हिमाचली गुज्जर को शिक्षा जरूरी

By: May 2nd, 2020 12:06 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

यदि गुज्जर समाज के बच्चे भी पढ़ने लगे तो एसटीएम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी। अभी सैयद और शेखों के बच्चे ही आईएएस को झपटते हैं। लेकिन यदि भारतीय मुसलमानों के बच्चे भी पढ़ गए, हिमाचल के गुज्जर भी पढ़ गए तो वे भी हिस्सेदार हो जाएंगे। इसलिए तबलीगी जमात गुज्जरों के बच्चों के लिए हिमाचल में मदरसे खोल रही है ताकि उनको दीनी शिक्षा दी जाए। एसटीएम के अपने बच्चे मदरसों में नहीं जाते। उनके बच्चे कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं। दीनी शिक्षा क्या केवल गुज्जरों के बच्चों को चाहिए, ताकि वे जिंदगी भर भेड़-बकरियां चराते रहें और सैयदों-शेखों के बच्चे आराम से सत्ता की कुर्सी संभालें…

यह रहस्य अब किसी से छिपा नहीं है कि तबलीगी जमात के उन लोगों ने जो दिल्ली के मरकज़ से निकल कर हिमाचल के विभिन्न स्थानों पर पहुंचे, कोरोना के संक्रमण में सर्वाधिक भूमिका  निभाई। लेकिन हैरानी की बात यह है कि ये जमाती दिल्ली के मरकज़ से निकल कर अपने-अपने प्रदेश में न जाकर हिमाचल प्रदेश के दूरदराज़ के इलाक़ों में क्या करने पहुंचे? इतना ही नहीं, सरकार के बार-बार आग्रह करने के बावजूद उन्होंने छिपना बेहतर क्यों समझा? इसको समझने के लिए तबलीगी जमात की संरचना की शिनाख्त करनी होगी। भारत में अंग्रेज़ी शासन काल से ही अलीगढ़ी जमात, बहाबी जमात और तबलीगी जमात समेत कुछ अन्य समूह भारतीय मूल के मुसलमानों में काम कर रहे हैं। लेकिन इन जमातों की बागडोर भारतीय मुसलमानों के पास न होकर एसटीएम मूल के मुसलमानों के हाथ में है। एसटीएम मूल यानी सैयद, तुर्क और मंगोल मुग़ल मूल के मुसलमान। ये मुसलमान विदेशी आक्रमणकारियों के साथ भारत आए थे। एसटीएम मूल के मुसलमानों को एक कष्ट है। उनको लगता है कि भारत के बहुत से लोग सल्तनत काल व मुगल काल में मतांतरित होकर मुसलमान तो हो गए, लेकिन शताब्दियों बाद भी उन्होंने किसी सीमा तक अपने पूर्वजों की परंपरा को नहीं छोड़ा है। उन्होंने भगवान की पूजा का तरीक़ा तो बदल लिया, लेकिन भारत की मिट्टी में अपनी जड़ों को सूखने नहीं दिया। एसटीएम को लगता है कि अभी भारतीय मुसलमानों का पूरी तरह अरबीकरण नहीं हुआ है। मतांतरण की प्रक्रिया शताब्दियों बाद भी अधूरी है। उसे पूरी करने के लिए एसटीएम भारत में अनेक जमातें चलाता रहता है। हिमाचल प्रदेश का गुज्जर समाज उसके निशाने पर है। गुज्जर समाज ने न तो अपनी भाषा छोड़ी, न ही अपने पूर्वजों की परंपरा। वह अल्लाह के आगे भी सिजदा करता है और अपनी कुलदेवी की भी पूजा करता है।

वह अपने पूर्वज गोगा जी चौहान की यशगाथा भी गर्व से गाता है। अनेक स्थानों पर अपने जठेरों की भी पूजा करता है। गुज्जर समाज की शौर्य परंपरा के वाहक राजा मिहिरभोज का नाम भी अभिमान से लेता है। उसका कारण है। यही गुज्जर समाज था जिसने भारत पर हमला करने वाले महमूद गजनवी की सेना का मुक़ाबला भारत और आज के अफगानिस्तान की सीमा पर किया था। इन्हीं गुज्जरों ने तुर्कों की उस इस्लामी सेना को छटी का दूध याद दिला दिया था। जिस समय मध्य एशिया के ये तुर्क हिंदुस्तान पर हमले कर रहे थे, उस समय अफगानिस्तान में गुज्जर सम्राट जयपाल खटाना का राज्य था। इस  गुज्जर वंश को हराने में तुर्कों को दशकों लगे। गोगा जी चौहान ने जो पराक्रमी गुज्जर था, राजस्थान में तुर्कों मंगोलों को दिन में ही तारे दिखा दिए थे। यही कारण है कि उसका नाम गुज्जरों की लोककथाओं में समा गया। लेकिन इन वीर गुज्जरों का दुर्भाग्य था कि एसटीएम मूल के विदेशी आक्रमणकारी जीत गए और उनको टक्कर देने वाले गुज्जर हार गए। यह दुख गुज्जर समाज के प्रख्यात इतिहासकार राणा हसन अली को भी था। वे पाकिस्तान वाले हिस्से में रह रहे मुसलमानों के हितों के लिए अंतिम क्षण तक लड़ते रहे। यही कारण था कि वहां के एसटीएम मूल के मुसलमानों ने उनकी पुस्तक गुज्जरों का इतिहास पर प्रतिबंध लगा दिया था। राणा हसन अली को इस बात का दुख रहा कि हम क्षत्रिय वंश के लोग हैं। एसटीएम हमलावरों से भारत माता की रक्षा करने के लिए लड़ते रहे। हम पराजित हो गए। नए शासक यही अरब, तुर्क और मुग़ल मंगोल बने । इसलिए सबसे पहले हमीर उनके निशाने पर आए। हमें उनके अत्याचारों से बचने के लिए भाग कर हिमालय के पहाड़ों में आना पड़ा। लेकिन दुश्मन ने हमारा पीछा नहीं छोड़ा। उसने हमारा मज़हब बदल दिया। इतना ही नहीं, हमें प्रताडि़त करने के लिए हमें समाज रचना में पददलित किया। हिमाचल का गुज्जर समाज उसी विशाल गुज्जर समाज का हिस्सा है जो गुजरात से लेकर, राजस्थान से लेकर पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर तक फैला हुआ है। गुज्जर समाज का जो हिस्सा मतांतरित हो गया, उसने केवल परमात्मा की पूजा का तरीका बदला है। पहले वह उस सर्वशक्तिमान को परमात्मा कहता था, अब उसने उसे अल्लाह कहना शुरू कर दिया है। लेकिन उसने अपनी परंपराएं नहीं बदलीं। बहुतों ने नाम भी नहीं बदले।

गुज्जर समाज के जिस मोहम्मद दिलशान ने आत्महत्या कर ली, मीडिया की रिपोर्टों के हिसाब से उसकी मां का नाम उषा देवी व पत्नी का नाम अमरदेव कौर था। तबलीगी जमात को हिमाचल के इसी गुज्जर समाज का अरबीकरण करना है। उन्हें अपने शौर्यपूर्ण इतिहास से तोड़कर अरब और तुर्क इतिहास से जोड़ना है। तबलीगी जमात चाहती है कि गुज्जरों ने जिन अरबों और तुर्कों को दिन में तारे दिखा दिए, अब उन्हीं अत्याचारी तुर्कों व मुग़लों को गुज्जर अपने नायक मान लें। गुज्जर गोगा वीर चौहान की, जयपाल खटाना की, राजा मिहिरभोज की विरुदावली गाने की बजाय महमूद गजनवी और औरंगज़ेब की विरुदावली गाना शुरू कर दे। यही कारण है कि तबलीगी जमात के एसटीएम पिछले कई साल से दिल्ली की मरीज़ों से निकल कर अपने-अपने घरों को न जाकर, हिमाचल के गुज्जरों की ओर रुख़ कर रहे हैं। हिमाचल का गुज्जर कई कारणों से पिछड़ा हुआ है। उसका एक बड़ा कारण शिक्षा न होना भी है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से गुज्जर समाज भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने लगा है। उससे गुज्जर युवा भी सरकारी नौकरियों में आने लगे हैं। लेकिन उससे एसटीएम की चिंता बढ़ रही है। यदि गुज्जर समाज के बच्चे भी पढ़ने लगे तो एसटीएम की उपयोगिता समाप्त हो जाएगी। अभी सैयद और शेखों के बच्चे ही आईएएस को झपटते हैं। लेकिन यदि भारतीय मुसलमानों के बच्चे भी पढ़ गए, हिमाचल के गुज्जर भी पढ़ गए तो वे भी हिस्सेदार हो जाएंगे। इसलिए तबलीगी जमात गुज्जरों के बच्चों के लिए हिमाचल में मदरसे खोल रही है ताकि उनको दीनी शिक्षा दी जाए। एसटीएम के अपने बच्चे मदरसों में नहीं जाते। उनके बच्चे कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं। दीनी शिक्षा क्या केवल गुज्जरों के बच्चों को चाहिए, ताकि वे जि़ंदगी भर भेड़-बकरियां चराते रहें और सैयदों-शेखों के बच्चे आराम से सत्ता की कुर्सी संभालें।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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