भारत में जनहित कानून क्यों नहीं बनते

By: Oct 27th, 2022 12:10 am

ये दोष किसी एक व्यक्ति के नहीं हैं, ये प्रणालीगत दोष हैं। भारतवर्ष में लागू संसदीय प्रणाली इतनी दूषित है कि इसे बदले बिना इन कमियों से निजात पाना संभव नहीं है। इसकी तुलना में अमरीकी शासन प्रणाली बहुत बेहतर है। वहां राष्ट्रपति कानून नहीं बनाता, संसद कानून बनाती है। भारतवर्ष में यदि सरकार द्वारा पेश कोई बिल संसद में गिर जाए तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है, इसीलिए पार्टियां ह्विप जारी करती हैं। अमरीका में कोई बिल पास हो या न हो, इससे राष्ट्रपति को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपनी निश्चित अवधि तक काम करने के लिए स्वतंत्र है, वह अपने मंत्रिमंडल में विशेषज्ञों को लेने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि उसके मंत्रिमंडल के सदस्य चुनाव नहीं लड़ते, उन्हें राष्ट्रपति नियुक्त करता है, इसके विपरीत भारत में वही व्यक्ति मंत्रिपरिषद में शामिल हो सकता है जो किसी सदन का सदस्य हो। इससे योग्यता गौण हो जाती है, चुनाव जीतना प्रमुख कार्य हो जाता है। ऐसे लोग मंत्री हो जाते हैं जिन्हें अपने विभाग का जरा भी ज्ञान नहीं होता, यही कारण है कि नौकरशाही मंत्रियों पर हावी रहती है…

भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और हम गर्व करते हैं कि हमारा संविधान वृहद और परिपूर्ण है, फिर भी हम देखते हैं कि जनहित के नाम पर अक्सर ऐसे कानून बन जाते हैं जो असल में जनविरोधी होते हैं। इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तो उन्होंने राष्ट्रपति के अधिकार सीमित करके वह एकमात्र अड़चन भी दूर कर ली जिससे उन पर थोड़ा-बहुत अंकुश लगना संभव था। उसके बाद धीरे-धीरे स्थिति बद से बदतर होती गई और कानून क्या बने, उसकी धाराएं क्या हों, यह शासक वर्ग पर निर्भर होता चला गया। सार्थक बहस का स्थान कानफोड़ू शोर ने ले लिया और बजट भी अव्यवस्था और कोलाहल के बीच पास होने लग गया। सदन का स्थगन रीति बन गया और कोरम पूरा करके सदन की कार्यवाही चलाने के लिए सांसदों को घेर कर लाने की आवश्यकता पडऩे लगी। परिणामस्वरूप संसद में पेश बिल बिना किसी जांच-परख के ध्वनि मत से पास होने लगे। आंकड़ों की बात करें तो सन् 1990 में चंद्रशेखर की सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 बिल पास कर दिए। सन् 1999 में सदन की कुल 20 बैठकें हुईं, लेकिन उनमें 22 बिल पास कर दिए गए। सन् 2001 में 32 घंटों में 33 बिल पास हो गए। सन् 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन बिल पास कर दिए।

इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून बनवा लिया। अब सांसदों के लिए दल के मुखिया से असहमत होना असंभव हो गया। दल की नीति के अनुसार वोट देना कानून हो गया और सांसद पिंजरे के तोते बन गए। जब यह कानून बन गया कि पार्टी के ह्विप की अवहेलना नहीं की जा सकती और सांसदों के लिए पार्टी की लाइन पर चलना ही विवशता हो गई तो फिर बिल पर मतदान की प्रासंगिकता ही खत्म हो गई। मतदान की प्रासंगिकता खत्म होने का परिणाम दूरगामी रहा। नियम यह है कि मंत्रिपरिषद का कोई भी सदस्य जब सदन में कोई बिल पेश करता है तो वह सरकारी बिल माना जाता है, लेकिन सत्तापक्ष का कोई ऐसा सदस्य जो मंत्री न हो, वह भी यदि सदन में कोई बिल पेश करे तो उसे निजी बिल माना जाता है। यह जानना रुचिकर होगा कि सन् 1970 के बाद आज तक एक भी निजी बिल पास नहीं हो पाया है, कानून नहीं बन पाया है। सत्तापक्ष के पास बहुमत होता है तो बहुमत वाले दल के मंत्रिमंडल द्वारा पेश किए गए बिल ही पास हो पाते हैं। जब सांसदों को यह स्पष्ट हो गया कि सदन में उनकी भूमिका नगण्य है तो सदन की कार्यवाही में रुचि भी जाती रही, इससे बहस का स्तर गिरा, सदन के भाषणों में जनहित की चिंता खत्म हो गई और वोट की चिंता शुरू हो गई। भाषणों का स्वर राजनीतिक हो गया। संसद की बैठकों का समय तेजी से घट गया। पचास के दशक में जहां साल भर में सदन की बैठकें 130 दिन हुआ करती थीं, सन् 2000 आते-आते इनकी संख्या घट कर 50 के आसपास रह गई। यही नहीं, काम का समय भी कम हो गया। संसद, सरकार की रबड़ स्टैंप बन कर रह गई। इससे कानूनों के स्तर और गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। सन् 2000 में पास हुए रासायनिक हथियार सम्मेलन अधिनियम पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने के बाद अलग-अलग किस्म की 40 गलतियां पकड़ी गईं। जब सत्तापक्ष के ही सदस्यों की भूमिका शून्य हो गई, वे सिर्फ कोरम पूरा करने और मेजें थपथपाने के लिए रह गए तो विपक्ष की भूमिका पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नहीं है। विपक्ष कोई कानून बनवा नहीं सकता, रुकवा नहीं सकता, उसमें संशोधन नहीं करवा सकता, फिर वह अपनी उपस्थिति कैसे दर्ज करवाए? मीडिया को और जनता को अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए विपक्ष शोर-शराबे पर उतर आया। विपक्ष द्वारा शोर मचाने, माइक फेंकने, कुर्सियां तोडऩे आदि की घटनाएं बढ़ गईं।

सांसदों की विवशता यह है कि चुनाव जीतने के लिए पार्टी का मंच होना जरूरी है। पार्टी का टिकट पाने के लिए पार्टी के वरिष्ठ लोगों की निगाह में रहना, उनकी चापलूसी करना आवश्यक हो गया। चुनाव के लिए टिकट देने का अधिकार हाईकमान के हाथों में सिमट गया। इस प्रकार सत्ता की बागडोर बहुमत वाले दल से आगे बढक़र बहुमत प्राप्त दल के नेता के पास सिमट गई। इसका परिणाम और भी भयानक हुआ, कोई एक शक्तिशाली व्यक्ति अपने पूरे दल को अपनी उंगलियों पर नचाना आरंभ कर देता है। लोकतंत्र वस्तुत: एक व्यक्ति या एक बहुत छोटे से गुट के शासन में बदल जाता है। सत्तासीन व्यक्ति कोई भी कानून बनवा सकता है, वह जनता की गाढ़ी कमाई से आए टैक्स के पैसे का कितना भी दुरुपयोग करे, कोई सवाल नहीं उठता है। ये दोष किसी एक व्यक्ति के नहीं हैं, ये प्रणालीगत दोष हैं। भारतवर्ष में लागू संसदीय प्रणाली इतनी दूषित है कि इसे बदले बिना इन कमियों से निजात पाना संभव नहीं है। इसकी तुलना में अमरीकी शासन प्रणाली बहुत बेहतर है। वहां राष्ट्रपति कानून नहीं बनाता, संसद कानून बनाती है। भारतवर्ष में यदि सरकार द्वारा पेश कोई बिल संसद में गिर जाए तो सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है, इसीलिए पार्टियां ह्विप जारी करती हैं।

अमरीका में कोई बिल पास हो या न हो इससे राष्ट्रपति को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपनी निश्चित अवधि तक काम करने के लिए स्वतंत्र है, वह अपने मंत्रिमंडल में विशेषज्ञों को लेने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि उसके मंत्रिमंडल के सदस्य चुनाव नहीं लड़ते, उन्हें राष्ट्रपति नियुक्त करता है, इसके विपरीत भारत में वही व्यक्ति मंत्रिपरिषद में शामिल हो सकता है जो किसी सदन का सदस्य हो। इससे योग्यता गौण हो जाती है, चुनाव जीतना प्रमुख कार्य हो जाता है। ऐसे लोग मंत्री हो जाते हैं जिन्हें अपने विभाग का जरा भी ज्ञान नहीं होता, यही कारण है कि नौकरशाही मंत्रियों पर हावी रहती है। शासन व्यवस्था की दूसरी बड़ी कमी यह है कि इसमें जनता की भागीदारी का कोई प्रावधान नहीं है, जनता की राय के बिना बनने वाले कानून अक्सर अधकचरे होते हैं जो जनता का हित करने के बजाय नुकसान अधिक करते हैं। यही कारण है कि हमारे देश में जनहित के कानून नहीं बन पाते। लब्बोलुबाब यह कि शासन प्रणाली में परिवर्तन किया जाए और उसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जाए ताकि कानून वो बनें जो जनहित में हों ताकि देश उन्नति कर सके, फल-फूल सके। यही भारत के हित में होगा।

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com

पी. के. खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार


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