोर-शराबे की चपेट में था। परंतु मैंने आर्थिक भार की कमी को ध्यान में रखकर राहत की सांस ली। 


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