जीवन की असली कला

By: Apr 16th, 2020 12:05 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

हमारा मुंह सोचता नहीं है, शब्द नहीं चुनता, वाक्य नहीं घड़ता, ये सारे काम मस्तिष्क के हैं। अर्थात, हम सुनते भी दिमाग से हैं और बोलते भी दिमाग से हैं, कान सिर्फ वातावरण से आवाजें पकड़ने का यंत्र है, यह ‘रिसीवर’ मात्र है, और मुंह सिर्फ  आवाज रिलीज करने का यंत्र है, दोनों ही ‘प्रोसेसर’ नहीं हैं। बातचीत में बोलने का अंदाज, यानी हमारी आवाज से झलकते प्यार, उपेक्षा, घृणा आदि भाव महत्त्वपूर्ण होते हैं…

अगर हम किसी से पूछें कि हम कैसे सुनते हैं तो तुरंत जवाब आएगा कि कानों से सुनते हैं। इसी तरह अगर पूछा जाए कि हम कैसे बोलते हैं तो भी जवाब लगभग तुरंत ही मिल जाएगा कि मुंह से बोलते हैं। दोनों जवाब सही हैं, और दोनों जवाब गलत हैं। हमारे कान वस्तुतः मात्र एक ‘रिसीवर’ का काम करते हैं, वे ध्वनि को, आवाज को, शब्दों को पकड़ते हैं और उन्हें मस्तिष्क तक भेज देते हैं। हमारा दिमाग उन शब्दों को ‘प्रोसेस’ करता है, उनमें से अपने मतलब का हिस्सा चुनता है और उसे स्टोर कर लेता है, सहेज लेता है। इसी तरह हम जब बोलते हैं तो हमारा दिमाग सोचता है कि क्या बोलना है और कैसे बोलना है, और हमारा मुंह केवल उन शब्दों को बाहर वातावरण में ‘रिलीज’ कर देता है ताकि लोग उन शब्दों को सुन सकें। हमारा मुंह सोचता नहीं है, शब्द नहीं चुनता, वाक्य नहीं घड़ता, ये सारे काम मस्तिष्क के हैं। अर्थात, हम सुनते भी दिमाग से हैं और बोलते भी दिमाग से हैं, कान सिर्फ वातावरण से आवाजें पकड़ने का यंत्र है, यह ‘रिसीवर’ मात्र है, और मुंह सिर्फ  आवाज रिलीज करने का यंत्र है, दोनों ही ‘प्रोसेसर’ नहीं हैं। बातचीत में हमारे हावभाव, हमारी टोन, बोलने का अंदाज, यानी हमारी आवाज से झलकते प्यार, उपेक्षा, घृणा आदि भाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं और मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि सुनने वाले पर हमारे शब्दों का असर सिर्फ सात प्रतिशत ही होता है, हमारे चेहरे के हाव-भाव और हमारी आवाज से झलकते अंदाज का असर इतना अधिक है कि शब्द उनमें खो सकते हैं, अकसर खो ही जाते हैं। हम कुछ कहते हैं, सुनने वाला बिलकुल कुछ और समझता है। इसके अतिरिक्त बातचीत में जिन बातों का असर होता है वे हैं श्रोता से हमारे रिश्ते की मजबूती और गुणवत्ता, हमसे श्रोता को मिले पुराने अनुभव और पारस्परिक विश्वास का स्तर। यानी, यदि श्रोता के साथ हमारे रिश्ते मधुर हैं तो हमारी बातचीत का असर जल्दी होगा, यदि श्रोता यह मानता है कि हम उनसे सच्चा व्यवहार करते हैं, झूठ नहीं बोलते, अकारण कुछ नहीं छिपाते, तो हमारी बातचीत का असर जल्दी होगा, यदि हमारे बीच पारंपरिक विश्वास का संबंध है तो हमारी बातचीत का असर जल्दी होगा।

याद रखिए, हम कुछ भी कहें, सुनने वाला हमारे शब्दों को सुनता जरूर है, पर वह उन शब्दों को हमारे साथ मिले पुराने अनुभवों के आधार पर परखता है और उन अनुभवों के आधार पर तय करता है कि हम जो बोल रहे हैं या बता रहे हैं, वह कितना विश्वसनीय है, इसी आधार पर वह हमारी सारी बातचीत को ‘तौलता-परखता’ है और उसके बाद ही वह आपसी बातचीत को  ‘प्रोसेस’ करता है और इस ‘प्रोसेस्ड’ हिस्से को, पूरी बातचीत को नहीं, अपने दिमाग में सुरक्षित कर लेता है। इसी तरह बहुत बार यह भी होता है कि हम बोलते कुछ और हैं और सोचते कुछ और हैं। मान लीजिए, मेरे किसी सहकर्मी ने मुझे कोई सुझाव दिया, हमें या तो सुझाव पसंद नहीं आया या फिर वह व्यक्ति ही हमें पसंद नहीं है, इसके बावजूद हो सकता है कि हम कहें .. ‘अच्छा आइडिया है, मैं इस पर कुछ विचार कर लूं, फिर बताता हूं,’ जबकि हमारा दिमाग उस आइडिया को पहले ही रिजेक्ट कर चुका हो। यही कारण है कि बातचीत तभी प्रभावी हो पाती है यदि हम सामने वाले व्यक्ति की अवधारणाओं को, उनके पूर्वाग्रहों, उनके मन में छिपे डर, उनकी आवश्यकताओं आदि को समझकर अपने शब्द चुनें, अन्यथा सारी बातचीत सिर्फ  ‘अनर्गल शोर’ बनकर रह जाती है और उसका कोई सार्थक परिणाम नहीं होता। हमारी परसेप्शंस, यानी, अवधारणाएं हमारी सच्चाइयां बन जाती हैं। हम रोज सूरज को उगते और डूबते देखते हैं। पर हम यह भी जानते हैं कि हमारी धरती सूरज के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती है। जब भारत में दिन होता है तो अमरीका में रात होती है। सूरज दो नहीं हैं, सूरज एक ही है, जो दोनों देशों में अलग-अलग समय पर दिखाई देता है। सूरज न डूबता है, न उगता है। हमारी धरती घूमती है तो हमें लगता है कि सूरज उगा या सूरज डूबा। हमारी परसेप्शंस हमारे जीवन की सच्चाइयां बन जाती हैं। मैं अपनी वर्कशॉप में लोगों को प्रोमोशन पाने, यहां तक कि सीईओ बनने के प्रशिक्षण देता हूं। ये वे लोग हैं जिन्होंने दुनिया घूमी है, पहले से सफल हैं, अच्छे पदों पर आसीन हैं, लेकिन उनकी प्रगति में कोई ऐसी रुकावट है जिसे वे नहीं समझ पा रहे। ऐसे लोगों के व्यवहार का बारीकी से विश्लेषण करते रहने के कारण ही मुझे यह समझने का मौका मिला कि मानव विज्ञान कोई सीधी-सरल रेखा नहीं है, लेकिन यदि आपको सही तरीकों का ज्ञान हो तो जीवन आसान हो जाता है।

यह अभिज्ञता, यह ज्ञान, यह जानकारी, यह अवेयरनेस हमें कई कठिनाइयों से निजात दिलाती है और हम न केवल उन्नति करते चलते हैं बल्कि सच्ची खुशी भी पा लेते हैं। यह कला सिर्फ  बातचीत की कला नहीं है बल्कि हमारे दिमाग के काम करने के तरीके को समझने की कला है। दिमाग के काम करने के तरीके को लेकर मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। मान लीजिए मेरे सामने ऐसा कोई काम है जो आवश्यक भी है और महत्त्वपूर्ण भी, लेकिन यह या तो कठिन है, या फिर मुझे वह काम करना पसंद नहीं है, लेकिन चूंकि यह काम आवश्यक है इसलिए मैं उसे करने का प्रयत्न करूंगा और जब मैंने काम करना शुरू किया तो मुझे अचानक याद आएगा कि मैंने बहुत दिनों से अपनी दराज साफ  नहीं की। मैं दराज साफ करने में व्यस्त हो जाऊंगा, चार घंटे लगाकर दराज साफ  करूंगा और बहुत खुश हो जाउंगा कि मैंने एक अच्छा काम ‘निपटा’ दिया, जबकि असलियत यह है कि मैंने उस आवश्यक और महत्त्वपूर्ण काम को छोड़ दिया, जो मेरी प्रगति का कारण बन सकता था, जबकि दराज को आज ही साफ  करना आवश्यक नहीं था। हमारा दिमाग एक ऐसा यंत्र है जो हमें ‘जीवित’ रखने का भरसक प्रयत्न करता है। यदि हमें ज्यादा गर्मी लगे तो हमारे शरीर का तापमान घटाने के लिए पसीना बनना शुरू हो जाता है, यदि हमें ज्यादा सर्दी लगे तो हम कंपकंपाने लगते हैं जिसके कारण सर्दी से हल्की सी निजात मिलती है। यदि दिमाग को हमारे जीवन के प्रति कोई खतरा महसूस हो तो हम भाग निकलते हैं। हमारा अवचेतन मस्तिष्क खुशी चाहने वाला संयंत्र है। इसलिए जब भी हम कोई कठिन काम करने की कोशिश करते हैं तो हमारा दिमाग हमें किसी आसान काम में उलझा देता है और हम उस आसान परंतु अनावश्यक काम में समय बर्बाद कर देते हैं। यदि हम दिमाग के काम करने के तरीके को समझ लें तो हम जीवन में उन्नति करते चलते हैं। दिमाग के काम करने के तरीके को समझकर तथा अभ्यास और अनुशासन से हम प्रगति के नए द्वार खोल लेते हैं। यह सिर्फ बातचीत की कला नहीं है, यह जीवन की कला है। इसे समझना जीवन को समझना है।

ईमेलः indiatotal.features@gmail


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