इतिहास पुनर्लेखन क्यों

By: Mar 19th, 2021 12:05 am

फिरोज बख्त अहमद

स्वतंत्र लेखक

चूंकि भारत अपनी स्वतंत्रता के 75वें वर्ष की ओर अग्रसर है, एक लंबे समय से यह सुगबुगाहट हो रही है कि क्या भारत का इतिहास पुनः लिखा जाए? यदि ऐसा प्रतीत किया जा रहा है तो इसका कारण क्या है? वास्तव में जो इतिहास हम लोग अब तक पढ़ते चले आए हैं, वह साम्राज्यवादी अंग्रेजों का है जो लगभग 200 वर्ष भारत पर क़ाबिज़ रहे, या उन वामपंथियों द्वार निर्मित किया गया है कि जो मैकालेवादी व लाल झंडेवाले मार्क्सवादी वामपंथी हैं। बक़ौल मोहन भगवत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक का अपनी पुस्तक ‘यशस्वी भारत’ में मानना है कि 1947 से अब तक भारतीय इतिहास को लिखने वाले साम्राज्यवादी दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहे हैं। अपने को इतिहासकार कहने वाले ये लोग संस्कृत पढ़ नहीं पाते थे और अपने ब्रिटिश आक़ाओं के कहने पर सच्चा-झूठा इतिहास लिखते चले आए हैं जो हमारे शिक्षा संस्थानों में आज भी पढ़ाया जाता है।

 अतः आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय इतिहास को पुनः लिखा जाए और इसमें वे आयाम जोड़े जाएं जो भारत की परंपरा और राष्ट्रीयता का आधार हैं। इसका कारण यह है कि संपूर्ण दुनिया भारत की ओर देख रही है, जैसा कि हमने कोरोना की महामारी के एक वर्ष में भारत को विश्व गुरु बनते देखा क्योंकि अपने सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास मंत्र द्वारा प्रधानमंत्री मोदी ने साबित कर दिया कि भारतीय फार्मूलों से कैसे उन्होंने कोरोना संकट पर क़ाबू किया। चाहे वे प्रधानमंत्री के नारे- लक्ष्मण रेखा, जान है तो जहां है, ताली और थाली व दीपक जलाओ हों या कोरोना से बचने हेतु भारतीय औषधियों जैसे काढ़ा का सेवन हो अथवा 8 मास में कोविड वैक्सीन निर्मित करना हो। पिछले 6 वर्ष में भारत विश्व का अग्रणी देश बन चुका है। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख अरुण कुमार ने एक संगोष्ठी में इसी विषय पर कहा कि जिस प्रकार से भारत का इतिहास दर्ज किया गया है, उसमें बहुत सी त्रुटियां हैं और बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों व घटनाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि 1857 में जिस समय बहादुरशाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, कुंवर सिंह, नाना साहब पेशवा, बेगम हज़रत महल, झलकारीबाई आदि स्वतंत्रता संग्राम में लीन थे, उसी समय चांदनी चौक, दिल्ली के सेठ रामचंद्र गुडवाले भी स्वतंत्रता सेनानियों की तन, मन, धन से सेवा कर रहे थे, मगर इस इतिहास को कोई नहीं जानता। उनके परिवार के 150 सदस्यों को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। ऐसे ही बुद्धि राम अंबाला के एक गांव में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे और उन्होंने 40 ज़ालिम अंग्रेज़ सैनिकों का वध किया तो उनके गांव को ही कब्जा लिया गया और उन्हें मृत्यु दंड दिया गया।

 कुछ ऐसी ही कहानी कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की भी है। अंग्रेजी व कांग्रेसी शासन के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले इतिहास को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो केवल उत्तर भारत में ही भारत की स्वतंत्रता का संग्राम छिड़ा था, जबकि सच्चाई यह है कि पूर्ण भारत में ही 1498 से ही स्वतंत्रता का संग्राम चल रहा था जिसको कांग्रेसी व वामपंथी इतिहासकारों ने नज़रअंदाज़ किया। अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक ः स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र’ में संघ के विचारक व शिक्षाविद सुनील आंबेकर लिखते हैं कि इस अंग्रेज़ी इतिहास में जनजातीय एवं ग्राम्य व्यवस्था को भी विकृत किया गया। यदि जनजातीय इतिहास का विचार करें तो रानी दुर्गावती का नाम भी हमारे स्कूल की पाठ्य पुस्तकों से बाहर है जिन्होंने अकबर के विरुद्ध संघर्ष किया था। उनका नाम केवल इसलिए स्मृति में है क्योंकि गोंडवाना की गोंड जाति ने अपनी लोकथाओं में जीवंत रखा है तथा बाल साहित्यिक प्रकाशन ‘अमर चित्र कथा’ एवं ‘प्रभात प्रकाशन’ की पुस्तकों में इनका जिक्र मिल जाता है। मंगल पांडे भी इसी प्रकार लुप्त हो सकते थे, मगर उन्हें राम प्रसाद बिस्मिल, हरिकृष्ण देवसरे, दामोदर लाल गर्ग, अमरेश मिश्रा, टोनी पटेल आदि ऐसे लेखकों और चित्र कथाओं ने जि़ंदा रखा है और प्रायः स्कूलों में भी स्वाधीनता दिवस के मौके पर नृत्य नाटिकाओं में उनको याद किया जाता है। अन्य जनजातीय संघर्षों में 1785 में संथाल शूरवीर, तिलका मांझी का भी विशेष स्थान है। ऐसे ही बिरसा मुंडा भी केवल बिरसा-झारखंड आदि में ही ऐतिहासिक तौर पर जीवित हैं। ऐसे ही भारतीय स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाए इतिहास में दारुल उलूम देवबंद के भारतीय स्वतंत्रता सेनानी मौलाना ऊबेदुल्लाह सिंधी और राजा महेंद्र प्रताप सिंह का कोई जिक्र नहीं, जिन्होंने 1915 में अंग्रेजों के विरुद्ध आज़ादी के संग्राम में काबुल में भारतीय हुकूमत कायम कर न केवल देशभक्ति को उजागर किया था, बल्कि इस संग्राम में हिंदू-मुस्लिम एकता का उदाहरण भी पेश किया था। इसके अलावा भारतीय राष्ट्र को राष्ट्र बनाने वाले पांच कर्णधारों अर्थात डा. केशव बलीराम हेडगेवार, एमएस गोलवलकर, वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय, जो कि नवीन भारत के आदर्श पात्र हैं, अभी तक उनको उनका स्थान नहीं दिया गया है।

 जब संघ और भाजपा कांग्रेस के आदर्श पात्र नेताओं, जैसे महात्मा गांधी, मौलाना आज़ाद, पंडित नेहरू और सरदार पटेल आदि का मान-सम्मान करते हैं तो कांग्रेस के नेताओं का भी कर्त्तव्य है कि वे उनके आदर्श पात्र नेताओं का भी सम्मान करें। ऐसा न होकर कांग्रेसी संघ के इन बड़े नेताओं पर लांछन लगाते हैं और सावरकर पर तो अंग्रेजों से हाथ मिलाने का आरोप भी बिना कोई इतिहास जाने जड़ देते हैं। इन लोगों को पता होना चाहिए कि सावरकर ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया था। मगर खेद का विषय यह है कि सावरकर की विचारधारा वाली सरकार ने ही पिछले 6 वर्ष में उनकी कुर्बानियों तो ताज़ा करने और आने वाली नस्लों को बताने के लिए कुछ विशेष नहीं किया है। यही कारण है कि आज भारत के इतिहास को पुनः लिखने की बात चल रही है। हां, इसमें आज के इतिहासकारों को यह ध्यान रखना होगा कि जो घोर अन्याय वामपंथियों, कांग्रेसियों और अंग्रेजों ने भारत का इतिहास लिखने में किया है, वह न दोहराया जाए। इतिहास सच्चाई का प्रतिबिंब होता है और उसे विकृत नहीं होने देना चाहिए। यह जिम्मा जनता के रूप में प्रहरियों का है।


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