सांप्रदायिक सौहार्द को झटका

By: Apr 10th, 2020 12:07 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

दिल्ली में हाल की घटनाओं ने, जहां मुस्लिमों ने पहले शाहीन बाग में नागरिकता कानून के खिलाफ  विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया और बाद में निजामुद्दीन मस्जिद में इकट्ठा होकर कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई को कमजोर किया, हिंदू-मुस्लिम एकता में सबसे बड़ी दरार पैदा की, एक ऐसी दरार जो विभाजन के बाद पहली बार देखी गई…

जवाहरलाल नेहरू की कई असफलताओं के लिए आलोचना की जा सकती है, लेकिन वह उच्च क्षमता के बुद्धिजीवी थे जिन्होंने समकालीन मजबूरियों के साथ भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी समझ से समझौता किया। उन्होंने ठीक ही कहा था, ‘भारत हिंदू चेतना की भूमि है, जो हमेशा के लिए हिंदुओं का प्राकृतिक घर होगा’ (न्यूयॉर्क टाइम्स के अर्नोल्ड माइकल्स के साक्षात्कार के मुताबिक)। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उन्होंने ब्रिटिश तात्कालिकता की आवश्यकता के लिए इस समझ से समझौता किया। भारत का संविधान खुला छोड़ दिया गया था, जबकि श्रीमती गांधी, जो कम ही बुद्धिजीवी थी, ने इसे बाद में धर्मनिरपेक्ष शब्द डालकर अपनी चुनावी जरूरतों से भर दिया था।

दिल्ली में हाल की घटनाओं ने, जहां मुस्लिमों ने पहले शाहीन बाग में नागरिकता कानून के खिलाफ  विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया और बाद में निजामुद्दीन मस्जिद में इकट्ठा होकर कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई को कमजोर किया, हिंदू-मुस्लिम एकता में सबसे बड़ी दरार पैदा की, एक ऐसी दरार जो विभाजन के बाद पहली बार देखी गई। त्रासदी यह है कि मुसलमान स्वयं इस दरार का कारण बने। नागरिकता कानून संसद द्वारा विधिवत पारित किया गया था और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों द्वारा अनुमोदित किया गया था तथा न्यायालय के मध्यस्थता के प्रयासों के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने घृणा का वातावरण बनाना जारी रखा। महिलाएं एक ऐसी सार्वजनिक सड़क को रोके बैठी थीं, जिससे अन्य लोगों की मुक्त आवाजाही में बाधा पैदा हुई। वे इतने अडिग थे कि उन्होंने जरूरी वाहनों को भी गुजरने की अनुमति नहीं दी।

सवाल यह उठता है कि जब कानून पारित किया गया था तो वे सड़क को अवरुद्ध क्यों कर रहे थे, जबकि यह एक कानूनी कदम है और संविधान के प्रावधान के अनुसार है। किसी ने इसके लिए चिंता नहीं की। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के वार्ताकार भी उन्हें सड़क को खाली कराने के लिए मनाने में असमर्थ रहे। कोर्ट की भूमिका और मुस्लिम प्रदर्शनकारियों द्वारा की गई कार्रवाई की अवैधता के बारे में कई सवाल उठे, क्योंकि मुस्लिम प्रदर्शनकारी कानून और उसके निहितार्थ के बारे में पूरी तरह जागरूक भी नहीं थे। अंत में इसने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा को भी शामिल कर लिया। सौभाग्य से इस हिंसा को फैलने से रोक दिया गया। लेकिन कई गंभीर उल्लंघन हुए जो कालीन के नीचे छिपाकर रखे नहीं जा सकते थे। मिसाल के तौर पर एक इंटेलीजेंस आफिसर की हत्या कर दी गई जिसका शव नाली की पाइप के नीचे पड़ा मिला, इससे तूफान उठ खड़ा हुआ। ड्यूटी पर मौजूद एक हिंदू अधिकारी को उसके शरीर पर कई घावों के साथ बेरहमी से मार दिया गया और इससे यातना के संकेत भी मिले। दंगे भड़क उठे, लेकिन जल्द ही काबू में कर लिए गए। यह असहनीय स्थिति थी और आरोप के तहत पुलिस को दोषियों को गिरफ्तार करना था।

हिंसक झगड़े के बिना रहने वाले दो समुदायों को इस तरह के क्लेश के लिए प्रेरित किया गया जब उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ  घृणा के साथ काम करना पड़ा। हिंदू-मुस्लिम एकता में एक और गंभीर खलल आम आदमी पार्टी के एक नेता का दुर्व्यवहार था, जिसका घर हिंसक आपराधिक गतिविधियों और हथियारों के भंडार गृह का केंद्र पाया गया। बाद में वह फरार हो गया, किंतु अंततः गिरफ्तार कर लिया गया। इन घटनाओं ने दो समुदायों के बीच दरार पैदा करना शुरू कर दिया, हालांकि दोनों पक्षों के कई मध्यस्थों ने लगी आग बुझाने के लिए शांति लाने की कोशिश भी की, लेकिन तनाव अभी भी बना हुआ है। यह घटनाक्रम अभी बड़ी मुश्किल से शांत हुआ ही था कि एक और घटना दिल्ली के निजामुद्दीन में मुसलमानों की बड़ी भीड़ के रूप में सामने आई, जिसने कोरोना वायरस के खिलाफ हमारी लड़ाई को कुंद करके रख दिया। यह मस्जिद सूफी संत की समाधि के लिए जानी जाती है।

यहां मामला सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित था। कोरोना वायरस, जो भारत और दुनिया को तबाह कर रहा था, के खिलाफ लड़ाई में पूरा भारत योगदान कर रहा था। महामारी पर नियंत्रण के लिए तीन फीट की सामाजिक दूरी की आवश्यकता थी। जब जमातियों की हजारों की भीड़ ने वहां से हटने से इनकार कर दिया, तो शाहीनबाग के विपरीत पुलिस ने मौके की नजाकत को समझते हुए उन्हें वहां से जबरन हटा दिया। दोनों मामलों में सरोकार वैधानिक और राष्ट्रीय थे, एक में राष्ट्रीय कानूनी संरक्षण था, जबकि दूसरे में सार्वजनिक स्वास्थ्य था। शाहीन बाग के मामले में जहां विरोध कानून में एक वैध बदलाव के खिलाफ  था, वहीं धार्मिक कट्टरता के कारण निजामुद्दीन का मामला पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए खतरा था, लेकिन ये मामले हिंदू-मुस्लिम संघर्ष में तबदील हो गए।

मुस्लिम वर्ग यहां आधारहीन बातों को लेकर अपनी बात पर अड़ा था। ऐतिहासिक रूप से ये दोनों मामले भारतीय संविधान पर बड़े हमले का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही ये जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों की इस इच्छा के भी विरुद्ध हैं कि विभाजन के समय दिए गए हालात में दोनों समुदायों को एक साथ रहना है। जैसा कि सरदार पटेल ने बंटवारे के समय कहा था कि जो लोग पाकिस्तान नहीं जाना चाहते हैं, हम उन्हें वहीं रहने देंगे। यह अफसोस की बात है कि धार्मिक तराजू के संतुलन को बिगाड़ने के लिए मुसलमान खुद को हानि पहुंचाने की तरह जिम्मेवार हैं। भारत हिंदू चेतना और संस्कृति वाला एक राष्ट्र है। इसने मानवता में सद्भाव के लिए अन्य धर्मों को भी स्वीकार किया है। यह समझौता तब तक मुश्किल बना रहेगा जब तक कि अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों के प्राधान्य को स्वीकार नहीं करते हैं और दोनों सौहार्दपूर्वक साथ रहने के लिए सहमत नहीं होते हैं।

स्थिति गंभीर और कठिन है। उसे न केवल सत्ता में सरकार से, बल्कि विपक्ष से भी दूरदर्शिता की जरूरत है, जो इस समय नेतृत्वविहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। हमें उम्मीद है कि स्थितियां बदल जाएंगी और कांग्रेस इतिहास और राष्ट्रीय लोकाचार के प्रति अपनी जागरूकता दर्शाते हुए एक महत्त्वपूर्ण विपक्ष के रूप में उभरेगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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