अंग्रेजों के खिलाफ नूरपुर रियासत की बगावत

लाजिमी है आजादी दिवस पर उन क्रांतिवीरों का स्मरण किया जाए जिन्होंने अपना स्र्वोच्च बलिदान देकर बर्तानिया हुकूमत का अंजाम तय करके भारत से अंग्रेज निज़ाम को रुखसत किया था। आज़ादी के बाद हमारे राजाओं ने लोकतंत्र की बहाली के लिए अपनी रियासतों का भारत में विलय किया था। राजाओं के उस त्याग को याद रखना होगा…

बर्तानिया हुकूमत की गुलामी का दौर जब हिंदोस्तान में हुक्मरानी किसी आईन से नहीं बल्कि अंग्रेजों के तानाशाही रवैये से चलती थी। ब्रिटिश साम्राज्य के जुल्मों सितम से परेशान होकर मुल्क की करोड़ों अवाम गुरबत से जद्दोजहद करके खौफ के साए में जीवन जीने को मजबूर थी, मगर अंग्रेजों की सितमगर हुकूमत से आंख मिलाने की हिमाकत कोई नहीं करता था। सन् 1857 के विद्रोह को प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना जाता है, लेकिन पठानिया राजपूतों की ‘नूरपुर रियासत’ ने फिरंगी हुकूमत के खिलाफ बगावत का शदीद आगाज सन् 1846 में वीरभूमि हिमाचल की सरजमीं पर करके अंग्रेजों को बर्तानियां सल्तनत के सूर्यास्त का एहसास करा दिया था। अंग्रेजों के खिलाफ ऐलान-ए-जंग का सशस्त्र सफीना जारी करके युवाओं के जहन में आजादी का जुनून पैदा करने वाले नूरपुर रियासत के वजीर का नाम ‘राम सिंह पठानियां’ था। बगाबत की चिंगारी नूरपुर रियासत तक ही महदूद नहीं थी। राम सिंह के बगावती जज्बे से प्रभावित होकर कागड़ा, जसवां तथा दातारपुर की राजपूत रियासतों ने भी विद्रोही तेवर अख्तियार करके फिरंगी हुकूमत को सशस्त्र चुनौती पेश कर डाली थी। लेकिन अपनी शमशीरों से अंग्रेज लश्कर का हलक सुखाने वाले पहाड़ के उन शूरवीर राजाओं को अन्य रियासतों का साथ नहीं मिला अन्यथा जंग का रुख बदल जाता। दूसरी बिडंबना यह रही कि तलवारों से लैस पहाड़ की सैन्यशक्ति ब्रिटिश फौज के आग उगल रहे तोपखानों व बंदूकों का सामना करने में असमर्थ रही।

नतीजतन कांगड़ा के राजा प्रबुद्ध चंद कटोच व दातारपुर रियासत के राजा जगत चंद तथा जसवां रियासत के शासक उम्मेद सिंह जसवाल व उनके पुत्र जय सिंह को अंग्रेजों ने कैद करके ‘अल्मोड़ा’ की जेलों में भेज दिया था। कई सालों तक जेल की सलाखों के अंधेरों की घुटन में रहकर वे सभी राजा वीरगति को प्राप्त हुए, मगर अंग्रेजों से माफीनामे की गुजारिश तक नहीं की थी। ‘प्रथम सिख इन्फैंट्री’ के लेफ्टिनेंट ‘जान पील’ व उसके सैन्य दस्ते को खड्ग से हलाक करके अपने शौर्य को मुसबत करने वाले वजीर राम सिंह पठानिया भी आखिर विश्वासघात का शिकार होकर अंग्रेजों के चंगुल में फंस गए। अंग्रेज सेना ने राम सिंह को हिरासत में लेकर सन् 1849 में सिंगापुर की जेल में भेज दिया था। अंग्रेजों की जंगी सनक को खाक में मिलाकर आज़ादी की शमां जलाने वाले राम सिंह ने भी जेल में शहादत को गले लगा कर मातृभूमि की आजादी के लिए उच्च कोटि के राष्ट्रवाद की नज़ीर कायम की थी। सन् 1857 की बगावत में भी हिमाचल के सैकड़ों युवाओं ने ब्रिटिश सत्ता को ललकारा था। उन क्रांतिवीरों में कुल्लु-सिराज के ‘कुंवर प्रताप सिंह’ (1821-1857) ने अपने कई साथियों के साथ मिलकर अंग्रेज सेना पर धावा बोल दिया था। अंग्रेज आयुक्त ‘विलियम हे’ के नेतृत्व में अंग्रेजों ने कुंवर प्रताप सिंह को उनके साथियों के सहित ‘दुलची’ क्षेत्र में हिरासत में ले लिया था। राजद्रोह के अभियोग में क्रांतिकारी प्रताप सिंह व बीर सिंह को अंग्रेजों ने 3 अगस्त 1857 के दिन धर्मशाला के पुलिस मैदान में फांसी पर लटका कर उनके अन्य साथियों को भागसू जेल में बंद कर दिया था।

हालांकि कुंवर प्रताप सिंह ने सन् 1846 में ‘मुडकी आलीवाल’ के प्रथम ‘आंग्ल सिख युद्ध’ में भी अंग्रेज सेना के खिलाफ लड़ाई में भाग लिया था। 1857 के विद्रोह के दौरान बुशहर के शासक ‘शमशेर सिंह’ (1850-1914) ने अंग्रेजों का नजऱाना मंसूख करके बुशहर को आज़ाद रियासत घोषित करके ब्रिटिश निज़ाम को अपनी सलाहियत से मुखातिब करा दिया था। सुजानपुर के कटोच शासक ‘प्रताप चंद’ के आक्रामक तेवरों को भांप कर अंग्रेजों ने उन्हें महल में ही नजऱबंद कर दिया था। मंडी रियासत के राजा ‘भवानी सेन’ की रानी व ‘खैरागढ़’ रियासत की राजकुमारी ‘ललिता कुमारी’ (रानी खैरागढ़ी) ने भी बर्तानिया बादशाही के खिलाफ विद्रोह की आवाज बुलंद की थी। जंगे आजादी में कूदने वाली किसी पहाड़ी राजवंश की पहली इंकलाबी विरांगना ‘रानी खैरागढ़ी’ ही थी, जिसके बगावती तेवरों से खौफजदा होकर ब्रिटिश हुकूमत ने रानी खैरागढ़ी को मंडी रियासत से बेदखल करने का फरमान जारी करके उसके मंडी आने पर रोक लगा दी थी। मगर अफसोसजनक कि अंग्रेज सल्तनत के सूर्यास्त की तम्हीद लिखने वाले आजादी के वास्तविक सूत्रधार देश के इतिहास में ही गुमनाम हो गए। लेकिन भारत में सदियों तक मजलूमों का खून बहाने वाले विदेशी आक्रांताओं के नाम देश के राजमार्गों पर आज भी चस्पां हैं। यदि इतिहास पर नजर डालें तो ज्ञात होगा कि महाभारत युद्ध से लेकर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, दो विश्व युद्ध, आज़ाद हिंद फौज, अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी संघर्ष तथा आजादी के बाद देश के लिए पांच बड़े युद्धों के महाज़ तक हिमाचल के वीर सपूतों का गौरवशाली सैन्य इतिहास अदम्य साहस से भरा है। आज़ादी की कीमत अपने जांबाजों के खून से अदा करने वाली पहाड़ की माटी की तासीर में राष्ट्रवाद के जज्बात हमेशा प्रबल रहे हैं, मगर विक्टोरिया क्रॉस, जॉर्ज क्रॉस, परमवीर चक्र व अशोक चक्र जैसे आलातरीन सैन्य पदकों से सुसज्जित वीरभूमि की शिनाख्त वाला राज्य आजादी के 75 वर्षों बाद भी सेना में पहाड़ की सैन्यशक्ति के शौर्य की अलग पहचान ‘हिमाचल रेजिमेंट’ को मोहताज है। सैन्य वर्दी पहनने की हसरत रखने वाले पहाड़ के युवा वेग का भर्ती कोटा कम कर दिया गया है। भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ को ‘आजादी अमृत महोत्सव’ के रूप में मना रहा है। देश में ‘हर घर तिरंगा’ की मुहिम शुरू हुई है। गुलामी के दौर में हर हिंदोस्तानी ने राष्ट्र के स्वाभिमान भारत के ‘राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे’ का ख्वाब देखा था। लाजिमी है आजादी दिवस पर उन क्रांतिवीरों का स्मरण किया जाए जिन्होंने अपना स्र्वोच्च बलिदान देकर बर्तानिया हुकूमत का अंजाम तय करके भारत से अंग्रेज निज़ाम को रुखसत किया था। आज़ादी के बाद हमारे राजाओं ने लोकतंत्र की बहाली के लिए अपनी रियासतों का भारत में स्वेच्छा से विलय किया था, ताकि सियासी रहनुमां जम्हूरियत के हाकिम बन सकें। मुल्क के हुक्मरानों को राजाओं के उस त्याग को याद रखना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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