मुलजिमों को हथकड़ी न लगाने का औचित्य

हमारा देश मुलजिमों के ही मानवीय अधिकारों के संरक्षण में लगा हुआ है तथा हरसंभव प्रयत्न किया जाता है कि वह सजा मुक्त हो जाए। पुलिस के भी मानवाधिकार होते हैं…

पुलिसमैन को देखते ही आम जनमानस के मानसिक पटल पर कोई अच्छा संदेश नहीं जाता है तथा उसे बुराई का पर्याय मान लिया जाता है। अंग्रेजों के समय से मिली विरासत तथा उसी समय की भारतीय दंड संहिता (1860) पुलिस की छवि को धूमिल करती आ रही है। कोई अपराधी जब पुलिस की अभिरक्षा से भागने में सफल हो जाता है तो पुलिस को कोढ़ी (अपंग) की संज्ञा दे दी जाती है तथा जब किसी संगीन अपराधी को हथकड़ी लगा कर न्यायालय तक या फिर इधर से उधर अन्वेषण के लिए ले जाया जाता है तब न्यायालय व मानवाधिकार संस्थाएं उसे कलंकी की संज्ञा देने लगते हैं तथा संविधान की धाराओं (14, 19, 21 व 22) के उल्लंघन का दोषी मान लेते हैं। पुलिस को शायद त्रिकालदर्शी या फिर तावीज़ देने वाला बाबा के रूप में मान लिया जाता है जैसा कि उसकी निगाहें व मानसिक स्तर इतना गहन होता है कि उसे अपराधी से भागने से पहले ही उसी तरह पता लग जाता है जैसा कि भूकंप या सुनामी जैसी आपदाओं के घटित होने से पहले ही कुछ जानवरों को एहसास हो जाता है कि आपदा आने वाली है तथा वो भौंकना शुरू कर देते हैं।

 भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (1973) की धारा 46 की अंतर्गत मुलजिमों को हिरासत में लेने का अधिकार है तथा महिला अपराधियों के अतिरिक्त यदि कोई मुलजिम भागने की या हिंसा करने की कोशिश करता है तो पुलिस उसे अभिरक्षा में रखने के लिए उचित बल का प्रयोग कर सकती है। इसी तरह पंजाब पुलिस रूल्ज़ (1934) जो कि हरियाणा व हिमाचल मे भी लागू हैं, के चैप्टर 26 की धारा 26-19, 26 -21 व 26-22 के अंतर्गत ऐसे मुलजिमों को हथकड़ी लगाने का प्रावधान है जो किसी संगीन अपराध (जिनकी सजा तीन वर्ष से अधिक हो) में संलिप्त हों या फिर जिनका हिंसक होने या भागने का अंदेशा हो। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियमों को भी एक केस (सिटीजन ऑफ डेमोक्रेसी बनाम स्टेट ऑफ  असम 1995) के निर्णय में यह कह कर निरस्त कर दिया कि यह सब धाराएं मनमानी व गैर संवैधानिक हैं तथा कि मुलजिमों को हथकड़ी लगाना अमानवीय है। इससे पहले भी वर्ष 1978 में सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1978) व वर्ष 1992 में अंजनी कुमार सिन्हा बनाम स्टेट ऑफ बिहार में भी ऐसा ही निर्णय दिया था कि आमतौर पर मुलजिमों को हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती तथा केवल गंभीर प्रकृति के मुकद्दमों में, उनके हिंसक होने या भाग जाने की प्रत्याशा में ही हथकड़ी लगाई जा सकती है, मगर उसके लिए न्यायालय से पूर्व इजाजत लेना आवश्यक होगा या फिर यहां इजाजत मिलने में विलंब हो तब उन हालातों में रोजनामचे में उसकी विस्तृत जानकारी देकर ही हथकड़ी लगानी होगी। मगर अब प्रश्न उठता है कि यदि कोई मुलजिम यात्रा के समय चालाकी से या फिर हिंसक होकर भागने की कोशिश करता है तब पुलिसवाला क्या करे।

 अब न तो वो पूर्व इजाज़त ले सकता है और न ही रोजनामचे में इसका पूर्व इंद्राज कर सकता है। तब ऐसे में वह पुलिस कर्मी एक बहुत बड़ी दुविधा वाली स्थिति में होगा। अगर हम मुलजिमों की संगीन अपराधों में संलिप्तता की बात करें तो यह स्पष्ट है कि हत्या, रेप, मादक पदार्थों व बड़े-बड़े फ्रॉड (धोखाधड़ी) के मुकद्दमों में मुलजिमों को बड़ी मेहनत के बाद ही गिरफ्तार किया होता है तथा ऐसे संगीन अपराधों में संलिप्त अपराधी हमेशा पुलिस की अभिरक्षा से भागने की फिराक में होते हैं तथा ऐसे अपराधियों को हथकड़ी लगाने का तो नियमों में ही प्रावधान होना चाहिए। बात यहीं पर ही समाप्त नहीं हो जाती, यदि कोई मुलजिम पुलिस की हिरासत से भाग जाता है तो संबंधित पुलिसकर्मी के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860) की धारा 223 के अंतर्गत मुकद्दमा दर्ज कर दिया जाता है जिसमें दो वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। जरा सोचिए कि कितनी विडंबना है एक कर्मठ, निष्ठावान व मुस्तैद जवान जो कि न जाने कितनी मुश्किल से पुलिस में भर्ती हुआ होगा तथा न जाने उसकी अपने व विभाग के प्रति कितनी निष्ठाएं व आशाएं थी, की मानसिक प्रवृत्ति पर क्या गुजरती होगी। उसको विभाग भी तुरंत निलंबित कर देता है तथा विभागीय जांच के आदेश दे दिए जाते हैं। कोर्ट से पुलिसकर्मी मुकद्दमों में भले ही छूट जाए, मगर विभाग तो उसे सजा देकर ही छोड़ता है। ऐसे में पुलिस कर्मी का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक ही है तथा उसका व्यवहार भी असमान्य हो जाएगा जिसके फलस्वरूप वह अपने कार्य का निष्पादन सही ढंग से नहीं कर पाएगा। पुलिस विभाग की संस्कृति भी कुछ ऐसी है कि अधिकारी बिना पूर्व जांच किए हुए उसके विरुद्ध मुकद्दमा भी दर्ज कर देते हैं तथा नौकरी से निलंबित भी।

 हां, यह माना जा सकता है कि पुलिसवालों की लापरवाही के लिए जैसा कि वह मुलजिम को अकेला ही छोड़ कर चाय पीने लग जाए या फिर शराब का सेवन इत्यादि करने लग जाए, इस सबके लिए उसके विरुद्ध कार्रवाई लाई जानी चाहिए, मगर यदि मुलजिम भीड़ का फायदा उठा कर या फिर पुलिस वाले की लाचारी के कारण भागता है तब उस पुलिस वाले को दोषी नहीं ठहराना चाहिए। विडंबना यह भी है कि यद्यपि थाना अधिकारी को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 (बी) के अंतर्गत अधिकार है कि वह अगर समझे कि संज्ञा अपराध जिसके लिए अपराध करने का इरादा होना भी आवश्यक है, यदि यह सब नहीं है तब वह मुकद्दमा दर्ज नहीं करेगा, मगर फिर भी अपने ही पुलिसकर्मी के खिलाफ बिना किसी पूर्व जांच के मुकद्दमा दर्ज कर दिया जाता है क्योंकि इसमें पुलिस अधीक्षक की तरफ  से लिखित आदेश हुए होते हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अब जरूरत है कि धारा 223 को निरस्त किया जाए तथा यदि पुलिस कर्मी लापरवाही के लिए जिम्मेदार पाया जाता है तो उसके खिलाफ विभागीय जांच ही की जाए। यदि हम विकसित देशों जैसे कि इंगलैंड या अमरीका की बात करें तो वहां भी कुछ परिस्थितियों में पुलिस को हथकड़ी लगाने का अधिकार है। वहां तो मुलजिमों के हाथ पीछे करके हथकड़ी लगाई जाती है ताकि मुलजिम किसी भी हालात में भाग न सके, मगर हमारा देश मुलजिमों के ही मानवीय अधिकारों के संरक्षण में लगा हुआ है तथा हरसंभव प्रयत्न किया जाता है कि वह सजा मुक्त हो जाए। पुलिसवाले, जो अपने जीवन को जोखिम में डाल कर दिन-रात काम करते हैं, उनके मानवीय अधिकारों की तरफ  भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। तभी वे तनावमुक्त होकर अपने कार्य का भली-भांति निष्पादन करने में सफल होंगे।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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