बुलंद भारत का सपना

By: Dec 1st, 2022 12:08 am

स्थानीय स्तर पर नेतृत्व की शक्तियां और जिम्मेदारियां पार्षदों, विधायकों तथा सांसदों और अधिकारियों के बीच उलझनपूर्ण ढंग से बिखरी हुई हैं। शहरी स्वशासन के मामले में मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, उपायुक्त, निगम आयुक्त, पार्षद और मेयर आदि की जिम्मेदारियां एक समान हैं जिससे बहुत उलझन होती है क्योंकि किसी एक व्यक्ति की जवाबदेही नहीं बन पाती। राजनीतिज्ञ इस दिशा में कुछ करना नहीं चाहते। इसलिए अब यह जनता पर मीडिया, बुद्धिजीवियों और आम जनता पर मयस्सर है कि वे खुले दिमाग से सोचें, ‘मत’ के बजाय तथ्यों को अधिमान दें…

आदमी उम्र से नहीं, विचारों से बूढ़ा होता है। जब हम नए विचार ग्रहण करना बंद कर देते हैं तो हम बूढ़े हो जाते हैं। युवा शक्ति की प्रशंसा इसीलिए की जाती है कि उनमें ऊर्जा तो बहुत होती है, पर पूर्वाग्रह नहीं होता और वे दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति खुले दिमाग से सोचते हैं। बुलंद भारत का सपना साकार करने के लिए खुला दिमाग, दूसरों के नजरिए के प्रति सहनशीलता, नई बातें सीखने का जज्बा, काम से जी न चुराना, तकनीक का लाभ उठाने की योग्यता, प्रगति और रोजगार के नए और ज्यादा अवसर, आपसी भाईचारा तथा देश और क्षेत्र का समग्र विकास हमारा लक्ष्य होना चाहिए। भारतीय संविधान की मूल भावना को ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार’ के रूप में व्यक्त किया गया है। दूसरे शब्दों में इसे ‘जनता की सहभागिता के द्वारा शासन’ कहा जा सकता है, यानी हमारे संविधान निर्माता हर स्तर पर आम आदमी, सरकार और प्रशासन में उसकी भागीदारी को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे। भारतीय प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रणाली की संरचना इस प्रकार की गई थी कि यह एक लोक कल्याणकारी राज्य बने, जिसमें हर धर्म, वर्ग, जाति, लिंग और समाज के व्यक्ति को देश के विकास में भागीदारी के बराबर के अवसर मिलें।

हमारे देश में संसदीय प्रणाली लागू है जिसमें संसद सर्वोच्च है क्योंकि वह कानून बनाती है, न्यायपालिका उनकी व्याख्या करती है और कार्यपालिका उन कानूनों के अनुसार शासन चलाती है। संसद की सर्वोच्चता का दूसरा अर्थ यह है कि मंत्रिगण अपने हर कार्य के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं और यदि प्रधानमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य ऐसा करने में विफल रहे तो संसद उन्हें हटा दे। परिकल्पना के रूप में यह एक उत्तम विचार है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण किए बिना किसी निर्णय पर पहुंचना तर्कसंगत नहीं है। भारतीय संसदीय व्यवस्था में दिखने में सरकार के तीनों अंग, यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्वतंत्र हैं, लेकिन व्यवहार में बड़ा फर्क है क्योंकि कार्यपालिका में शामिल लोगों का संसद के किसी सदन, यानी विधायिका का सदस्य होना आवश्यक है। इसका परिणाम यह है कि कार्यपालिका कानून बनाती भी है, उन्हें लागू भी करती है और शासन भी चलाती है। कार्यपालिका, यानी सरकार के पास सिर्फ कानून बनाने और शासन करने की दोहरी शक्तियां ही नहीं हैं, बल्कि व्यवहार में ये शक्तियां लगभग असीमित हैं। बहुमत होने के कारण सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया हर बिल कानून बन जाता है। संसद में विपक्ष का लाया कोई बिल पास नहीं होता। अत: संसद के आधे सदस्य तो विधायिका में होते हुए भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। यही नहीं, दरअसल खुद संसद ही अप्रासंगिक है। एक मजबूत प्रधानमंत्री कैबिनेट की सहमति के बिना भी शासन चला सकता है, अध्यादेशों के सहारे शासन चला सकता है और संसद को बाईपास कर सकता है।

इससे सरकार निरंकुश हो जाती है। स्पष्ट है कि संसद सर्वोच्च नहीं है, सरकार ही कार्यपालिका भी है और विधायिका भी। यही नहीं, न्यायपालिका की सर्वोच्च नियुक्तियां करने का अधिकार भी सरकार के पास है। शक्तियों के इस गड्डमड्ड से हमारी शासन व्यवस्था जड़ तक दूषित हो गई है। देश का आम नागरिक राज्य सरकारों के संपर्क में होता है, केंद्र के नहीं, और राज्य सरकारों की हालत इतनी खस्ता है कि धन के मामले में वे पूरी तरह से केंद्र पर निर्भर हैं। जब राज्य सरकारें इतनी विवश हैं, तो वे नागरिकों का भला क्या करेंगी? अमरीका में लागू राष्ट्रपति प्रणाली में संसद का चुनाव सीधे होता है और वह कानून बनाती है। उसका कोई सदस्य सरकार में शामिल नहीं होता और कानून लागू करने या शासन चलाने में उसकी कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है। कार्यपालिका के लिए राष्ट्रपति का चुनाव होता है, वह अपने सहयोगी चुनता है जिनका राजनीति में होना या न होना आवश्यक नहीं है। अत: वे विशेषज्ञ भी हो सकते हैं। सरकार के ये दोनों अंग एक-दूसरे के सामान्य कामकाज में दखल दिए बिना एक-दूसरे को नियंत्रित भी करते हैं। राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत विदेशी संधियों के लागू होने के लिए कांग्रेस का समर्थन आवश्यक है, इसी तरह राष्ट्रपति अपने सहयोगी चुनने के लिए स्वतंत्र है, परंतु उन पर कांग्रेस की सहमति अनिवार्य है। दूसरी ओर, राष्ट्रपति कानून नहीं बनाता, लेकिन वह संसद द्वारा पारित कानून को वीटो कर सकता है। न्यायपालिका का कार्य पूर्णत: स्वतंत्र है। वह संसद द्वारा पारित किसी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। इस प्रकार सरकार के सभी अंग स्वतंत्र हैं और एक-दूसरे को सीमित ढंग से नियंत्रित भी करते हैं। अमरीकी संसद की सबसे बड़ी खासियत यह है कि कोई भी बिल 60 प्रतिशत सदस्यों के समर्थन के बिना पास नहीं हो सकता। परिणामस्वरूप किसी भी बिल को पास करवाने के लिए अक्सर विपक्ष का सहयोग लेना ही पड़ता है, जिससे बिलों पर खूब चर्चा होती है, स्वतंत्र चर्चा होती है और गहन चर्चा से गुजरने के कारण बढिय़ा स्तर के जनहितकारी प्रावधान ही कानून बन पाते हैं। उल्लेखनीय है कि संसदीय व्यवस्था में जहां 70 साल से भी कम समय में कई प्रधानमंत्री तानाशाही रवैया अपना चुके हैं, वहीं अमरीका के 200 साल के इतिहास में एक भी राष्ट्रपति तानाशाह नहीं बन सका। आपातकाल के समय एक बार इंदिरा गांधी ने देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने की बात सोची जरूर थी, लेकिन फिर उन्होंने महसूस किया कि राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति के पास उतने अधिकार नहीं होते जितने संसदीय प्रणाली में एक निरंकुश प्रधानमंत्री के पास हो सकते हैं।

अत: उन्होंने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया। प्रकाश चंद्र सेठी, लालकृष्ण आडवाणी, राजीव प्रताप रूडी और शशि थरूर समय-समय पर राष्ट्रपति प्रणाली का समर्थन करते रहे हैं। शशि थरूर ने एक बार लोकसभा के मानसून सत्र में स्थानीय निकायों में मेयर के सीधे चुनाव का बिल लोकसभा में पेश किया था ताकि राष्ट्रपति प्रणाली के गुणों को स्थानीय स्तर पर लागू करके धीरे-धीरे उसे राष्ट्रीय स्तर तक ले जाया जा सके और लोगों की इस धारणा को निर्मूल सिद्ध किया जा सके कि राष्ट्रपति प्रणाली अच्छी शासन व्यवस्था नहीं है या कि इस प्रणाली से चुना गया राष्ट्रपति तानाशाह हो जाता है। बहुत से राज्यों में मेयर के सीधे चुनाव की व्यवस्था तो है, पर उसके पास कोई अधिकार नहीं हैं। इसलिए सीधे चुनकर भी मेयर वस्तुत: कठपुतली-सा ही रह जाता है। स्थानीय स्तर पर नेतृत्व की शक्तियां और जिम्मेदारियां पार्षदों, विधायकों तथा सांसदों और अधिकारियों के बीच उलझनपूर्ण ढंग से बिखरी हुई हैं। शहरी स्वशासन के मामले में मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, उपायुक्त, निगम आयुक्त, पार्षद और मेयर आदि की जिम्मेदारियां एक समान हैं जिससे बहुत उलझन होती है क्योंकि किसी एक व्यक्ति की जवाबदेही नहीं बन पाती। राजनीतिज्ञ इस दिशा में कुछ करना नहीं चाहते। इसलिए अब यह जनता पर मीडिया, बुद्धिजीवियों और आम जनता पर मयस्सर है कि वे खुले दिमाग से सोचें, ‘मत’ के बजाय तथ्यों को अधिमान दें ताकि हम संसदीय प्रणाली की खामियों को दूर करने की दिशा में अपेक्षित कदम उठा सकें।

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com
पी. के. खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App