परमात्मा का रूप

By: Apr 25th, 2020 12:05 am

बाबा हरदेव

ऐसे ही यदि मनुष्य पत्ता है, तो यह पत्ते की तरह प्रभु की शरण में आ जाए और यदि फूल जैसा हो गया है, तो फूल की भांति अर्पित हो जाए और अगर फल की तरह हो गया है, तो फल की तरह भेंट हो जाए अर्थात जिस किसी भी अवस्था में है,प्रभु को पूरी तरह स्वीकार है। अब जैसा कि वर्णन किया गया है यह चारों अवस्थाएं हैं चेतना की और इन अवस्थाओं की व्याख्या इस प्रकार है। अध्यात्म में जल इस अवस्था को कहते हैं,जिसमें चेतना बिलकुल प्राथमिक अवस्था में है, पत्र इस अवस्था को कहते हैं,जिसमें चेतना ने थोड़ा विकास किया हो, रूप लिया व आकार लिया हो और फूल की अवस्था में चेतना सौंदर्य को भी उपलब्ध हुई हो, इसी प्रकार फल उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें चेतना सौंदर्य को ही उपलब्ध नहीं हुई, बल्कि और चेतना को भी जन्म देने की अवस्था को भी उपलब्ध हो गई हो और फिर यह पूरी तरह विकसित चेतना प्रभु को समर्पित हो गई हो। सच तो यह है कि मनुष्य जहां भी है वहीं से अपने को हृदय से अर्पित कर दे, कल की प्रतीक्षा न करे। जल, पत्र, फूल और फल का यही अर्थ है। यह सब प्रतीक मात्र है, इनको भेंट करने  से कोई हल होता नजर नहीं आता। परंतु लोग आज जल, पत्र, पुष्प, फल को ही अपने प्रभु पूजन के साधन माने बैठे हैं। हमें पूर्ण तौर पता होना चाहिए कि जो जल, पत्र, फूल और फल चढ़ा आए हैं किसी पूजा स्थल पर,यह प्रभु को नहीं मिल सकते जब तक कि चेतना रूपी जल,पत्र फूल और फल न चढ़ाया जाए अर्थात हम अपने अहंकार को त्याग कर अपने आप को प्रभु के प्रति समर्पित  न कर दें और प्रभु से इकमिक न हो जाएं और यह अवस्था पूर्ण सतगुरु की कृपा द्वारा जब तक नहीं आती तब तक सही अर्थों में प्रभु पूजन नहीं हो सकता। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि जब तक कोई परमात्मा से इकमिक होता है, तो यह परमात्मा का एक अंश ही नहीं होता, बल्कि यह परमात्मा का रूप ही हो जाता है। जैसे एक नदी सागर में गिर जाती है तो यह नदी सागर का ही रूप धारण कर लेती है। संपूर्ण अवतार बाणी में भी बाबा अवतार सिंह जी ने फरमाया है।

जोत अमर जोती बिच मिल के अमर जोत बन जादी ए।

कहे अवतार बूंद मिल सागर, सागर ही अखवांदी ए।।

अंत में कहना उचित होगा कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में आंतरिक रूपांतरण का इन प्रतीकों के माध्यम से इतना गहरा आश्वासन दिया है और फरमाया है कि मनुष्य को बाहर को बदलने की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए अर्थात जैसा बाहर से  है,मनुष्य वैसा ही रहे, परंतु भीतर के परिर्वतन को ही अध्यात्म में महत्त्वपूर्ण माना गया है। सब में मनुष्य के भीतर का केंद्र या तो अहंकार हो सकता है या फिर परमात्मा। अतः जिसका भी परमात्मा केंद्र नहीं होता वह बिना केंद्र के काम नहीं कर सकते अतः इनको बाहर के कर्मकांडों में उलझ कर अहंकार को केंद्र बना कर चलना पड़ता है और उनका अहंकार जो है, यह झूठा और अस्थायी केंद्र है, क्योंकि केवल परमात्मा ही सच्चा और स्थायी रहने वाला होता है। जो मनुष्य समय के पूर्ण सतगुरु द्वारा प्रभु को ही अपना केंद्र बना लेता है, उसे फिर परिपूरक केंद्र की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। परिपूरक केंद्र फिर विदा हो जाता है, फिर बाहरी औपचारिकताएं महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाती। अतः प्रभु पूजन किसी भी प्रकार से बाहरी कर्मकांड का मोहताज नहीं है। बस आंतरिक अनिवार्य है।


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