तर्क, कुतर्क और वितंडा

By: Feb 23rd, 2021 12:06 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

अपने घर से निकले पंडित जॉन अली, इससे पहले कि गली में ़गुम होते, मैंने उन्हें आवाज़ देकर चाय के लिए रोक लिया। मैं, धूप में उनके लिए कुरसी लगाते हुए बोला, ‘‘पंडित जी, चाय फ्री तो मिलेगी नहीं। पहले मेरी शंका का निवारण करें। कल विनोबा भावे का प्रसंग पढ़ा था, जिसमें तर्क और वितंडा का ज़ि़क्र था। कुछ समझ आया, कुछ नहीं। कृपया उदाहरण सहित व्याख्या करें।’’ वह बोले, ‘‘मियां, विनोबा जी का प्रसंग क्या था, यह तो पता नहीं। लेकिन तर्क और वितंडे में ़फ़र्क उनके जैसी ज़हीन शख्सियतों के संदर्भ में ही आ सकता है। आजकल तर्क (दलील) का तर्क (परित्याग) हो चुका है और कुतर्क दौड़ रहा है। जहां, कुतर्क की टांगें दुखने लग जाएं, वहां वितंडे की सवारी हो रही है। रही बात वितंडे की (दूसरे की बात को दबाकर अपने पक्ष की स्थापना) तो हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को ़फारसी क्या? वैसे कहावत का दूसरा भाग अब चरित्रहीन से चरित्र प्रमाण-पत्र मांगने जैसा हो गया है।

 हर युग में यही होता आया है कि जिसके हाथ सत्ता होती है, चलती उसी की है। वह जो भी कहे, तर्कपूर्ण और जो भी करे, तर्कसंगत। आमजन तो कोठे की महरानी है, जिसे हर ता़कतवर के सामने मुजरा करना पड़ता है। मानवता हर युग में आमजन की तरह अपने अस्तित्व को रोती आई है। नहीं तो सीता अग्नि परीक्षा क्यों देतीं या दो वनवास क्यों झेलतीं? महाभारत क्यों होता? आधुनिक तकनीकी ने सत्ता की ता़कत कई गुणा बढ़ा दी है। दोयम दरजे के नेता विश्व में विराजमान हो रहे हैं और स्वार्थों में वितंडे का तड़का लगने से ़गरीबों की छुनछुन सिंकाई हो रही है। बेचारे कभी भूखे पेट उसी तऱफ दौड़ पड़ते हैं, जहां से रोज़ी-रोटी की तलाश में निकले थे या भरी ठंड में वितंडों की रजाई ओढ़ते हैं। जब से बेचारों ने ़फा़कामस्ती सीख ली है, गांव-शहर का भेद मिट गया है। ‘पढ़े-लिखे को ़फारसी क्या’ वाली बात अब बे़कार है? पता नहीं आ़काआें को दिन में रतौंधी हो गई है या होरियों ने ऐसी ़फारसी बोलना शुरू कर दी है, जो उनकी समझ में नहीं आती। पर इतना तय है कि अब वितंडा ही काम कर रहा है।

 न आरसी (दर्पण) चाहिए और न पढ़ने-लिखने वाले। सारे लट्ठैत हैं, जो सोलह दूनी आठ कहने के बावजूद अपनी बात मनवा ही लेते हैं। मीडिया, जिसे कभी समाज का वाचडॉग कहा जाता था, वह भी सोलह दूनी आठ में मदमस्त है। ़खबरिया चैनल देखने पर लगता है सभी लट्ठैत हो गए हैं। कभी चीख-चिल्ला कर तो कभी धमका कर, अपनी बात मनवाने में लगे हैं। तर्क ता़क पर भी नज़र नहीं आता। लेकिन कुतर्क लंगोट में औरवितंडा कैबरे करता हुआ ज़रूर नज़र आता है, जिसका मज़ा चीखने-चिल्लाने वालों के अलावा दर्शक भी उठा रहे हैं। मज़ा तो तब आता है जब बड़े आ़का द्वारा दुनिया के सामने सरेआम झूठ पेलने के बाद उनके भक्त उतने ही इत्मीनान से आम मीडिया और सोशल मीडिया पर वितंडा रचने की सुपारी मु़फ्त उठा लेते हैं। ऐसे भक्तों द्वारा होरियों को बदनाम करने के लिए न जाने कितने वितंडे रचे जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है सभी रावणों ने राम का बाना धारण कर लिया है। फिलव़क्त तो तुम चाय के साथ इन दो लाइनों का मज़ा लो ः करें कुतर्क घड़ें वितंडा, सिर पर मारें डंडा। मेरी लाठी मेरी भैंस, है सत्ता का फंडा।।’’ रामनवमी अभी दूर थी। लेकिन मैं सोच रहा था कि वितंडे के सार्वजनिक कैबरे से घबरा कर, रावणों के इस कुंभ में कहीं राम अब 14 सालों की बजाय 14 युगों के वनवास पर न चले जाएं।


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