राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने से सही चलेगा लोकतंत्र: शशि थरूर, लोकसभा सांसद

By: Aug 5th, 2020 12:07 am

शशि थरूर

लोकसभा सांसद

हालांकि ब्रिटेन में तैयार हुई संसदीय प्रणाली—एक द्वीपीय देश जिसके हर चुनाव क्षेत्र में एक लाख से कम मतदाता हैं—ऐसी परंपराओं पर आधारित है जो भारत में उपस्थित नहीं। इनमें शामिल हैं स्पष्ट परिभाषित राजनीतिक पार्टियां, जिनमें से प्रत्येक की नीतियां और प्राथमिकताएं स्पष्ट हों और जो इसे दूसरी पार्टी से भिन्न बनाती हों। जबकि भारत में पार्टी अकसर एक सुविधा की वस्तु है जिसे राजनेता उसी प्रकार अपनाते या त्यागते हैं जैसे बालीवुड फिल्म अभिनेता जल्दी-जल्दी कपड़े बदलते हैं। एक पार्टी से अगली में कूद जाना—जो किसी अन्य संसदीय लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक प्रणाली को सदमे में डाल दे—हमारे देश में आम और साधारण बात मानी जाती है…

देश आज जिस शर्मनाक राजनीतिक छल-कपट का गवाह बन रहा है—हाल ही में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान में—और सत्ता व धन के लिए निष्ठाएं पलटने को विधायकों की खरीद-फरोख्त केवल राजनीति में अनैतिकता या दौलतमंद सत्ताधारी पार्टी की मौकापरस्ती पर छाती पीटने का ही अवसर नहीं है। हम कभी सुर्खियों से आगे जाकर मूल समस्या को नहीं देखतेः वह प्रणाली जो इस शर्मनाक व्यवहार को संभव बनाती है। संसदीय प्रणाली जिसे हमने अंग्रेजों से अपना लिया भारतीय परिस्थितियों में कामयाब नहीं हो पाई है। समय आ गया है कि हम बदलाव की मांग करें।

तथ्य तो स्पष्ट हैं—हमारी संसदीय प्रणाली ने सांसदों व विधायकों की एक ऐसी विशिष्ट प्रजाति तैयार की है, जो काफी हद तक कानून निर्माताओं के रूप में तो अयोग्य हैं, पर चुनाव इसलिए लड़ते हैं कि कार्यकारी शक्तियां उनके हाथ लगें। इससे अस्थिर विधायी बहुमत पर आधारित सरकारें बनती हैं, जो नीतियां या परिणाम दिखाने के बजाय राजनीति पर ज्यादा ध्यान देती हैं। इससे मतदाता की वोटिंग पसंद विकृत होती है क्योंकि वह यह तो जानता है कि किस व्यक्ति को वोट देना चाहता है, पर आवश्यक रूप से यह नहीं जानता कि किन पार्टियों को। इससे ऐसी पार्टियों को बढ़ावा मिलता है जो व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए बदलती रहती हैं, और स्पष्ट  विचारधाओं की वाहक नहीं बनतीं।  इससे सरकारों को मजबूर होना पड़ता है कि वे शासन पर कम केंद्रित हों और गठबंधन के न्यूनतम कार्यक्रमों पर ज्यादा। संसदीय प्रणाली हमें विफल कर चुकी है।

बहुलतावादी लोकतंत्र भारत का महानतम शक्ति है, परंतु इसको चलाने का हमारा वर्तमान तरीका हमारी प्रमुख दुर्बलताओं का कारण है। ऐसा इशारा भी करना आज एक अपवित्र राजनीतिक अपराध बन गया है। मैंने इस विषय पर कई राजनेताओं से बात की, परंतु उनमें से शायद ही कोई बदलाव पर विचार भी करने को तैयार है। इसका मुख्य कारण यह है कि वे जानते हैं कि वर्तमान प्रणाली में कैसे काम सिद्ध करना है और वे उन तौर-तरीकों को बदलना नहीं चाहते जिनके वे अभ्यस्त हैं।

हालांकि ब्रिटेन में तैयार हुई संसदीय प्रणाली—एक द्वीपीय देश जिसके हर चुनाव क्षेत्र में एक लाख से कम मतदाता हैं—ऐसी परंपराओं पर आधारित है जो भारत में उपस्थित नहीं। इनमें शामिल हैं स्पष्ट परिभाषित राजनीतिक पार्टियां, जिनमें से प्रत्येक की नीतियां और प्राथमिकताएं स्पष्ट हों और जो इसे दूसरी पार्टी से भिन्न बनाती हों। जबकि भारत में पार्टी अकसर एक सुविधा की वस्तु है जिसे राजनेता उसी प्रकार अपनाते या त्यागते हैं जैसे बालीवुड फिल्म अभिनेता जल्दी-जल्दी कपड़े बदलते हैं। एक पार्टी से अगली में कूद जाना—जो किसी अन्य संसदीय लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक प्रणाली को सदमे में डाल दे—हमारे देश में आम और साधारण बात मानी जाती है।

एक असल पार्टी व्यवस्था के अभाव में, मतदाता पार्टियों के बीच नहीं अपितु व्यक्तियों के बीच चयन करता है, अकसर उनकी जाति के आधार पर, या उनकी सार्वजनिक छवि या अन्य व्यक्तिगत गुणों को देखते हुए। परंतु क्योंकि एक व्यक्ति उस बहुमत का हिस्सा होने के आधार पर चुना जाता है जो सरकार बनाए, पार्टी से संबद्धता मायने रखती है। इसलिए लोगों से कहा जाता है कि अगर वे एक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं, या एक ममता बनर्जी या जगन रेड्डी को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं, तो उन्हें किसी और को सांसद या विधायक के तौर पर वोट देना होगा ताकि अप्रत्यक्ष रूप से वह परिणाम पाया जा सके। यह ऐसी विकृति है जिसे केवल ब्रिटिश ही ईजाद कर सकते थे—एक विधायक को विधायी कार्य के लिए नहीं, बल्कि कार्यपालिका के निर्माण के लिए वोट दो।

यह तथ्य कि संसद में दाखिल होने का मुख्य कारण सरकारी कार्यालय उपलब्ध करना होता है, चार विशिष्ट समस्याएं पैदा करता है।

पहला, यह कार्यकारी पद उनके लिए सीमित कर देता है जो चुनाव में जीतने योग्य हैं बजाय इसके कि जो योग्य हैं। प्रधानमंत्री अपनी पसंद का मंत्रिमंडल नियुक्त नहीं कर सकता; उसे कई राजनीतिक दलों के राजनेताओं की इच्छाओं को जगह देनी पड़ती है। (हां, वह राज्यसभा के रास्ते कुछ सदस्यों को ला सकता है, परंतु हमारा ऊपरी सदन भी बड़े पैमाने पर पूर्णतया राजनीति करने वालों के लिए ही बन कर रह गया है, इसलिए टेलेंट-पूल सही रूप से बढ़ नहीं पाया है।)

दूसरा, यह दलबदल और खरीद-फरोख्त को अधिक मूल्य देता है। वर्ष 1985 का दलबदल विरोधी कानून समस्या दूर करने में असफल रहा है, क्योंकि मोलभाव सरकार गिराने के लिए आवश्यक विधायकों से इस्तीफे दिलवाने की ओर पलट गया है और उनसे यह वादा किया जाता है कि उन्हें उपचुनाव जीतने पर पद दिया जाएगा।

तीसरा, कानून निर्माण प्रभावित होता है। अधिकतर कानून विधायिका द्वारा ड्राफ्ट किए जाते हैं—व्यवहार में नौकरशाही द्वारा—और उन्हें बनाने व पारित करवाने में संसदीय योगदान न्यूनतम होता है, बहुत से कानून मात्र कुछ मिनट की बहस के बाद पास हो जाते हैं। एक विधेयक बेरोकटोक पास हो, ऐसा सुनिश्चित करने के लिए सत्ताधारी दल अनिवार्य रूप से अपने सदस्यों को व्हिप जारी करता है और क्योंकि व्हिप का उल्लंघन उन्हें अयोग्य ठहरा सकता है, सांसद आंख मूंद कर पार्टी के निर्देश अनुसार अपना वोट देते हैं। संसदीय प्रणाली कार्यपालिका से अलग विधायिका के अस्तित्व की अनुमति नहीं देती, जो स्वतंत्रता से अपनी सामूहिक सोच देश के कानून बनाने में इस्तेमाल कर सके। इससे जनता के प्रति सरकार का उत्तरदायित्व, उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से, कमजोर पड़ गया है।

चौथा, जो पार्टियां सरकार नहीं बना पातीं और जिन्हें अहसास होता है कि अधिकतम वोटों का परिणाम पहले से ही निश्चित है, उनके लिए संसद या विधानसभा पवित्र विचार-विमर्श करने का स्थान नहीं बल्कि एक ऐसा थियेटर बन जाता है जहां वे अपनी बाधा डालने की शक्ति का प्रदर्शन कर सकें। सदन का वैल—जो पुनीत होना चाहिए—विपक्षी सदस्यों के लिए भीड़ लगाने और धक्का-मुक्की का स्टेज बन जाता है, जहां वे तख्तियां दिखाते हैं और नारे लगाते हैं जब तक कि सभापति व्यवस्था बनाए रखने के तमाम निर्रथक प्रयासों के बाद निराशा में बैठक स्थगित नहीं कर दें । भारत की संसद में कई विपक्षी सदस्य महसूस करते हैं कि उनके विचारों की ताकत दिखाने का सर्वोत्तम तरीका कानून पर बहस करने के बजाय कानून-निर्माण बाधित करना है।

मौजूदा प्रणाली के समर्थक इसके बचाव में कहते हैं कि इसने देश को इकट्ठा रखने में मदद दी है और हर भारतीय को देश के राजनीतिक भाग्य में हिस्सा दिया है। परंतु यह लोकतंत्र ने किया है, संसदीय प्रणाली ने नहीं। हमारी वर्तमान प्रणाली ने जो नहीं किया और जो अन्य लोकतांत्रिक प्रणालियों ने किया होता, वह है प्रभावी परफार्मेंस सुनिश्चित करना। भारत की बहुत सी चुनौतियां ऐसे राजनीतिक प्रबंध चाहती हैं जो निर्णायक कदमों की अनुमति दें, जबकि हमारे इंतजाम लगातार लटकाने और निष्क्रियता को बढ़ावा देते हैं। हमारे यहां लोकतंत्र की ऐसी प्रणाली होनी चाहिए जिसमें नेता सत्ता में बने रहने के बजाय शासन पर ध्यान केंद्रित कर सकें।

भारत में राजनीतिक प्रक्रिया जिस बदनामी में आ फंसी है, और हमारे राजनेताओं के मंतव्य के बारे में व्यापक अविश्वास, सीधे संसदीय प्रणाली के कामकाज में तलाशा जा सकता है। कार्यपालिका को विभिन्न प्रकार के विधायकों के एजेंडा का बंधक बनाना और कुछ नहीं बल्कि सरकारी अस्थिरता का नुस्खा है। और अस्थिरता ठीक वही चीज है जिसे भारत अपनी नाजुक आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों के चलते झेल नहीं सकता।

राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में मामला, मेरी नजर में, इससे स्पष्ट कभी नहीं था। नई दिल्ली और हर राज्य में एक सीधे जनता द्वारा निर्वाचित मुख्य कार्यकारी अधिकारी कार्यकाल का स्थायित्व पाएगा। बदलती गठबंधन राजनीति के खतरों के बजाय, और विधायिका की मनमर्जी से परे। वह प्रतिभा से परिपूर्ण मंत्रिमंडल बना पाएगा। और सबसे बढ़कर, वह अपनी ऊर्जा केवल सरकार को देने के बजाय शासन को समर्पित कर पाएगा। भारतीय मतदाता सीधे उस व्यक्ति को वोट दे पाएगा जिसका वह शासन चाहता है। और राष्ट्रपति भी सांसदों के बहुमत के बजाय सच्चे अर्थों में बहुसंख्यक भारतीयों की ओर से बोलने का दावा करने के योग्य होगा। एक पूर्व निर्धारित समय के अंत में, भारतीयों का जीवन बेहतर बनाने में प्रदर्शन के आधार पर जनता एक व्यक्ति को जांच पाएगी, न कि सरकार को बनाए रखने की राजनीतिक कुशलता के आधार पर।

यही तर्क कस्बों और नगरों के प्रत्यक्ष निर्वाचित प्रमुखों पर भी लागू होगा—जैसा कि मैंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल में प्रस्ताव रखा है—और ग्राम पंचायतों पर भी, जो आज कमेटी अध्यक्षों से जरा सा ही बड़े अधिकारी हैं, जिनके पास शक्तियों का आभाव और सीमित संसाधन हैं। स्थानीय स्व-शासन को प्रभाव देने के लिए, हमें सीधे जनता द्वारा निर्वाचित स्थानीय पदाधिकारियों की आवश्यकता है, जिनमें से प्रत्येक के पास वास्तविक अधिकार और आर्थिक संसाधन हों ताकि वे अपने क्षेत्रों में परिणाम सामने ला सकें।

लिबरल प्रजातंत्रवादियों की एकमात्र गंभीर आपत्ति यह है कि राष्ट्रपति प्रणाली में तानाशाही का खतरा रहता है। वे एक राजा जैसे राष्ट्रपति की छवि पेश करते हैं, जो संसदीय हार के डर के बिना व जनता की राय से अप्रभावित देश को हुक्म से चलाता है। विशेष रूप से वे तर्क देते हैं कि राष्ट्रपति प्रणाली भारत में मोदी तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करेगी। परंतु राष्ट्रपति मोदी शायद ही उस प्रधानमंत्री से अधिक तानाशाह हो, जो हमने पद पर देखा है—संसदीय प्रणाली की मदद से, जिसके पास लोकसभा में रबर-स्टैंप बहुमत है बजाय एक स्वतंत्र विधायिका के जो राष्ट्रपति प्रणाली सुनिश्चित करेगी। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति मोदी की शक्तियां राज्यों के प्रत्यक्ष निर्वाचित मुख्य कार्यकारियों की वजह से पर्याप्त रूप से संतुलित रहेंगी, जो उनके पार्टी नेताओं द्वारा पद से हटाने या विधायकों के दलबदल से सुरक्षित रहेंगे।

लोकतंत्र स्वयं में ही एक लक्ष्य है, और हमारा इस पर गर्व करना सही है। परंतु हम भारतीय उस राजनीति पर गर्व नहीं कर सकते जिसे हमारा लोकतंत्र हम पर थोप रहा है। हमारे नेताओं के समक्ष संपूर्ण मानवजाति के छठे भाग की आवश्यकताएं और चुनौतियां हैं, हमें एक ऐसा लोकतंत्र चाहिए, जो हमारे लोगों को प्रगति प्रदान करे। राष्ट्रपति प्रणाली अपनाना लोकतंत्र सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम रास्ता है।


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