कथाओं की वाचिक परंपरा की परिणति

By: Apr 25th, 2021 12:04 am

अमरदेव आंगिरस मो.-9418165573

दूरदर्शन एवं सोशल मीडिया से पूर्व गांव और शहर में एक सामाजिक मेलजोल का वातावरण था। गांव के चौराहों अथवा शहरों के बाजारों में एक साथ चलना-फिरना, पास-पड़ोस के लोगों से अंतरंग बातें करना स्वाभाविक रूप से होता था। जन्म दिन, पर्व-त्योहारों में भारतीय परंपराओं से श्रद्धा और विश्वास से एक-दूसरे से प्रेम भाव और सहयोग की भावना रहती थी। जब आपस में लोग मिल-बैठते थे, तो गप्प-शप और ‘कुछ घर की, कुछ जग की’ सुनाते थे। इस प्रकार देश-प्रदेश की हलचलों व खबरों से परिचित रहते थे। खेतीबाड़ी, पशुपालन एवं वर्गों में बंटे कारीगर आजीविका के लिए अपना-अपना कार्य करते थे। वस्तुओं एवं खाद्य पदार्थों का आदान-प्रदान था, अतः बाजार पर निर्भरता कम थी। गेहूं के बदले मक्की, गुड़ के बदले तेल, ऊन के बदले पट्टू आदि आपसी मेल और सहयोग की भावना स्वतः ही पैदा करते थे।

मिट्टी गारे के घरों में प्रवेश द्वार वाले प्रथम कमरे में, स्थायी सार्वजनिक बैठक प्रत्येक घर में परिवार जनों और पड़ोस  से आए बड़े-बूढ़ों के लिए आपसी बातचीत और सुख-दुख बांटने के लिए ही निर्धारित थी। गांव एक ऐसी इकाई थी जिसमें सभी जाति-धर्म के लोग एक-दूसरे का सहयोग करते थे। खेतीबाड़ी प्रमुख धंधा था, अतः हल चलाने, घास काटने, पशु चराने, हाट-घराट आने-जाने के कार्य मिलजुल कर किए जाते थे। गांव के चौराहे के अलावा गांव के देवस्थान में सभी आवाल-वृद्ध समय-समय पर इकट्ठे होते थे।

गाना बजाना, भजन-कीर्तन तो आम था। जन्म दिन, संस्कारों और पर्वों पर मंगल गान सामूहिक रूप से स्वतः ही आयोजित हो जाते थे। फसल काटते, धान रोपते, पशु चराते मंगलगीत, लोकगीत धारों के आर-पार और तलहटियों में पंचम स्वर-लहरियों में गूंजते। श्रम के पश्चात एक आनंद और उल्लास की अनुभूति ग्राम समाज में स्वाभाविक रूप से रचती-बसती थी। बड़े-बूढ़े फसल की नई भेंट दानस्वरूप मंदिर में प्रदान करते थे। फसल के कुछ अंश लुहार, तेली, सराज, देवता, कुलदेवता को सामर्थ्य के अनुसार भेंट दिए जाते। शादी-विवाह एवं मृत कर्मों में अनाज-दालें आदि मदद के रूप में प्रत्येक परिवार एक-दूसरे को फर्ज समझकर प्रदान करता था। रात्रि को थके-हारे पड़ोसी दीन-दुनिया की बातें समाचार सुनाने की दृष्टि से मिल बैठकर अवश्य करते। शरद की रात्रियों को स्त्रियां-बच्चे कथाएं सुनते-सुनाते। रात्रियों को देव-प्रांगणों में धार्मिक लोकनाट्यों के आयोजन होते।

धार्मिकता के साथ हास्य-व्यंग्य के स्वांगों का आयोजन भी होता। ग्रामीण क्षेत्र सहकारी एवं सामुदायिक कार्यों में प्रसन्नता से रुचि लेते। आजादी से पूर्व जीवन अधिक संघर्षमय था, किंतु सीमित भौतिक सुविधाओं पर भी आदमी संतोष का जीवन जीता था। कठोर श्रम के पश्चात वह सुखमय नींद सो सकता था। वह प्रकृति के अधिक समीप था।

भारतीय परंपराओं की विशेषता रही है, पर्यावरण की विभूतियों को सम्मान देना। नदी, पर्वत, धरती, जल, पेड़-पौधे सभी मानव के पूज्य रहे हैं। अतः अहिंसा, परोपकार, दया का भाव भारतीय जीवन शैली में ही निहित है। अशिक्षित होने पर भी ग्राम्य जीवन में मानव मूल्यों के प्रति चेतना रही है। वेद-पुराणों, सम्राटों, युद्धवीरों, राजा-रानियों की कथाएं श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी अनवरत चलती रही हैं। लोक कथाओं में स्वच्छ समाज की कामना रही है जिनमें नैतिकता, भ्रातृभाव, सामाजिकता, भक्ति भावना, प्राणियों से प्रेम, आत्मरक्षा, परोपकार, त्याग आदि मूल्यों की शिक्षा अभिव्यक्त होती है। कथाओं के माध्यम से समाज, इतिहास और धर्म की शिक्षा स्वतः ही बच्चों-बड़ों को प्राप्त हो जाती थी।

यही कारण है कि विश्व में भारतीय समाज के जीवन मूल्यों को श्रेष्ठ माना जाता है, हालांकि गुलामी के कारण भारत में निरक्षरता रही। लोक कथाओं के कुछ कथानकों से इनमें छिपे सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है। लेकिन अब लोक कथाओं और धार्मिक कथाओं की वाचिक परंपरा लुप्तप्रायः होने से नई पीढ़ी में भारतीयता के सांस्कृतिक मूल्य एवं संस्कार भी लुप्त होते जा रहे हैं। बीसीए, एमसीए, बी. टैक, एम. टैक, डाक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही नहीं, विचारों से भी शून्य हो रहे हैं। यह सही है कि वर्तमान परिवेश में सरकार नैतिक एवं मातृभाषा में शिक्षा की योजना बना रही है, जिससे तथाकथित पढ़े-लिखे भी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जुड़ सकें। विश्व बंधुत्व, दया, करुणा, परोपकार, देश प्रेम, अहिंसा आदि शब्दों से शहरी एवं गांव के बच्चे अजनबी बन रहे हैं।

परंपरा के छूटने से बच्चे अंग्रेजी के प्रभाव से सिंड्रला, स्नोव्हाइट, रेपजल, एरियल, जैस्मीन जैसी विदेशी राजकुमारियों के विषय में तो पढ़ पाते हैं, लेकिन अपनी मिट्टी से जुड़ी पंचतंत्र, जातक कथाएं, अमर कथाएं, महाभारत-रामायण कथाएं हिंदी माध्यम से न पढ़ पाने के कारण अपनी माटी की गंध से असम्पृक्त ही रहते हैं। बुजुर्गों एवं नई पीढ़ी में संवाद की कमी हो चुकी है। अतः बड़ों का सम्मान विस्मृत हो रहा है। जो संवाद 60-70 के दशक तक दादा-दादी, नाना-नानी आदि से बातचीत और कथाओं के माध्यम से अच्छे संस्कारों के लिए स्वतः नई पीढ़ी को मिलता था, वह लुप्तप्रायः है। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय इतिहास एवं सांस्कृतिक परिवेश की शिक्षा स्कूल, कालेज तथा विश्वविद्यालय स्तर तक पाठ्यक्रमों में दी जाए, जिससे नई पीढ़ी भारतीय माटी की गरिमा की पहचान कर सके। राष्ट्रीयता की भावना के लिए मातृभाषाओं एवं हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार एवं अपनाने की आवश्यकता है।


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