मनुष्य का अहंकार

By: Jun 10th, 2020 11:00 am

बाबा हरदेव

मनुष्य का यह भाव कि मैं हूं, इसका अहंकार कि मैं हूं, मुझे यह करना है और मुझे वो करना है, इसका अर्थ है कि जिस व्यक्ति का मैं जितना बलवान होगा उतना ही उस व्यक्ति का दूसरे से संयुक्त हो जाने का सामर्थ्य कम हो जाता है, क्योंकि मैं एक दीवार है, एक घोषणा है कि मैं हूं। मानो मैं की घोषणा कह देती है कि तुम, तुम हो और मैं, मैं हूं। दोनों के बीच दूरी है। फिर मनुष्य जितना भी प्रेम करे, दूसरे को बेशक अपनी छाती से भी लगा ले फिर भी यह दो है। छातियां कितनी ही निकट आ जाएं फिर भी बीच में दूरी है। ‘मैं’ मैं हूं, तुम, तुम हो के भाव निकटतम होने के अनुभव को कभी मन में नहीं ला पाते। शरीर चाहे एक दूसरे के पास बैठ भी जाते हैं। जब तक हृदय में मैं का भाव बैठा हुआ है तब तक दूसरे का भाव नष्ट नहीं होता। महात्मा ठीक कहते हैं कि वह जो दूसरे का भाव हमारे मन में बैठ जाता है, वही नरक का प्रतीक है। अब प्रश्न यह पैदा होता है कि यह दूसरा अन्य क्यों है? इसका उत्तर यह है कि दूसरा  ‘दूसरा’ इसलिए है कि मैं, मैं हूं और जब तक मैं हूं का भाव हमारे मन को घेरे रहता है तब तक संसार में प्रत्येक वस्तु दूसरी है, भिन्न है और जब तक भिन्नता है तब तक प्रेम का अनुभव नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रेम है एकात्म का अनुभव, प्रेम है इस बात का अनुभव कि गिर दुई रूपी दीवार और दो ऊर्जाएं मिल गईं और संयुक्त हो गईं। मानो एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच की सारी दीवारें गिर गईं और प्राण संयुक्त हो गए, एक हो गए। अतः अब वही अनुभव एक  व्यक्ति और समस्त के बीच फलित होता है, तो इस अनुभव को महात्मा कहते हैं परमात्मा। अतः प्रेम जैसा वर्णन किया गया है कि जब ऐसा अनुभव मनुष्य और समस्त के बीच घटित हो जाए कि मनुष्य विलीन हो जाए, माने समस्त और मनुष्य एक हो जाएं, तो यह अनुभव है परमात्मा। अतः प्रेम है सीढ़ी और परमात्मा है इस यात्रा की अंतिम मंजिल। अब यह कैसे संभव है कि जब तक मैं न मिटूं तब तक दूसरा कैसे मिट सकता है अर्थात यह दूसरा पैदा किया गया है मेरे मैं की प्रतिध्वनि ने। जितना जोर से मैं चिल्लाता हूं कि मैं हूं, उतने ही जोर से यह दूसरा पैदा हो जाता है। यह दूसरा प्रतिध्वनि है मेरे मैं की और यह अहंकार द्वार पर दीवार बनकर खड़ी है। अब यह मैं क्या है? कभी हमने सोचा है कि हमारा यह हाथ मैं है, क्या हमारा वह पांव मैं है, क्या हमारा यह मस्तिष्क अथवा हमारा हृदय मैं है।  यदि हम एक क्षण भी शांत होकर अपने भीतर खोजने जाएंगे कि कहां है मैं, कौन सी वस्तु है मैं, तो हम हैरान रह जाएंगे कि हमारे भीतर कोई मैं नाम की वस्तु खोजने पर भी मिलने वाली नहीं है। जितना गहराई से खोजेंगे उतना ही पाएंगे कि हमारे भीतर एक सन्नाटा और शून्य है और वहां पर कोई मैं नहीं है, वहां पर कोई अहम नहीं है। संपूर्ण अवतार बाणी का भी कथन है।

जम्यां जद सैं सुन प्राणी दिल तेरे हंकार नहीं सी।

जम्यां जद सैं सुन प्राणी नाल किसे दे खार नहीं सी।

अब इस शून्य से ही प्रेम का जन्म होता है, क्योंकि इस शून्य में दूसरे के शून्य से मिलने की क्षमता है, केवल शून्य ही शून्य से मिल सकता है और कोई नहीं। मानो दो शून्य मिल सकते हैं दो व्यक्ति नहीं। दो खुला मिल सकते हैं क्योकि अब कोई बाधा भी नहीं है। शून्य की कोई दीवार नहीं होती जबकि अन्य प्रत्येक वस्तु की दीवार होती है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App