अहमद फराज़ : कलम का समर्पित साधक

उनकी इस कलम का सफर तभी शुरू हो गया था जब वह एडवर्ड कॉलेज पेशावर में पढ़ते थे। उनकी शायरी का संकलन ‘तन्हा-तन्हा’ कॉलेज के दिनों में ही छप गया था। पठान होने के कारण वो एक लंबे, खूबसूरत नौजवान थे। आवाज़ में गहराई थी। उर्दू और फारसी साहित्य में पेशावर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर थे, बाद में इस्लामिया कॉलेज पेशावर में उर्दू के प्राध्यापक थे। कुल मिलाकर एक ऐसे शानदार व्यक्तित्व के मालिक थे जिसने उन्हें सामाजिक समारोहों और मुशायरों की जान बना दिया था। स्वभाव में बेबाकी और बग़ावत भरपूर थी। तबीयत रुमानी थी…

‘और फराज़ चाहिए कितनी मुहब्बतें तुझे, माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया।’ घटना अमरीका में एक मुशायरे के बाद की है जब एक लड़की एक शायर के पास ऑटोग्राफ लेने आई। शायर ने जब लड़की से उसका नाम पूछा तो उसने कहा ‘फराज़ा’। शायर ने चौंक कर कहा कि यह क्या नाम हुआ। इस पर लड़की ने शायर से कहा कि आप मेरे मम्मी-पापा के पसंदीदा शायर हैं। उन्होंने सोचा था कि बेटा होगा तो नाम फराज़ रखेंगे, लेकिन हो गई बेटी तो उन्होंने नाम फराज़ा रख दिया। बाद में इस शायर ने यह घटना उक्त अंदाज़ में बयां की थी। लोगों के दिलो-दिमाग पर इस कदर छा जाने वाला यह शायर अहमद फराज़, जिसके नाम पर मांए बच्चों का नाम तक रख देती थीं, आज के दिन यानी 12 जनवरी 1931 को नौशेरा (कोहाट) पाकिस्तान में एक पठानी परिवार में पैदा हुआ था। इनका असली नाम सैय्यद अहमद शाह था।

इनके पिता एक अध्यापक थे और इन्हें गणित अथवा विज्ञान का अध्यापक बनाना चाहते थे, पर उन्हें क्या पता था कि कलम ने इस बच्चे में अपना ऐेसा साधक चुन लिया है जो आने वाले दिनों में उसकी ताकत का ध्वजवाहक बनकर अपनी मशहूर नज़्म ‘मुहासरा’ में जि़या उल हक को यह कहते हुए चुनौती देने का साहस रखेगा कि तलवार की ताकत पे तो उस पाकिस्तानी तानाशाह को बहुत घमंड है, पर उसे अभी कलम की विराट शक्ति का अंदाज़ा नहीं हैः ‘उसे है सतवत-ए-शमशीर पर घमंड बहुत, उसे शिकोह-ए-कलम का नहीं है अंदाज़ा।’ मगर उपनाम फराज़ से मशहूर हुए अहमद फराज़ को तो अपनी कलम की ताकत का पूरा अंदाज़ा था क्योंकि उनके लिए यह महज़ एक कलम नहीं थी। ये कुछ और थी जो वो खुद ‘मुहासरा’ में कहते हैंः- ‘मिरा कलम तो अमानत है मेरे लोगों की, मिरा कलम तो अदालत मेरे ज़मीर की है।’

उनकी इस कलम का सफर तभी शुरू हो गया था जब वह एडवर्ड कॉलेज पेशावर में पढ़ते थे। उनकी शायरी का संकलन ‘तन्हा-तन्हा’ कॉलेज के दिनों में ही छप गया था। पठान होने के कारण वो एक लंबे, खूबसूरत नौजवान थे। आवाज़ में गहराई थी। उर्दू और फारसी साहित्य में पेशावर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर थे, बाद में इस्लामिया कॉलेज पेशावर में उर्दू के प्राध्यापक थे। कुल मिलाकर एक ऐसे शानदार व्यक्तित्व के मालिक थे जिसने उन्हें सामाजिक समारोहों और मुशायरों की जान बना दिया था। स्वभाव में बेबाकी और बग़ावत भरपूर थी। तबीयत रुमानी थी। समय जि़या उल हक की तानाशाही का था। यहीं से उनकी शायरी की दो बुनियादें पड़ीं-रुमानियत और विद्रोह। जब वह ये गज़ल कहते हैंः- ‘सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं, सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं, सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं, ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं’, तो रुमानियत जैसे जीवंत हो उठती है। उर्दू गज़ल में एक नया मकाम पा लेती है। जब वह इसी गज़ल में लिखते हैंः- ‘सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं, सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं’, तो ऐसा लगता है कि सृष्टि की हर रचना रुमानियत में डूबी हुई है। रुमानियत ने जहां उनसे इस तरह की बेहतरीन गज़लें लिखवा कर उन्हें नौजवानों के दिलों की धड़कन बना दिया था, वहीं विद्रोह के भाव की उनकी शायरी ने उन्हें बीसवीं सदी के उन प्रगतिवादी लेखकों के साथ ला खड़ा किया था जो तानाशाही के घोर विरोधी थे और जनतंत्र के माध्यम से समतावाद एवं सामाजिक न्याय से युक्त आदर्श समाज की स्थापना का सपना देखते थे। हुकूमत से टकराव तो स्वाभाविक था। मुशायरों में जि़या उल हक की हुकूमत के विरुद्ध ऐसी गज़लें पढ़ीं कि जेल भी जाना पड़ा। स्थिति यहां तक आ गई कि उन्होंने 6 साल के लिए खुद को ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में निर्वासित कर लिया।

पाकिस्तान में लोकतंत्र न होना एक ऐसा दुःख था जो हमेशा उन्हें सालता रहा। वो निरंतर इसके लिए संघर्ष करते रहे, जि़या उल हक की हुकूमत को चुनौती देते हुए कहते रहेः- ‘अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रखा है, मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है।’ जब फराज़ ने अपनी ये मशहूर गज़ल कहीः ‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ’, तो बहुतों ने कहा कि यह प्रेमिका के संदर्भ में कही गई है। पर खुद फराज़ ने कहा कि ये पाकिस्तान में जनतंत्र को संबोधित है। जनतंत्र, समानता एवं सामाजिक न्याय जैसे मूल्य, जिनके लिए अहमद फराज़ ने आजीवन संघर्ष किया, वो आज भी उतना ही महत्त्व रखते हैं जितना कल रखते थे। तभी तो इन मूल्यों के लिए आवाज़ उठाने वाली उनकी कलम और उससे निकली उनकी शायरी कल भी प्रासंगिक थी और आज भी है। पर देश निकाले का दर्द बीसवीं सदी के इस महान और लोकप्रिय शायर को अपने ही देश की तानाशाह हुकूमत द्वारा अप्रासंगिक बनाए जाने के ऐसे दंश मारता था कि वह कराहते हुए कह उठता थाः-‘कुछ इस तरह से गुज़ारी है जि़ंदगी जैसे, तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा, किसी की घर से निकलते ही मिल गई मंजि़ल, कोई हमारी तरह उम्र भर सफर में रहा।’ 25 अगस्त 2008 को अपनी सांसों का उमर भर लंबा सफर इस्लामाबाद में खत्म करके कलम का यह साधक बहुत आगे निकल गया कभी न लौटने के लिए और पीछे छोड़ गया शायरी का वो सम्मोहक संसार जो बरबस अपनी ओर खींच लेता है और उसके बारे में उसी के शब्दों में ये कहने को विवश कर देता हैः- ‘हमको अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तेरा, कोई तुझसा हो तो फिर नाम भी तुझसा रखे।’


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