फटी जींस में लोकतंत्र

By: Mar 22nd, 2021 12:06 am

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

सुबह उठा ही था कि बाहर लोकतंत्र टहलता हुआ मिल गया। फटी हुई जींस पहने उसके घुटने दिखाई दे रहे थे। जींस ने घुटनों में छेद कर दिए थे, इसलिए घिसट रहा था। ताज्जुब हुआ भारतीय लोकतंत्र भी जींस में। कहां तो पहले धोती पहने चलता था। सिर पर गांधी टोपी होती थी। चरखे से निकली खादी पहनता था, लेकिन अब यह हालत देखी नहीं जाती। मैंने उसकी फटी जिंस पर बुरी नजर डालने की कोशिश की ताकि किसी की बुरी नजर न लगे। शरमाते हुए लोकतंत्र ने मुझसे आंखें चुराते हुए कहा, ‘जब से जींस फटी है, तब से वह इसी पसोपेश में है कि कहीं उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की मुझ पर नजर न पड़ जाए। दरअसल मैं धोती उतारना नहीं चाहता था, लेकिन देश अमरीका की तरह दिखे, इसलिए कपड़े बदलता रहा। आपको शायद मालूम नहीं कि जब भारतीय प्रधानमंत्री के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय नारे लगते हैं, तो मेरा भी दिल करता है कि उनकी तरह दिखाई दूं। इसी चक्कर में मुझे अब यह पता नहीं चलता कि किस वक्त क्या पहनूं। आजकल एक साथ पांच राज्यों के चुनाव और मेरे पास यही एक जींस, वरना मैं भी वोकल फॉर लोकल हो जाता।’ मैंने कंगना रनौत की ‘रिप्ड जींस’ देखी थी, इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारा लोकतंत्र इतना भी फैशनेबल नहीं कि उसकी सोहबत में कुछ सीख रहा हो। मैंने कोशिश करके कंगना से पूछा कि उसकी और लोकतंत्र की जींस में इतना अंतर क्यों, जबकि दोनों एक जैसी दिखाई देती हैं। कंगना तपाक से बोली तो मुझे एहसास हुआ कि अचानक मेरी रगों में राष्ट्रवाद का तेज करंट दौड़ गया है। कंगना बोली, ‘लोकतंत्र की जींस में वर्षों से कांग्रेस के सारे घोटाले चस्पां हैं।

 लोकतंत्र को सही ढंग से चलाना सिखाया होता, तो न धोती उतरती और न ही जींस फटती।’ लोकतंत्र के अपने तर्क थे, लेकिन कंगना के आगे वह भी अपने घुटने टेक रहा था। अंततः कोशिश करके बोला, ‘धोती तो महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनकी पार्थिव देह को ढांपने में चली गई। हर बार मैं धोती पहनता था, मगर कोई न कोई नत्थू राम गोडसे मुझे गांधी समझ कर पुनः मारने की फिराक में सामने आता रहा। सच बताऊं जब मध्य प्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिर रही थी, तो मैं धोती पहनने की तैयारी में था कि अचानक साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की देशभक्ति का ख्याल आते ही जींस पहने रखी। ऐसे अवसर कई बार आए, लेकिन मुझे कभी दंगों ने दौड़ाया, तो कभी गौ रक्षा अभियान के कारण दौड़ना पड़ा। हर बार मैं और देश जब-जब एक साथ दौड़ने लगे, धोती हमेशा कांटों में फंसती रही। अब तो मुझे सदन में अपनी टोपी उछलने का कोई मलाल नहीं होता, लेकिन भय यह है कि जनप्रतिनिधियों के बीच कहीं धोती का चीरहरण न हो जाए। मैंने इसीलिए जींस पहनी है। यह पूरी तरह मजबूत थी, लेकिन कभी दल-बदलुओं, कभी राजनीतिक गठबंधनों या कभी सत्ता के दलालों ने इसे भी रगड़-रगड़ कर फाड़ दिया।’ लोकतंत्र मेरे जैसे नागरिक से अपना भला चाहता था, इसलिए मैंने किसानी से फटे हुए अपने हाथ उसके घुटनों को ढांपने के लिए रख दिए। लोकतंत्र के घुटनों से बहता हुआ खून मेरी हथेली के सूख चुके घाव पर जम रहा था। तब से हम दोनों जिंदा रहने की कोशिश में सिर्फ अपने-अपने रक्त की बूंदों को बचाने की कोशिश में लगे हैं।


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