चीन का कायराना अंदाज, कुलदीप चंद अग्निहोत्री वरिष्ठ स्तंभकार

By: Jun 20th, 2020 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

चीन का कहना है कि अब भारत-चीन अपनी सीमा का निर्धारण आपसी बातचीत से करेंगे। बातचीत कैसे होगी, विवाद के मामले में उसे कैसे सुलझाया जाएगा, इसको लेकर दोनों पक्षों में कई समझौते हो चुके हैं। उन्हीं में से एक समझौता है कि दोनों पक्षों में कोई भी गोली नहीं चलाएगा। लेकिन चीन ने 1962 के बाद अपना सारा ध्यान भारतीय  सीमा के साथ तिब्बत में सैनिक दृष्टि से अपनी आधारभूत संरचना को मजबूत करने में लगा दिया, क्योंकि वह निश्चिंत था कि सीमा पर भारत की ओर से फिलहाल कोई खतरा नहीं है। सीमा पर इस प्रकार की शांति के बीच चीन ने अपनी सामरिक स्थिति काफी मजबूत कर ली। बीच-बीच में वह एलएसी को भेदकर भारतीय सीमा में घुस आता था…

पिछले कुछ दिनों से लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना आमने-सामने है। 15 जून को दोनों सेनाओं की आपस में भिड़ंत भी हो गई थी जिसमें भारत के बीस सैनिक शहीद हो गए थे, जिनमें वहां के कमांडिंग आफिसर संतोष बाबू भी थे। ऐसा कहा जा रहा है कि चीनी सेना की इससे कहीं ज्यादा क्षति हुई है। इस घटना को 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की निरंतरता में ही समझना चाहिए। इस विवाद की पृष्ठभूमि को जानना बहुत जरूरी है। 1914 में भारत और तिब्बत के बीच शिमला में एक संधि हुई थी। इस संधि में दोनों देशों ने आपसी सहमति से अपनी सीमा रेखा निर्धारित की थी। उस समय भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन था और तिब्बत स्वतंत्र देश था। भारत की ब्रिटिश सरकार  की ओर से इस शिमला वार्ता में हेनरी मैकमहोन शामिल थे। इसलिए भारत-तिब्बत सीमा रेखा को ही मैकमहोन लाइन कहा जाने लगा। दरअसल शिमला में यह वार्ता त्रिपक्षीय थी। इसमें चीन भी शामिल था। क्योंकि मंशा यह थी कि तिब्बत और चीन की सीमा रेखा भी निर्धारित हो सके ताकि चीन और तिब्बत का तनाव भी समाप्त हो सके। चीन को मांचू शासकों की गुलामी  से आजाद हुए अभी दो साल ही हुए थे। यह अलग बात है कि नए हान शासकों ने मंचूरिया के मांचुओं से आजाद होने के बाद मंचूरिया पर भी कब्जा कर लिया था। नए चीनी शासकों की ओर से शिमला वार्ता में इवान चेन को भेजा गया। इवान चेन तो तिब्बत-चीन की सीमा रेखा पर सहमत हो गए थे, लेकिन जब उन्होंने यह सहमति रेटिफिकेशन के लिए चीन सरकार को भेजी तो उसने इसे अस्वीकार कर दिया। चीन के निकल जाने से शिमला की त्रिपक्षीय वार्ता द्विपक्षीय रह गई और भारत-तिब्बत में सीमा रेखा को लेकर समझौता हो गया जिसे उस समय की तिब्बत सरकार ने स्वीकार कर लिया। 1947 में अंग्रेज हिंदुस्तान से रुखसत हो गए और उधर चीन के भीतर कम्युनिस्टों ने माओ के नेतृत्व में वहां की च्यांग काई शेक की सरकार के खिलाफ गृहयुद्ध छेड़ रखा था।

1949 में इस गृहयुद्ध में चीन के बहुत बड़े भूभाग पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया। च्यांग काई सरकार का शासन केवल ताईवान में सीमित हो गया। माओ ने अपने कब्जे वाले हिस्से का नाम पीपुल्ज रिपब्लिक आफ  चायना रखा। लेकिन माओ के चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। तिब्बत ने भारत सरकार से सहायता की प्रार्थना की, लेकिन भारत ने सहायता नहीं की। नेहरू को लगता था कि चीन से दोस्ती करना भारत के हित में होगा। लेकिन सरदार पटेल ऐसा नहीं मानते थे। उनको लगता था कि चीन, तिब्बत पर कब्जा करने के बाद भारत पर आंख गढ़ा देगा। परंतु नेहरू अपने आपको अंतरराष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ मानते थे। अंततः वही हुआ जिसका सरदार पटेल को खतरा था। तिब्बत पर कब्जे के बाद भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सीमा बन गई थी। लेकिन अब पटेल मौजूद नहीं थे। चीन ने भारत-तिब्बत के बीच 3488 किलोमीटर की सीमा रेखा मैकमोहन लाइन को मानने से इंकार कर दिया और अरुणाचल प्रदेश व लद्दाख के बहुत से हिस्से पर अपना दावा ठोकना शुरू कर दिया। अब नेहरू भला चीन की यह मांग कैसे स्वीकार कर सकते थे? देश का दुर्भाग्य था कि नेहरू 1947 से लेकर 1962 तक देश व सेना को चीन के खिलाफ तैयार करने की बजाय हिंदी-चीनी भाई-भाई के भ्रम जाल में फंसाते रहे। चीन ने 1962 में उन क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए, जिन्हें वह अपना बता रहा था, भारत पर हमला कर दिया। उस इतिहास को दोहराने की जरूरत नहीं है। चीन लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में काफी भीतर तक घुस आया था। उसने स्वयं ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, वह जीते हुए क्षेत्र खाली कर पीछे भी हट गया। यह सब दुनिया की वाहवाही बटोरने के लिए था। यदि वह भारतीय क्षेत्रों में सौ किलोमीटर अंदर घुसा तो अस्सी किलोमीटर पीछे हट गया और बीस किलोमीटर पर कब्जा जमाए रखा। इस प्रकार उसने  पूरी भारत-तिब्बत सीमा के स्थान पर एक नई सीमा रेखा बना दी जिसे आजकल लाइन आफ एक्चुअल कंट्रोल या वास्तविक नियंत्रण रेखा कहा जाता है। चीन का कहना है कि अब भारत-चीन अपनी सीमा का निर्धारण आपसी बातचीत से करेंगे। बातचीत कैसे होगी, विवाद के मामले में उसे कैसे सुलझाया जाएगा, इसको लेकर दोनों पक्षों में कई समझौते हो चुके हैं।

उन्हीं में से एक समझौता है कि दोनों पक्षों में कोई भी गोली नहीं चलाएगा। लेकिन चीन ने 1962 के बाद अपना सारा ध्यान भारतीय  सीमा के साथ तिब्बत में सैनिक दृष्टि से अपनी आधारभूत संरचना को मजबूत करने में लगा दिया, क्योंकि वह निश्चिंत था कि सीमा पर भारत की ओर से फिलहाल कोई खतरा नहीं है। सीमा पर इस प्रकार की शांति के बीच चीन ने अपनी सामरिक स्थिति काफी मजबूत कर ली। बीच-बीच में वह एलएसी को भेदकर भारतीय सीमा में घुस आता था।

बातचीत के बाद कभी पीछे हट जाता था और कभी वहां बैठ जाता था। लेकिन हम इसी से प्रसन्न थे कि सीमा पर एक भी गोली नहीं चली और मामला शांति से निपट जाता है। बाकी जहां तक चीन द्वारा भारतीय भूमि पर कब्जा करते रहने की बात थी, उसके बारे में नेहरू बता ही गए थे कि वहां घास का तिनका तक नहीं उगता। लेकिन अब गलवान घाटी में भारत सरकार ने उस जमीन की रक्षा करने का निर्णय भी ले लिया है, जिस पर घास का तिनका तक नहीं उगता। इसलिए 1967 की नाथुला घटना के बाद चीन के लिए भी यह नया अनुभव है और भारत में उन लोगों के लिए भी जो बार-बार चिल्ला रहे हैं कि गलवान में क्या हो रहा है? लेकिन भारत की सेना अच्छी तरह जानती है कि गलवान में क्या हो रहा है और भारत के लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि गलवान में क्या हो रहा है। अब तक तो चीन भी समझ गया है कि गलवान में क्या हो रहा है। अलबत्ता कांग्रेस की इतालवी लॉबी और कम्युनिस्टों को यह सब समझने में समय जरूर लगेगा।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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