गीता रहस्य

By: Aug 29th, 2020 12:15 am

स्वामी  रामस्वरूप

इसी अनादिकाल से चली आ रही वैदिक पंरपरा में श्रीकृष्ण महाराज द्वापर युग में   श्लोक 9/32 में ज्ञान दे रहे हैं कि हे अर्जुन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कन्या, नारी अथवा पापी जो भी मेरी (द्वापर में श्रीकृष्ण जी की) शरण में जाकर वैदिक ज्ञान प्राप्त करेगा, वह परमगति अर्थात संसारी एवं आध्यात्मिक सुख अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेगा…

 गतांक से आगे…

वेद विद्या सुनकर ही इस पाप का नाश किया जा सकता है। अन्यथा वेद विरोधी पापी संत तो संपूर्ण जनता को भटका कर अपनी माया जाल में फंसा कर जनता का तन, मन, धन नष्ट कर देते हैं। अतः जब तक प्राणी सतयुग, द्वापर, त्रेता की भांति वेद एवं योग विद्या के ज्ञाताओं के पास जाकर वेद विद्या अर्जित नहीं करेगा तब तक वेद विरोधी मनुष्य स्वयंभू ब्राह्मण, संत आदि बनकर जनता को लूटते ही रहेंगे।

इस विषय में श्लोक 9/29 एवं 9/30 में वेद मंत्रों के प्रमाण से समझा दिया गया है कि जीव आज भी वेद एवं योग विद्या के ज्ञाताओं के पास जाकर स्वयं विद्वान बनें। इसी अनादिकाल से चली आ रही वैदिक पंरपरा में श्रीकृष्ण महाराज द्वापर युग में   श्लोक 9/32 में ज्ञान दे रहे हैं कि हे अर्जुन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कन्या, नारी अथवा पापी जो भी मेरी (द्वापर में श्रीकृष्ण जी की) शरण में जाकर वैदिक ज्ञान प्राप्त करेगा, वह परमगति अर्थात संसारी एवं आध्यात्मिक सुख अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेगा।

वेद एवं योग विद्या के ज्ञाताओं की शरण में आकर सभी पाप योनि वाले प्राणी भी द्विज बनकर ज्ञान प्राप्त करके पापमुक्त होकर स्वयं विद्वान हो जाते हैं और दूसरों का भी उद्वार कर देते हैं। श्लोक 9/33 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि फिर पुण्यवान ब्राह्मण एवं बल एवं पराक्रम से युक्त क्षत्रिय वर्ण भक्तगण की तो बात ही क्या है, अर्थात जब श्लोक 9/32 में कहे पाप योनि वाले स्त्री, वैश्य या शूद्र भी असमय श्रीकृष्ण की शरण में आकर परम गति को प्राप्त होते हैं तब पुण्यवान ब्राह्मण एवं भक्त क्षत्रियों की तो बात ही क्या है अर्थात इनके द्वारा परम गति प्राप्त होना तो निश्चित ही है।

अतः हे अर्जुन! तू सदा न रहने वाला नाश्वान सुख से हीन इस संसार को प्राप्त होकर मेरा भजन सुन। भाव- यजुर्वेद मंत्र 17/75 का भाव है कि इस लोक में पूर्व जन्म के पुण्यवान संस्कारों से जीव का पवित्रता से युक्त जन्म होता है और वह जीव अपने संस्कार बल द्वारा ईश्वर की वैदिक भक्ति एवं योगाभ्यास ही करता है।

ऋग्वेद मंत्र 10/111/ 8 में कहा कि सृष्टि रचना में परमात्मा कुछ परमागुणों को ऊंचा फेंकता है, कुछ को नीचे आधार दिया, किसी को मध्य में और किसी को अंत में दूर-दूर तक फेंका है। इसीलिए ऊंचे द्युलोक पृथ्वी और मध्य में अंतरिक्ष तथा चारों ओर झरने, पहाड़, पौधे, समुद्र आदि अनेक पदार्थ रचे गए हैं। इसी प्रकार कर्मानुसार परमेश्वर ने आप्त, ऋषि, योगी जन आदि को जगत से दूर मोक्ष में , किसी को मुमुक्ष में तथा किन्हीं उपासक मनुष्यों को स्तुतिकर्ता के रूप में अपनाया है।                                       – क्रमशः


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