दिल्ली मॉडल का महत्त्व

By: Apr 28th, 2020 12:06 am

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

अधिकारी-कर्मियों की कार्यकुशलता का बाहरी स्वतंत्र कंसल्टेंट से गुप्त आकलन कराया जाए। जासूसों द्वारा अलग आकलन कराया जाए और जनता द्वारा गुप्त आकलन विभिन्न तरीकों से कराया जाए। इस प्रकार के आकलनों से सरकार उन अध्यापकों, प्रधानाचार्यों एवं डाक्टरों को संस्थागत तरीके से चिन्हित कर सकेगी जो कि वास्तव में कार्यकुशल हैं और उन्हें दायित्व दिया जा सकता है…

केजरीवाल ने आम आदमी को मुफ्त बिजली और पानी तथा महिलाओं को बस में मुफ्त यात्रा की सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। साथ में आपने सरकारी विद्यालय एवं अस्पतालों के कार्य में अद्भुत सुधार किया है। राष्ट्रीय स्तर पर इसी प्रकार की सरकारी कार्यकुशलता से हम कोरोना के प्रसार को रोक सकेंगे। चीन ने वुहान को वापस खोल दिया है। इसका मुख्य कारण उनके सरकारी कर्मियों की कार्यकुशलता दिखती है। सोशल डिस्टेंसिंग का नियम निकालना एक बात है, उसका अनुपालन कराना दूसरी बात है। अनुपालन करने के लिए सरकारी कर्मियों की कार्यकुशलता जरूरी है, जैसे रेलवे स्टेशन पर लोग एक साथ खड़े हों तो कंडक्टर को चुस्त होना होगा। उन पर सोशल डिस्टेंसिंग न रखने का फाइन लगाना होगा, लेकिन यदि कंडक्टर का ध्यान खाली बर्थ को बेचने पर हो तो वह सोशल डिस्टेंसिंग पर ध्यान नहीं देगा। इसलिए दिल्ली में सरकारी कर्मियों की कार्यकुशलता से हमें सबक लेना चाहिए। लॉकडाउन के दौरान तमाम सरकारी कर्मी घर बैठे वेतन उठा रहे हैं, जैसे पीडब्ल्यूडी, शिक्षा, न्यायपालिका इत्यादि के। इन्हें कोरोना संक्रमण के सर्वे तथा मॉनिटरिंग पर लगा देना चाहिए। अपने देश में 2 करोड़ सरकारी कर्मी हैं। 1 करोड़ स्वस्थ एवं पुलिस में हों तो 1 करोड़ घर बैठे हैं। देश में 30 करोड़ परिवार हैं। इन घर बैठे कर्मियों को 30-30 परिवार आबंटित कर देने चाहिए। प्रतिदिन इन्हें इन परिवारों से मिलकर कोरोना की जानकारी लेनी चाहिए। लेकिन यह भी तब सफल होगा जब ये घर बैठे फर्जी जानकारी ऊपर न भेज दें। इसलिए बायोमीट्रिक रिकॉर्डिंग तथा फोटो भेजनी चाहिए। इस दिशा में दिल्ली मॉडल को समझने की जरूरत है। जानकार बताते हैं कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में छोटी-मोटी दवाएं वास्तव में मुफ्त मिल रही हैं। समस्या होने पर सुनवाई भी हो रही है। दिल्ली सरकार द्वारा चलाए जाने वाले एक विद्यालय के एक प्रधानाचार्य ने बताया कि उनके विद्यालय के कुछ अध्यापकों को जीवन विद्या नामक संस्था द्वारा चलाए जा रहे आध्यात्मिक सेमिनारों में भेजा गया। उससे कुछ प्रभाव आया यद्यपि उनका मानना था कि यह प्रभाव कम था। उनके अनुसार दिल्ली के स्कूलों में ढांचागत सुविधाओं में जैसे स्कूल की कुर्सियां और ब्लैक बोर्ड आदि में तो बहुत सुधार हुआ है, लेकिन अध्यापकों की रुचि में सुधार कम हुआ है। वह भी तब जब उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस कार्य को व्यक्तिगत रूप से मॉनिटर करते रहते हैं। दिल्ली जैसे छोटे राज्य में अस्पतालों और विद्यालयों को मॉनिटर करना फिर भी संभव है। उपमुख्यमंत्री का इनके पास पहुंचना भी संभव है और उनके द्वारा अलग-अलग समय पर जांच करना भी संभव है।

लेकिन इस कार्यप्रणाली को किसी भी बड़े राज्य में लागू करना कठिन हो जाता है। बड़े राज्य के शिक्षा मंत्री के लिए यह संभव नहीं है कि वह तमाम जगह पर जाकर स्वयं जांच कर सकें, विद्यार्थियों से बात कर सके अथवा शिकायतों को गहराई से समझ सके। लगभग यही प्रणाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गुजरात में लागू की गई थी। उनके राज्य स्तर पर हर क्षेत्र में सीधे व्यक्तिगत संपर्क  थे। वे सीधे राज्य के विभिन्न पहलुओं पर जानकारी लेकर कार्य कर सकते थे। उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानकारी रहती थी कि कौन अधिकारी भ्रष्ट है और कौन कार्यकुशल है, लेकिन उनके द्वारा ही केंद्र पर आने पर वह कार्यप्रणाली सफल नहीं हो सकी है। आज उनके द्वारा ऊंचे पदों पर ईमानदार लोगों को अवश्य नियुक्त किया जा रहा है लेकिन व्यक्तिगत मॉनिटर करना अथवा उनके पास तमाम लोगों का पहुंचना न हो पाने के कारण वही कार्यप्रणाली केंद्र सरकार में उतनी प्रभावी नहीं दिख रही है। जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ रहा है। जनता में त्राहि-त्राहि मची है। कन्नौज के एक मित्र ने बताया कि गांव के विद्यालयों में अध्यापक प्रधान को घूस देते हैं और किसी हाई स्कूल पास युवक को अपने स्थान पर बच्चों को पढ़ाने के लिए भेज देते हैं। स्वयं घर बैठते हैं अथवा अपने दूसरे कार्य करते हैं। इस प्रकार के आचरण पर नियंत्रण करने के लिए जरूरी है कि मूल प्रशासनिक व्यवस्था में संस्थागत सुधार किया जाए। यदि किसी ईमानदार जिला शिक्षा अधिकारी ने इस व्यवस्था पर अपने कार्यकाल में रोक लगा भी दी तो उसके स्थानांतरण के बाद पुरानी भ्रष्ट व्यवस्था बहाल हो जाती है। दिल्ली मॉडल की सफलता में राज्य की ऊंची आय की भी भूमिका है। दिल्ली और दूसरे राज्यों में पहला अंतर यह है कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2018-19 में 365 हजार प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष थी। इसकी तुलना में उत्तर प्रदेश की आय मात्र 61 हजार रुपए एवं बिहार की आय 49 हजार रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। अतः यदि दिल्ली की सरकार द्वारा मुफ्त बिजली, पानी उपलब्ध कराना एवं सरकारी विद्यालयों को सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकी तो दूसरे बड़े एवं कमजोर राज्यों द्वारा ये ही सुविधा उपलब्ध कराना कठिन लगता है। यहां यह अंतर भी है कि दिल्ली सरकार के पास पुलिस आदि व्यवस्था का बोझ नहीं होता है, जबकि दूसरे राज्यों को अपने बजट से तमाम पुलिस व्यवस्था का भी भार उठाना पड़ता है। इसलिए दिल्ली का मॉडल आर्थिक दृष्टि से दूसरे राज्यों द्वारा कम ही अपनाया जा सकता है। इन कारणों से दिल्ली के मॉडल को बड़े राज्यों द्वारा अथवा राष्ट्र के स्तर पर लागू करना कठिन होगा। वास्तव में हमे ढांचागत प्रशासनिक सुधार करने होंगे। व्यक्ति के आधार पर प्रशासनिक सुधार तब तक ही चल पाता है जब तक वह व्यक्ति सत्ता पर काबिज रहे। उसके सत्ताच्युत होने के बाद तमाम सुधार टिकते नहीं हैं जिस प्रकार इमरजेंसी के दौरान दो वर्षों के लिए सुधार हुआ, लेकिन वह टिका नहीं। इसलिए बड़े राज्यों की सरकारों को चाहिए कि बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था के कार्यान्वयन में सुधार करें। अधिकारी-कर्मियों की कार्यकुशलता का बाहरी स्वतंत्र कंसल्टेंट से गुप्त आकलन कराया जाए। जासूसों द्वारा अलग आकलन कराया जाए और जनता द्वारा गुप्त आकलन विभिन्न तरीकों से कराया जाए। इस प्रकार के आकलनों से सरकार उन अध्यापकों, प्रधानाचार्यों एवं डाक्टरों को संस्थागत तरीके से चिन्हित कर सकेगी जो कि वास्तव में कार्यकुशल हैं और उन्हें दायित्व देकर पूरी व्यवस्था को सुधारा जा सकता है। इसके साथ-साथ वर्तमान में घर बैठे सरकारी कर्मियों को हर चौराहे, मंडी, मॉल, बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर खड़ा किया जा सकता है कि ये सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराएं। इस प्रकार के सिस्टम को बनाकर ही दिल्ली मॉडल को स्थायी बनाया जा सकता है और कोरोना से लड़ा जा सकता है।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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