धार्मिक संप्रदाय

By: Dec 5th, 2020 12:15 am

गतांक से आगे…

यह सच है कि कट्टरपन से धर्म प्रचार अति शीघ्र होता है, किंतु सभी को अपने-अपने मत में स्वतंत्रता देकर एक उच्च पथ पर पहुंचाने से पक्का धर्म प्रचार होता है, भले ही इसमें कुछ देरी लगे। भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य में भाव का जैसा विकास हुआ था, वैसा और कहीं भी नहीं देखा जा सकता।

धार्मिक संप्रदायों के भीतर जिस दिन से बड़े लोगों के लिए छूटछाट होगी, उसी दिन से उन संप्रदायों का पतन आरंभ हो जाएगा। कोई-कोई कहते हैं, पहले साणन भजन करके सिद्ध हो जाओ, उसके बाद कर्म करने का अधिकार प्राप्त होगा। कोई-कोई कहते है प्रारंभ से ही करना होगा, इसमें सामंजस्य कहां पर है? तुम लोगों ने दोनों बातों को समझने में गड़बड़ी मचा रखी है। कर्म के अर्थ है एक, जीव सेवा और दूसरा प्रचार। सच्चे प्रचार कार्य में सभी को अधिकार है। अधिकार ही नहीं, सेवा करने के लिए भी बाध्य हैं जब तक वे स्वयं की सेवा ले रहे हैं। साधना के लिए यदि शरीर जाए भी, तो जाने दो। साधु संग में रहते-रहते ही धर्मलाभ हो जाएगा। गुरु तो आशीर्वाद से शिष्य बिना पढ़े कहां पंडित हो जा जाता है।

गुरु किनको कहा जाए? जो तुम्हारे अंतर की पंजीकृत संस्कार राशि को देख सके और यह बतला सके कि उसने भूतकाल में तुमको किस रूप से नियंत्रित किया तथा भविष्यकाल में तुम्हें वह कहां ले जाएंगी अर्थात जो तुम्हारे भूत-भविष्य को बतला सकें, वे ही तुम्हारें गुरु हैं। ऐसा समय भी आएगा, जब समझ सकोगे कि एक चिलम तंबाकू सजाकर लोगों की सेवा करना भी कोटि-कोटि ध्यान की अपेक्षा बड़ा है। हर कोई व्यक्ति आश्चर्य नहीं हो सकेगा। किंतु मुक्त बहुत से हो सकते हैं जो मुक्त हैं, उनके समीप संपूर्ण जगत स्वप्न तुल्य है। परंतु आचार्य को दोनों अवस्थाओं के मध्य में रहना होता है।

उसको यह ज्ञान रखना पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा के उपदेश किस प्रकार दे सकेंगे और यदि उन्हें जगत स्वप्न तुल्य प्रतीत नहीं हुआ, तब तो वह साधारण मनुष्य के समान हो गए, फिर वे भला शिक्षा ही क्या देंगे? आचार्य को शिष्य के पापों का भार लेना पड़ता है। इसी से शक्तिमान आचार्य के शरीर में व्याधियां आदि होती हैं। किंतु यदि वे कच्चे हों, तो  उनके मन पर भी उसकी प्रतिक्रिया होती है, उनका पतन हो जाता है। ऐरा गैरा कोई भी व्यक्ति आचार्य नहीं हो सकता।

श्रीमति एनी बेसेंट का विचार महिमामय मूर्ति गैरिक वस्त्र से भूषित, शिकागो के धूमिल, धूसर वक्ष पर भारत के सूरज की भांति दीप्तिमान, उन्नत मस्तक, मर्मभेद दृष्टि पूर्ण आंखें, मनोहर हाव-भाव, चंचल होंठ, धर्म महासभा के प्रतिनिधियों के लिए कमरे में स्वामी विवेकानंद मेरी आंखों में सर्वप्रथम इसी रूप में प्रतिशासित हुए थे।                        -क्रमशः


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