चीन और मानव अधिकार

इसलिए यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता कि चीन अपनी जनता के मानव अधिकारों  का उल्लंघन कर रहा है क्योंकि किसी भी अधिकार या कानून का अंतिम उद्देश्य  जनता का सुख है। यदि चीन की जनता अपनी सरकार के प्रति सकारात्मक एवं  आशान्वित है तो चीन की सरकार द्वारा अपनी जनता के मानव अधिकारों के उल्लंघन  पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए। फिर भी यह सही है कि चीन द्वारा अपनी जनता के मानव अधिकारों का हनन किया जा रहा है, जैसा हांगकांग में। लेकिन साथ-साथ चीन द्वारा अपनी जनता के सुख पर भी ध्यान दिया जा रहा है। मानव अधिकारों को सरकार के चरित्र के आधार पर देखना चाहिए…

हांगकांग में लोकतंत्र की हत्या, ऊईघुर मुसलमानों पर अत्याचार एवं हांगकांग के मीडिया मुग़ल जैक मा को हिरासत में लिए जाने को लेकर चीन की भर्त्सना की जा रही है। कहा जा रहा है कि चीन अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन में अपनी जनता के मानवाधिकारों का हनन कर रहा है। इस संदर्भ में 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा पत्र की धाराओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। घोषणापत्र की धारा 29 में व्यक्ति के अधिकारों को प्राथमिक बताया गया है, यद्यपि यह भी कहा गया है कि व्यक्ति के अधिकारों को समाज के हित में सीमित किया जा सकता है। लेकिन प्राथमिकता व्यक्ति के अधिकारों की ही बनी रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति विशेष समाज के हितों के विपरीत तब तक काम कर सकता है जब तक सरकार उसके अधिकारों को सीमित न करे। जैसे छात्रों को सिखाया जाए कि चोरी तब तक की जा सकती है जब तक पुलिस न पकडे़। यह न सिखाया जाए कि चोरी करना गलत है। इसी प्रकार घोषणापत्र कहता है कि व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों को तब तक बढ़ा सकता है जब तक समाज उसे न रोके। चाणक्य ने कहा था कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को गांव के लिए और गांव को देश के लिए त्याग देना चाहिए। मानवाधिकार घोषणापत्र इसके ठीक विपरीत है। व्यक्ति को प्राथमिक रखा गया है, जबकि चाणक्य के अनुसार गांव और देश को प्राथमिक रखा जाना चाहिए।

 इसलिए इस धारा पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। घोषणापत्र की धारा 29.1 में कहा गया है कि व्यक्ति का समाज के प्रति दायित्व है, लेकिन इस दायित्व का निर्वाह करना व्यक्ति के लिए अनिवार्य नहीं है। इसलिए व्यक्ति द्वारा समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह न भी किया जाए तो भी वह अपने व्यक्तिगत अधिकारों की मांग कर सकता है, जैसा कि आतंकवादी करते हैं। इसका परिणाम यह है कि जो व्यक्ति समाज के विपरीत काम करते हैं, उनके अधिकारों की रक्षा की जाती है और उनके समाज के विपरीत कार्यों को पर्दे के पीछे छिपा दिया जाता है। घोषणापत्र की धारा 29.3 में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्रीय के सिद्धांतों के विरुद्ध कोई व्यक्ति कार्य नहीं करेगा। अब विचार कीजिए कि संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों में एक प्रमुख सिद्धांत यह है कि सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्य होंगे जिनके पास वीटो पावर होगा। शेष 200 देशों को नीचा दर्जा दिया गया है। इसलिए इस असमानता के विरुद्ध आवाज उठाना मानवाधिकार घोषणापत्र के विपरीत है। एक तरफ घोषणापत्र संपूर्ण विश्व के नागरिकों के समान अधिकार  की बात करता है और वही घोषणा पत्र दूसरी तरफ  कुछ विशेष देशों के विशेष  अधिकारों को सुरक्षित करता है और संपूर्ण विश्व को इस असमानता के प्रति आवाज उठाने से भी मना करता है। घोषणापत्र की एक प्रमुख विसंगति आर्थिक असमानता को पुष्ट करने की है। धारा 13 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को अपने देश की सीमा में यात्रा का अधिकार होगा। धारा 21.2 में कहा गया है कि देश की सीमाओं में व्यक्ति को  सार्वजनिक सुविधाओं के उपयोग का अधिकार होगा। धारा 22 में कहा है कि हर  व्यक्ति को देश की सीमा में सामाजिक सुरक्षा जैसे रोटी, कपड़ा और मकान का अधिकार होगा।

 प्रश्न यह है कि यदि संपूर्ण विश्व एक ही है तो इन आर्थिक अधिकारों को देश की सीमा में क्यों बांध दिया गया? यानी, राजनीतिक अधिकारों  में संपूर्ण विश्व एक है। अमरीका अथवा चीन मांग कर सकता है कि भारत द्वारा कश्मीर में मानव अधिकारों को बहाल किया जाए, लेकिन भारत के नागरिक को चीन में यात्रा करने का अधिकार नहीं होगा। चीन में सामाजिक सुरक्षा का अधिकार  नहीं होगा इत्यादि। विषय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राजनीतिक अधिकारों को  अंतरराष्ट्रीय बनाने से अमीर देशों को गरीब देशों में दखल करने का अवसर मिल जाता है, जबकि आर्थिक अधिकारों को सीमा के अंदर बांध देने से अमीर देश अपनी अमीरी को सुरक्षित रख सकते हैं। इस पृष्ठभूमि में हमें चीन द्वारा मानवाधिकारों के हनन को समझना चाहिए। चीन की सरकार अपने नागरिकों के प्रति उदार दिखती है। नागरिकों के मानवाधिकारों  का हनन और जनहित वहां साथ-साथ चलता दिखता है। अमरीका के एडलमैन ट्रस्ट  द्वारा 2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि चीन के 90 प्रतिशत नागरिक अपनी  सरकार में विश्वास रखते हैं। तुलना में अमरीका के केवल 39 प्रतिशत नागरिक  अपनी सरकार में विश्वास रखते हैं। हावर्ड यूनिवर्सिटी के ऐश सेंटर फॉर  डेमोक्रेटिक गवर्नेंस ने 2011 एवं 2016 में चीन के नागरिकों का सर्वेक्षण  किया था और पाया गया कि 2011 में 61 प्रतिशत लोग स्थानीय सरकार को जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील मानते थे। 2016 में यह बढ़कर 74 प्रतिशत हो  गया। 2011 में 45 प्रतिशत नागरिक मानते थे कि स्थानीय अधिकारी अमीरों के  लिए काम करते हैं। 2016 में यह घटकर 40 प्रतिशत हो गया। 2011 में 32  प्रतिशत लोग मानते थे कि स्थानीय अधिकारियों द्वारा नाजायज वसूली की जाती  है। 2016 में यह घटकर 23 प्रतिशत हो गया।

 इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि चीन की जनता अपनी सरकार से संतुष्ट तो है ही, बल्कि संतुष्टि का स्तर बढ़ रहा है। इसलिए यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता कि चीन अपनी जनता के मानव अधिकारों  का उल्लंघन कर रहा है क्योंकि किसी भी अधिकार या कानून का अंतिम उद्देश्य  जनता का सुख है। यदि चीन की जनता अपनी सरकार के प्रति सकारात्मक एवं  आशान्वित है तो चीन की सरकार द्वारा अपनी जनता के मानव अधिकारों के उल्लंघन  पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए। फिर भी यह सही है कि चीन द्वारा अपनी जनता के मानव अधिकारों का हनन किया जा रहा है, जैसा हांगकांग में। लेकिन साथ-साथ चीन द्वारा अपनी जनता के सुख पर भी ध्यान दिया जा रहा है। इसलिए हमें संभवतः मानवाधिकारों को सरकार के  चरित्र के आधार पर देखना चाहिए। जिन देशों की जनता को अपनी सरकार पर भरोसा  नहीं है जैसे अमरीका की जनता को, उन देशों में मानवाधिकारों को सख्ती से  लागू करना चाहिए। लेकिन जहां देश की सरकार अपनी जनता के प्रति संवेदनशील है  और उनके सुख का ध्यान रखती है, वहां मानवाधिकारों का उपयोग जनता के सुख के हनन के लिए भी किया जा सकता है। अतः अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणापत्र को मूलतः उन देशों पर लागू किया जाना चाहिए जिनकी जनता अपनी सरकार के  प्रति नकारात्मक है, जैसे अमरीका में केवल 39 प्रतिशत लोग अपनी सरकार पर विश्वास रखते हैं।

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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