सामुदायिक वानिकी से आय सृजन

एक एकड़ में बांस के लगभग 200 पौधे लगाए जा सकते हैं जिससे चार साल के बाद प्रतिवर्ष लगभग 2000 बांस निकाले जा सकते हैं, जिससे 100 रुपए प्रति बांस के हिसाब से दो लाख रुपए कमाए जा सकते हैं। स्थानीय मांग सीमित होने की स्थिति में कागज़ उद्योग की मांग पर निर्भर रहना होगा। सरकार यदि रोपण योजना शुरू करने से पहले ही उद्योग से तालमेल बना ले तो किसान को बिक्री में कोई कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा। अच्छी उपज लेने के  लिए इलाके की जलवायु के हिसाब से प्रजाति चयन बहुत जरूरी है…

आज के हालात में भारतवर्ष में रोजगार सृजन एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। जिन राज्यों के पास पर्याप्त वन भूमि है, वे सामुदायिक वानिकी के माध्यम से बड़े पैमाने पर आय और रोजगार सृजन कर सकते हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने इस दिशा में एक अच्छा प्रयोग करने का साहस किया है, जिसमें वन विभाग, ग्राम वन विकास समिति और स्वयं सहायता समूह में समझौता होगा। इस समझौते के अंतर्गत बांस उत्पादन के लिए स्वयं सहायता समूह को भूमि आबंटित की जाएगी। समूह को अच्छी बांस की पौध दी जाएगी और मनरेगा के तहत रोपण कार्य की मजदूरी भी दी जाएगी। समूह चार-पांच वर्ष में प्रति हेक्टेयर 2-3 लाख रुपए कमाने लगेगा और यह आय 40-50 वर्ष तक जारी रहेगी क्योंकि बांस का पौधा 40-50 वर्ष तक उपज देता रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इस योजना में और भी सुधार किया जा सकता है। ऐसे बांस रोपण क्षेत्रों में यदि 50 फीसदी में बांस और शेष में फल, चारा, दवाई प्रजातियों के पेड़ लगाए जाएं तो विविधता पूर्ण आय के स्रोत खड़े हो सकते हैं। किसान पशुपालन को भी बढ़ा सकते हैं और फल बिक्री से भी आय कमा सकते हैं। सरकार को कार्बन क्रेडिट का लाभ मिल सकता है। वर्तमान परिस्थिति में जहां-जहां वन अधिकार क़ानून के तहत समुदायों को सामुदायिक अधिकार मिल चुके हैं वहां ग्राम वन प्रबंध समिति उस एक्ट के तहत बनाई जा सकती है जो ज्यादा स्थायी और क़ानून द्वारा पुष्ट आधार होगा। दुनिया में भारतवर्ष दूसरे नंबर का बांस उत्पादक है।

 पहले दर्जे पर चीन है। हालांकि भारत में 130 लाख हेक्टेयर में बांस का उत्पादन हो रहा है और चीन में 45 लाख हेक्टेयर में। किंतु भारत की प्रति हेक्टेयर बांस की उपज जहां 2-3 टन है वहां चीन 45 टन प्रति हेक्टेयर की पैदावार ले रहा है। इसका अर्थ ये हुआ कि हमें अपनी उपज बढ़ाने के लिए भारी प्रयास करने की जरूरत है। भारत में बांस की मांग लगभग 40 मिलियन टन है जिसमें लगातार बढ़ोतरी होने की संभावना है। बांस का वर्तमान उपयोग दस्तकारी, लघु इमारती लकड़ी, कागज बनाने और थोड़ा-बहुत इसकी राइजोम को सब्जी या आचार बनाने के लिए भी उपयोग किया जाता है, किंतु सस्ती इमारती लकड़ी, प्लाईवुड बनाने और कागज़ की बढ़ती मांग के कारण बांस की मांग बढ़ने वाली है। इसके साथ बांस से एथनोल बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं जिससे बांस की मांग में भारी बढ़ोतरी होने की संभावना है। 5 फीसदी एथनोल पेट्रोल में मिलाने के स्तर को 22 फीसदी तक बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं जिससे एथनोल बनाने के लिए बांस की मांग बढ़ेगी और  भारी मात्रा में पेट्रोल पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा बचेगी। बांस का पौधा 35 फीसदी अधिक ऑक्सीजन देता है और पशुओं के लिए चारे के रूप में इसकी पत्तियां प्रयोग में लाई जाती हैं।

 बांस का पौधा ऊष्णकटिबंधीय और शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। बांस में बीज 40 से 80 वर्ष में एक बार आते हैं। बीज आने के बाद वह पौधा मर जाता है। नया लगाना पड़ता है। बीज से तैयार पौधा जहां 7-8 वर्षों में कटाई योग्य होता है, वहां राइजोम से लगाया गया पौधा 4 साल में ही कटाई योग्य हो जाता है। किंतु राइजोम बड़ी संख्या में उपलब्ध करने में कठिनाई होती है, इसलिए टिशु कल्चर से पौधे तैयार करना बेहतर विकल्प हो सकता है। पालमपुर विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश ने बांस के चोटी की गांठों को गन्ने की रोपाई की तरह लगा कर पौधे तैयार करने की अच्छी तकनीक विकसित की है। भारत सरकार बम्बू मिशन के तहत बांस रोपण को बढ़ावा दे रही है, किन्तु यह निजी भूमियों तक ही सीमित है। इसे सामुदायिक भूमियों तक विस्तारित किया जाना चाहिए, ताकि वन क्षेत्र में बढ़ोतरी के साथ-साथ रोजगार सृजन भी हो सके। भूमिहीन वर्ग जो इस तरह की गतिविधि में रुचि रखता हो और सक्षम हो, उन्हें भी एक लाभकारी रोजगार के साथ जोड़ा जा सकता है। एक एकड़ में बांस के लगभग 200 पौधे लगाए जा सकते हैं जिससे चार साल के बाद प्रतिवर्ष लगभग 2000 बांस निकाले जा सकते हैं, जिससे 100 रुपए प्रति बांस के हिसाब से दो लाख रुपए कमाए जा सकते हैं। स्थानीय मांग सीमित होने की स्थिति में कागज़ उद्योग की मांग पर निर्भर रहना होगा। सरकार यदि रोपण योजना शुरू करने से पहले ही उद्योग से तालमेल बना ले तो किसान को बिक्री में कोई कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा।

 अच्छी उपज लेने के  लिए इलाके की जलवायु के हिसाब से प्रजाति चयन बहुत जरूरी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए डेंडरोकैल्मुस स्ट्रिक्टुस और हैमिलटन अच्छी प्रजातियां मानी जाती हैं। मध्य प्रदेश की तर्ज पर यदि योजना बना कर सामुदायिक भूमियों में स्वयं सहायता समूह बना कर और ग्राम वन प्रबंध समितियों का वन अधिकार कानून के तहत गठन करके इस योजना को क्रियान्वित किया जाए तो बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के साथ पर्यावरण संरक्षण कार्य सफलता से किया जा सकता है। हिमाचल और उत्तराखंड के निचले क्षेत्र इसके लिए उपयुक्त हैं जहां पहले ही छुटपुट बांस लोग अपने खेतों में लगा रहे हैं। वनों में भी बांस लगाए गए हैं, किंतु बहुत जगह देखा गया है कि उनकी किस्म बहुत हल्की है जो बेहतर उपज देने की दृष्टि से उपयुक्त नहीं मानी जा सकती है। कृषि विश्वविद्यालय, वन विभाग, कृषि विभाग का संयुक्त कार्यान्वयन समूह बना कर इस कार्य को किया जा सकता है। वन विभाग और कृषि विश्वविद्यालय पौध तैयार करने से शुरुआत करें। कृषि विभाग खेती में भी कुछ लोग लगाना चाहें तो उनकी मदद कर सकता है। बांस की बड़े स्तर पर बिक्री व्यवस्था के लिए कागज़ उद्योग के साथ तालमेल करके व्यवस्था खड़ी की जा सकती है।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान


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