शहनाज को कभी भी हार स्वीकार नहीं थी

By: जीवन एक वसंत/शहनाज हुसैन Nov 14th, 2020 12:20 am

किस्त-52

सौंदर्य के क्षेत्र में शहनाज हुसैन एक बड़ी शख्सियत हैं। सौंदर्य के भीतर उनके जीवन संघर्ष की एक लंबी गाथा है। हर किसी के लिए प्रेरणा का काम करने वाला उनका जीवन-वृत्त वास्तव में खुद को संवारने की यात्रा सरीखा भी है। शहनाज हुसैन की बेटी नीलोफर करीमबॉय ने अपनी मां को समर्पित करते हुए जो किताब ‘शहनाज हुसैन ः एक खूबसूरत जिंदगी’ में लिखा है, उसे हम यहां शृंखलाबद्ध कर रहे हैं। पेश है 52वीं किस्त…

-गतांक से आगे…

स्टूडियो में उन्होंने अपनी ताजपोशी की और पैदाइशी विजेता के अंदाज में कैमरे की तरफ रुख किया, जिससे मुझे विश्वास मिलता है कि जब एक बार आप खुद को सफल मान लें तो दुनिया भी आपकी सफलता को स्वीकार लेती है। यहां तक कि जब वह बस घर-गृहस्थी में गुम हो ही जाने वाली थीं, तब भी उन्हें जीत पर पूरा भरोसा था। हार का तो उन्हें गुमान ही नहीं था। हार शहनाज़ हुसैन को कभी स्वीकार नहीं थी। जचगी के समय मेरी मां फिर से अपने वालदैन के प्यार भरे घोंसले में आ गई थीं। आठवें महीने के दूसरे हफ्ते में वह बकरी के पालतू बच्चे से खेल रही थी, तभी वह उनकी पकड़ से निकलकर भागने लगा। अपने फूले हुए पेट की अनदेखी कर वह भी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ीं और भागते-भागते गिर गईं। कुछ ही पलों में वह गाड़ी में अपनी मां का हाथ पकड़े कराह रही थीं और उनके परेशान पापा आगे ड्राइवर के साथ बैठे मन ही मन कुछ दुआएं पढ़ रहे थे।

इलाहबाद का अस्पताल वक़्ते मुसीबत को संभालने में नाकाफी था, लेकिन खुदा के शुक्र से मानो आई हुई मुसीबत खदु व खुद ही टल गई। मैं, वह बच्चा, अपने मां-बाप की जिंदगी से 27 नवंबर को आकर जुड़ गई। मेरे पिता मेरा नाम ‘रेशम’ रखना चाहते थे और अब्बा की फरमाइश ‘तलत’ थी। हालांकि मेरी मां की ख्वाहिश मेरा नाम हैदराबाद की राजकुमारी के नाम पर रखने की थी, तो मैं नीलोफर हुसैन बन गई।

पैरों में ज़मीन और खुला आसमान

सोला टोपी लगाए जस्टिस बेग अपनी बेगम के साथ लखनऊ रेलवे स्टेशन पर खड़े बड़ी ही बेसब्री से अपनी बेटी और उसके परिवार के आने का इंतजार कर रहे थे। उनकी नज़रें बेचैनी से घड़ी और पटरी के बीच दौड़ रही थीं। उनके औपचारिक हरकारे उनके पीछे खड़े थे। आते-जाते लोग जज के सामने अदब से झुककर सलाम कर रहे थे और वह विनम्रता से उनका जवाब भी देते जा रहे थे। आखिरकार जमीन आती हुई ट्रेन की आवाज से धड़धड़ाने लगी। ट्रेन के सामने से गुज़रने पर जस्टिस बेग के चेहरे से गर्म हवा का गुब्बार टकराया, हर खुली हुई खिड़की एक चलता हुआ पोस्टकार्ड थी, जब तक ट्रेन चीखते हुए रुक न गई।  ‘पापा’ उनके कानों में एक चहकती हुई आवाज़ आई और उनकी छोटी बेबी ट्रेन से उछलकर बाहर आती दिखी। आते ही वह अपने वालदैन के गले लग गई, उनकी आंखें राहत और खुशी से छलछला आई थीं। शहनाज़ और नासिर के लिए, कट्टर संयुक्त परिवार के पीछे छोड़कर नए शहर में आकर रहना, खुली हवा में सांस लेने जैसा था। नासिर ने अपनी बेगम से किया हुआ वादा निभा दिया था और अब वे लखनऊ में थे अपना पहला घर बसाने के लिए। जिंदगी की तरफ यह उनका पहला कदम था, अपने सपनों और ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए।


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