विवेक चूड़ामणि

By: Apr 4th, 2020 12:05 am

गतांक से आगे…

नित्याद्वयाखंडचिदेकरूपो बुद्धयादिसाक्षी सदाद्विलक्षणः।

अहंपदप्रत्ययलक्षितार्थः प्रत्यक्सदानंदघनःपरमात्मा।।

जो अहम पद की प्रतीती से लक्षित होता है,वह नित्य आनंदघन परमात्मा तो सदा ही अद्वितीय,अखंड,चैतन्यस्वरूप,बुद्धि आदि का साक्षी, सत-असत से भिन्न और प्रत्यक(अंतर्तम) है।

इत्थं विपश्चित्सदसद्विभज्य निश्चित्य तत्त्वं निजबोधदृष्टया।

ज्ञात्वा स्वमात्मानखंडबोधं तेभ्यो विमुक्तः स्वयमेव शाम्यति।।

विद्वान पुरुष इस प्रकार सत और असत का विभाग करके अपनी ज्ञान दृष्टि से तत्त्व का निश्चय करके और अखंड बोधस्वरूप आत्मा को जानकर असतपदार्थों से मुक्त होकर स्वयं ही शांत हो जाता है। यह (शांति) आत्मतत्व की उपलब्धि का सहज फल  है।

समाधि निरूपण

अज्ञानहृदयग्रंथेर्निः शेषविलयस्तदा।

समाधिनाविकल्पेन यदाद्वैतात्मदर्शनम।।

अज्ञानरूप हृदय की ग्रंथि का सर्वथा नाश तो तभी होता है जब निर्विकल्प समाधि द्वारा अद्वैत आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया जाता है। 

त्वमहमिदमितीयं कल्पना बुद्धिदोषात  प्रभवति परमात्मन्यद्वये निर्विशेषे।

प्रविलसति समाधावस्य सर्वो विकल्पो विलयनमुप गच्छे द्वस्तुतत्त्वावधृत्या।।

अद्वितीय और निर्विशेष परमात्मा में बुद्धि के दोष से तू, मैं और यह ऐसी कल्पना होती है और वही संपूर्ण विकल्प समाधि में विघ्नरूप से स्फुरित होता है,किंतु तत्त्व वस्तु का यथावत ग्रहण होने से वह सब लीन हो जाता है।

शांतो दांतः परमुपरतः क्षांतियुक्तः समाधिं कुर्वन्नित्यं कलयति यतिः स्वस्य सर्वात्मभावम। 

तेनाविद्यातिमिर जनितांसाधु दग्ध्वा विकल्पान ब्रह्मावृत्या निवसति सुखं निष्क्रियो निर्विकल्पः।।

योगी पुरुष चित्त की शांति,इंद्रिय निग्रह, विषयों से उपरित और क्षमा से युक्त होकर समाधि का निरंतर अभ्यास करता हुआ अपने सर्वात्म भाव का अनुभव करता है तथा उसके द्वारा अविद्यारूप अंधकार से उत्पन्न हुए समस्त विकल्पों का भलीभांति ध्वंस करके निष्क्रिय और निर्विकल्प होकर आनंदपूर्वक ब्रह्माकार वृत्ति से मुक्त रहता है।

समाहिता ये प्रविलाप्य बाह्मं श्रोत्रादि चेतः स्वमहं चिदात्मनि।

त एव मुक्ता भवपाशबंधैर्नान्ये तु पारोक्ष्यकथाभिधायिनः।।

जो लोग श्रोत्रादि इंद्रिय वर्ग तथा चित्त और अहंकार इन बाह्य वस्तुओं को आत्मा में लीन करके समाधि में स्थित होते हैं, वे ही संसार बंधन से मुक्त हैं, जो केवल परोक्ष ब्रह्मज्ञान की बातें बनाते रहते हैं,वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।

उपधिभेदत्स्वयमेव भिद्यते चोपध्यपोहे स्वयमेव केवलः।

तस्मादुपाधेर्विलयाय विद्वान वसेत्सदाकल्प समाधिनिष्ठया।।

उपाधि के भेद से ही आत्मा में भेद की प्रतीती होती है और उपाधि का लय हो जाने पर वह केवल स्वयं ही रह जाता है,इसलिए उपाधि का लय करने के लिए विचारवान पुरुष सदा निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर रहे। 

सति सक्तो नरो याति सदभाव ह्योकनिष्ठया।

कीटको भ्रमरं ध्यायन्भ्रमरत्वाय कल्पते।।

एक निष्ठा के फलस्वरूप एकाग्रचित से निरंतर सत्स्वरूप ब्रह्म में स्थित रहने से मनुष्य ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है,जैसे भ्रमर का भयपूर्वक ध्यान करते-करते एक सामान्य कीट भ्रमर स्वरूप ही हो जाना है।        


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App