भक्त का प्रेम

By: Apr 11th, 2020 12:05 am

बाबा हरदेव

गतांक से आगे…

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्तया प्रयच्छति।

तदहं भक्तयुपहृतमश्रमि प्रयतात्मनः।। (श्रीमद्भगवदगीता)

हे अर्जुन! मेरे पूजन में यह सुगमता भी है कि पत्र, पुष्प और फल और जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ यह पत्र,पुष्पादिक मैं मग्न रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित स्वीकार करता हूं। भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन ऊपर से देखने में तो बहुत सीधा सा मालूम होता है। पत्र (पेड़-पौधों के पत्ते) पुष्प, जल, फल आदि पूजन सामग्री को हम भली प्रकार से  जानते हैं, क्योंकि इन्हें भक्तों द्वारा आए दिन पूजा स्थलों में प्रभु पूजा में भेंट किया जा रहा है। परंतु श्रीकृष्ण पत्र, पुष्प, फल और जल कहकर बहुत गहरे प्रतीकों का प्रयोग कर रहे हैं और ये सभी प्रतीक बहुत रहस्यपूर्ण हैं। वास्तव में पत्र, पुष्प,फल और जल आदि व्यक्तित्व के विकास की चार अवस्थाएं हैं। भगवान श्रीकृष्ण फरमा रहे हैं कि मनुष्य जैसा भी है,चेतना की जैसी भी अवस्था में है अर्थात यदि अभी तक वह जल की अवस्था में ही है,जो कि बिलकुल प्राथमिक अवस्था मानी गई है,तो वह जल ही भेंट कर दे और यदि जल से वह पत्र की अवस्था तक पहुंच चुका है परंतु अभी फूल की अवस्था तक नहीं पहुंचा है, तो भी कोई चिंता नहीं है, वह पत्र को ही चढ़ा दे। यदि मनुष्य पत्र से आगे की अवस्था में पहुंच गया है और फूल बन गया है, तो फल की चिंता न करे और फल चढ़ा दे और जब वह फल की अर्थात (विकास की चरम सीमा तक) पहुंच गया है तो फल चढ़ा दे। भक्त द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पित सभी अवस्थाएं प्रभु को स्वीकार हैं। भगवान श्रीकृष्ण फरमा रहे हैं कि मनुष्य का व्यक्तित्व चाहे, पत्र, पुष्प, फल और फूल जैसा हो अर्थात मनुष्य जैसी भी अवस्था में हो वह अपने आप को उसी अवस्था में प्रभु के प्रति समर्पित हो जाए। संपूर्ण अवतार बाणी भी फरमा रही है।

अंदरों बाहरों इक्को होईए तां एह रब परवान करे।

कहे अवतार एह भोले भाअ ही बंदे दा कल्याण करे।

प्रायःलोग कहते सुने जाते हैं कि अभी तो कुछ है ही नहीं हमारे पास तो अभी प्रभु के पूजन में चढ़ाएं क्या? ऐसी बातें हमारी चतुराई के कारण हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होती रहती है। अन्यथा हम भली प्रकार से जानते है कि वह दिन कभी नहीं आएगा जब मनुष्य पूरी तरह से संतुष्ट हो जाए और यह अनुभव कर सके कि प्रभु को चढ़ाने योग्य इसके पास उचित साधन हैं। इस कथन के अनुसार मनुष्य की जल की अवस्था का अर्थ है कि चेतना का अभी किसी तरह का विकास नहीं हुआ और जब वह अपनी उसी अवस्था में अपने आप को प्रभु के प्रति समर्पित कर देता है तो प्रभु इसे उस अवस्था में भी स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि प्रश्न यह नहीं है कि क्या भेंट किया, प्रश्न यह है कि बस अर्पित किया गया है।


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